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किसानी और पशुपालन से भी जुड़ी है दीपावली

दीपावली का त्योहार खेती-किसानी और पशुपालन से जुड़ा हुआ है। इस मौके पर हल-बक्खर जैसे कृषि के औजारों और अन्न देने वाली धरती माता की पूजा होती है

किसानी और पशुपालन से भी जुड़ी है दीपावली
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- बाबा मायाराम

आज बाजार के रासायनिक, जहरीले किन्तु आकर्षक रंग ने ले ली है। पशु वह रंग चाटते हैं। इसी प्रकार, आज की रंगोली कल झाडू साफ कर दूसरी बनाई जाती है। रोज-रोज यही होता है, खासकर दशहरा-दीवाली के दौरान घर-घर यही चित्र दिखता है। यह रंगोली अगले दिन कचरे में जाती है। उसके जहरीले रंग मिट्टी, पानी में पहुंचकर प्रदूषण फैलाते हैं। यह हम रोक सकते हैं। इसके साथ ही, कृत्रिम रंगों का इस्तेमाल खाद्य पदार्थ में होता है।

दीपावली का त्योहार खेती-किसानी और पशुपालन से जुड़ा हुआ है। इस मौके पर हल-बक्खर जैसे कृषि के औजारों और अन्न देने वाली धरती माता की पूजा होती है। गाय, बैल आदि सभी जानवरों को सजाया जाता है। उनकी भी पूजा की जाती है। यह वह समय होता है जब किसान के घर में खरीफ की फसल आ जाती है। छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश में धान की फसल इसी समय आती है। आज इस कॉलम में दीपावली की इसी परंपरा पर दृष्टि डालना उचित होगा, जिससे इन त्योहारों में जो सादगीपूर्ण सरल जीवन पद्धति का संदेश था, उसे याद करें, जिससे हमारा जीवन खुशहाल, समृद्ध व शांतिपूर्ण हो सके।

ग्रामीण भारत में दीपावली को बहुत ही उत्साह व धूमधाम से मनाने की परंपरा रही है। गांवों में आमतौर पर मिट्टी के कच्चे घर हुआ करते थे, अब भी हैं, उनकी मरम्मत की जाती है। घर-आंगन का रंग-रोगन किया जाता है। गाय-बैलों को नहलाया धुलाया जाता है। उनको सजा-संवारा जाता है।

दिवाली पर लक्ष्मी पूजन होता है। धन-धान्य की समृद्धि की कामना की जाती है। छत्तीसगढ़ में धान की सुंदर झालर बनाई जाती है, और उसकी पूजा भी होती है। खेती से जुड़ाव का एक उदाहरण यह है कि पहले लक्ष्मी की तस्वीर भी सूपा में अनाज बरसाते हुए होते थी, अब यह तस्वीर गायब हो गई है। इसी प्रकार, गो-धन की पूजा भी होती थी। इसमें तरह-तरह के घास, औषधीय पौधे, फसलों की बालियां की भी पूजा की जाती थी। गोधन को ही पशुधन कहा जाता था, जिसका खेती में अटूट योगदान था।
पहले स्कूलों में दिवाली की लंबी छुट्टी (24 दिन की) हुआ करती थी, जिसे फसली छुट्टी भी कहते थे। इस दौरान बच्चे उनके मां-बाप के साथ खेतों के काम में मदद करते थे। खेती के तौर-तरीकों सीखते थे, आसपास के परिवेश व पर्यावरण से परिचित होते थे। जमीनी हकीकत से जुड़ते थे। रिश्तेदारों के घर जाते थे। इससे हाथ के काम, कुशलता सीखते थे, समाज में घुलना-मिलना व आपस में एक दूसरे से सीखना भी होता था, अब यह छुट्टी कम हो गई है। वैसी भी हमारी शिक्षा में श्रम के मूल्य को स्थान नहीं दिया गया है।

लेकिन आज खेती-किसानी और पशुपालन पीछे छूटते जा रहे हैं। बाजार की दिवाली प्रमुख हो गई है। यानी एक दिवाली भागती हुई सभ्यता की प्रतीक बन गई है तो दूसरी दिवाली कृषि सभ्यता में ठहर गई है। एक दिवाली में गगनचुंबी इमारतों होने वाली दिवाली की पार्टियों का शोर है, बल्बों की रोशनी है, तो दूसरी दिवाली अब गांवों में उजड़ती दिख रही है, वहां सन्नाटा पसरा रहता है। खेती और गांव उजड़ती हुई सभ्यता के प्रतीक बन रहे हैं।

आज खेती और किसानों की कई समस्याएं हैं। कुछ जलवायु बदलाव से जुड़ी हैं तो कुछ बाजार से। यानी कुछ मानवनिर्मित है, तो कुछ प्रकृतिजन्य। कुछ लोग इसे प्रकृति की देन बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं।

हम आज ऐसे आधुनिक समय में जी रहे हैं, जहां सब कुछ देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। किसान और किसान की पीड़ा हमारी आंखों से ओझल हो रहे हैं। कुछ लोगों द्वारा तर्क दिया जाता है कि अगर खेती घाटे का धंधा है तो छोड़ क्यों नहीं देते? गांव में रोजगार नहीं है तो शहरों में क्यों नहीं आते?

खेती के पक्ष में दो-तीन बातें महत्वपूर्ण हैं। एक, मनुष्य का पेट अनाज से ही भर सकता है, किसी और चीज से नहीं और अनाज खेत में पैदा होता है। अनाज को किसी फैक्ट्री में पैदा नहीं किया जा सकता है। दूसरा, खेती में वास्तव में उत्पादन होता है, एक दाना बोओ, पच्चीस दाने पाओ। ऐसा किसी और माध्यम से संभव नहीं है। उद्योगों में कच्चा माल डालने से उसमें रूप परिवर्तन होता है। इसलिए खेती का महत्व हमेशा बना रहने वाला है। फिर किसान जो बड़ी तादाद में हैं, खेती को छोड़कर करेगा क्या?

इसी तरह, किसानों का सबसे पुराना दोस्त बैल भी अब खेती में पीछे हो गया है। कुछ समय पहले तक पशुओं के मनुष्य के व्यवहार की मिसालें दी जाती थी, वह पशुपालन भी कम हो गया है। पूरी किसानी संकर बीजों, रासायनिक खाद व कीटनाशकों के भरोसे हो रही है। जिससे खेती की लागत तो बढ़ ही रही है, साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी कम हो रही है। खेती के लिए मित्र कीट भी खत्म हो रहे हैं। पक्षी भी कम दिखाई देते हैं।

जबकि पशुओं के गोबर खाद से जमीन उर्वर होती थी। दूध-घी भी मिलता था। और इसमें अलग से कोई खर्च भी नहीं होता था। फसलों के डंठल पशुओं के चरने के काम आते थे। इस तरह एक चक्र बना हुआ था। यानी खेती मनुष्य, पशु, पक्षी सभी जीव- जगत के पालन का विचार शामिल था।

एक और समस्या दीपावली से जुड़ गई है, और वह कृत्रिम रंगों के इस्तेमाल से जुड़ी है। पहले गाय-बैलों को गेरू (लाल-पीली मिट्टी ) से रंगा जाता था, इसकी जगह अब ऑइल पैंट का इस्तेमाल किया जा रहा है। गेरू मिट्टी का आज भी महत्व है। गेरू जंतुनाशक मानी जाती है। बारिश में पशु के जख्मों के उपचार में काम आता है। बैलों के सींग पहले उसी से रंगते थे। किन्तु आज आकर्षक ऑईल पेंट का इस्तेमाल होता है, जो महीनों तक बैलों के सींगों में चिपका रहता है। इससे पशु को तकलीफ होती होगी। सींग के छेद ऑईल पेंट के कारण बंद होते हैं। पशु के पूरे शरीर पर गेरू से निशान भी लगाते थे।

आज बाजार के रासायनिक, जहरीले किन्तु आकर्षक रंग ने ले ली है। पशु वह रंग चाटते हैं। इसी प्रकार, आज की रंगोली कल झाडू साफ कर दूसरी बनाई जाती है। रोज-रोज यही होता है, खासकर दशहरा-दीवाली के दौरान घर-घर यही चित्र दिखता है। यह रंगोली अगले दिन कचरे में जाती है। उसके जहरीले रंग मिट्टी, पानी में पहुंचकर प्रदूषण फैलाते हैं। यह हम रोक सकते हैं। इसके साथ ही, कृत्रिम रंगों का इस्तेमाल खाद्य पदार्थ में होता है।

इन सबसे बचा जा सकता है। कृत्रिम रंगों के विकल्प जरूर हैं। वनस्पतिजन्य, पर्यावरणस्नेही रंग हम पहले इस्तेमाल करते ही थे। आधुनिक जीवनशैली की चमक तथा विविधता ने हम मोहग्रस्त हुए। दुष्प्रभाव, प्रदूषण हम भूल गए। रंगोली भी कई तरह की हरी पत्तियों व फूलों से बनाई जा सकती है। कुछ जगह यह बनाई भी जाती है।
कुछ समय पहले मैं महाराष्ट्र गया था। वहां के गांधीवादी कार्यकर्ता बसंत फुटाणे कृत्रिम रंगों के इस्तेमाल की जगह प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करते हैं। वे उनके पशुओं को गेरू मिट्टी से रंगते हैं। और उनके घर में रंगोली भी पत्तियों व फूलों से बनाई जाती है। इस तरह प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल मैंने तमिलनाडु में भी देखा था।
कुल मिलाकर, भारत का भविष्य खेती और उससे जुड़े लघु कुटीरों में है। कुम्हार जो दिवाली पर दीये बनाते हैं, उनके जैसे समुदायों के रोजगार बढ़ाने और बचाने की जरूरत है। गांवों को आत्मनिर्भर व स्वावलंबी बनाने में मदद करते हैं। इसी तरह कृत्रिम रंगों के इस्तेमाल से भी बचा जा सकता है। उनके स्थान पर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जा सकता है।

हमारी देश की जलवायु, मिट्टी-पानी, हवा, जैव विविधता और पर्यावरण खेती के लिए अनुकूल है। अगर हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे तो हमारे किसानों की दिवाली भी अच्छी होगी, और हमारी भाईचारा बढ़ाने वाली व प्रकृति के साथ समन्वय करनेवाली कृषि और उसकी संस्कृति भी बचेगी। गांव और कृषि संस्कृति भी बचेगी। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ने को तैयार हैं?


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