संसद को अप्रासंगिक बनाने धनखड़ और बिरला में होड़
विपक्ष में रहते भाजपा हमेशा कहती रही है कि 'संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है

- डॉ. दीपक पाचपोर
विपक्ष में रहते भाजपा हमेशा कहती रही है कि 'संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है', पर दस वर्षों से उसका नज़रिया बदल गया है। अब वह विपक्ष को संसद के ठप होने के लिये जिम्मेदार मानने लगी है। तकरीबन हर सत्र का पैटर्न कुछ इस तरह का हो गया है कि किसी न किसी बात को लेकर सत्ता पक्ष की ओर से शोर-शराबा किया जाता है।
अपने प्रदीर्घ राजनीतिक जीवन के अलग-अलग कालखंडों में विधानसभा से लेकर संसद के दोनों सदनों में बैठ चुके राज्यसभा सदस्य दिग्विजय सिंह सोमवार को जब संसद परिसर में यह कहते हैं कि 'मैंने अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में ऐसा पक्षपाती सभापति नहीं देखा जैसा कि आज आसीन है', तो इस पर गम्भीरता से विचार किये जाने की ज़रूरत है। उसे केवल यह कहकर खारिज नहीं किया जाना चाहिये कि वे विपक्ष में हैं तो ऐसा कहेंगे ही। उन्होंने यह बात शिष्टाचारवश राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ को ही लेकर सीमित करके कही है क्योंकि वे उसी सदन के बारे में कह रहे थे, जिसके कि वे सदस्य हैं। वरना उनकी बात दोनों ही सदनों के बारे में एक सी लागू होती है- लोकसभा के बारे में भी जिसके अध्यक्ष ओम बिरला हैं। हालांकि अब यह कहना बड़ा मुश्किल है कि भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में कौन अधिक सक्रियता और शिद्दत से संसद को अप्रासंगिक बनाने पर तुला है- ओम बिरला या जगदीप धनखड़। वैसे तो बिरला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परम्परा से आते हैं इसलिये उनके लिये ऐसी संवैधानिक संस्थाओं का कोई महत्व नहीं है; और भारतीय जनता पार्टी शासन में ऐसे ही लोगों को ये पद अधिक आसानी से मिलते हैं जो उस आसन को अधिकतम गंदला कर सकें। मटियामेट कर दें। इसलिये अपनी कार्रवाई के दौरान बिरला अक्सर सदस्यों से 'बैठ जाओ', 'नो...नो', 'यह नईं चलेगा' 'आपकी बात रेकार्ड में नहीं जायेगी... जैसे शब्दों में डांट-डपट करते रहते हैं।
आगे-पीछे राष्ट्रपति का चुनाव होना है। साफ है कि उस पद की ओर दोनों तेजी से बढ़ना चाहते हैं। धनखड़ की संघ की पार्श्वभूमि नहीं है। वे सुप्रीम कोर्ट के सफल वकील होने के साथ जनता दल व कांग्रेस में लम्बा समय काटकर आये हैं। उन्हें संविधान का महत्व मालूम होना चाहिये परन्तु व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की इस होड़ के चलते वे भी लोकतंत्र और जनहित को भंगार कर रहे हैं। इसके कारण पिछले कई सत्रों की भांति ही संसद के मौजूदा सत्र में अब तक कुछ ही घंटे काम हो पाया है। संसद में काम न होने का फायदा हमेशा सत्तारुढ़ दल को होता है। बिरला व धनखड़ मिलकर भारतीय जनता पार्टी को दिलो-जान से लाभान्वित कर रहे हैं। पिछली दोनों व वर्तमान लोकसभाओं और राज्यसभा में विपक्ष को कुचलने और उसकी आवाज को खत्म करने की सुनियोजित योजना के अंतर्गत दोनों ने अपने संवैधानिक पदों का भरपूर दुरुपयोग किया है। किसी भी मुद्दे पर जिस तरीके से ये दोनों सरकार का बचाव करते अथवा पैरवी करते न•ार आते हैं, उससे अधिक शर्मनाक कुछ इसलिये नहीं हो सकता क्योंकि ये दोनों पद पार्टी हितों से बढ़कर जिम्मेदारियों के निर्वहन की अपेक्षा रखते हैं। पूरी संसदीय व्यवस्था इन दोनों पदों के निष्पक्ष एवं पारदर्शी तरीके से काम करने पर निर्भर है। इस वर्ष लोकसभा चुनाव के बाद दूसरी बार ओम बिरला को जब यह पद मिला तो उससे साफ संदेश गया कि जो भी संसदीय परम्परा को जितना बिगाड़ सकता है वह उतना ही अधिक पुरस्कृत होगा। वरना जब भी मिली-जुली सरकार बनती है तो सत्ताधारी दल यह पद किसी सहयोगी पार्टी को प्रदान करता है। मोदी ने ऐसा नहीं किया। उसके पीछे यही कारण था कि वे इन दोनों के जरिये सम्पूर्ण राजनीतिक एकाधिकार कायम करना चाहते हैं। इसमें वे काफी हद तक सफल होते भी दिख रहे हैं।
विपक्ष में रहते भाजपा हमेशा कहती रही है कि 'संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है', पर दस वर्षों से उसका नज़रिया बदल गया है। अब वह विपक्ष को संसद के ठप होने के लिये जिम्मेदार मानने लगी है। तकरीबन हर सत्र का पैटर्न कुछ इस तरह का हो गया है कि किसी न किसी बात को लेकर सत्ता पक्ष की ओर से शोर-शराबा किया जाता है और जो राई भी नहीं है उसे पर्वत बनाकर सदन को ठप कर दिया जाता है। सरकार से सवाल पूछते ही सत्ताधारी दलों की ओर से विपक्ष पर हमले होते हैं। उस शोर-गुल में संख्या बल के आसरे दोनों सदनों के संचालकगण सरकार की ओर से रखे जाने वाले कानून पारित करा देते हैं जिनमें से ज्यादातर जनविरोधी रहे हैं। पिछले दशक भर से पता नहीं ऐसे कितने कानून भाजपा सरकार द्वारा पारित कराकर देश पर थोपे गये हैं जिन पर पहले चर्चा नहीं की गयी।
लगता है कि संसद को इसी तरह से चलाने के निर्देश सम्भवत: मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की ओर से मिले हुए हैं। इस टास्क को कौन भली-भंति पूरा करता है- इसी के हिसाब से तय होगा कि अगला राष्ट्रपति कौन बनेगा। इस टास्क के साथ यह भी संदेश छिपा हुआ है कि संसद को पूरी तरह से अप्रासंगिक बना दिया जाये ताकि लोगों का लोकतंत्र से ही मोहभंग हो जाये और भाजपा तथा उसकी मातृ संस्था आरएसएस की मंशा के अनुरूप देश में मनुवादी व्यवस्था स्थापित की जा सके जिसके तहत शासन प्रणाली में लोगों की भागीदारी न हो। बिरला-धनखड़ की जोड़ी एक तरह से अपने-अपने सदनों को अपहृत कर मोदी-शाह के इसी मंसूबे को पूरा कर रही है। देश के गिने-चुने कारोबारियों के पक्ष में काम करने वाली सरकार के लिये ऐसे ही सदन मुफ़ीद होते हैं।
देश के सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर आवश्यक चर्चा को टालकर संसद को अप्रासंगिक बनाने के कारण ही संसद परिसर में कुछ ऐसे नज़ारे देखने को मिलते हैं जो कहने को अप्रिय लग सकते हैं परन्तु वे यह बतलाते हैं कि दोनों सदनों के भीतर उनकी बात को नहीं सुना जा रहा है। उन्हें बोलने के लिये कोई और मंच चाहिये। मोदी प्रेस कांफ्रेंस करते नहीं और सरकार समर्थक मीडिया विपक्ष की बात को नहीं छापता या दिखाता। छापता-दिखाता भी है तो तोड़-मरोड़कर या उतने हिस्से को ही जिससे सत्ता पक्ष को फायदा हो। ऐसे में यदि राज्यसभा सदस्य कल्याण बैनर्जी (तृणमूल कांग्रेस) धनखड़ की मिमिक्री करते हैं और उसका राहुल गांधी वीडियो बनाते हैं तो वह स्वाभाविक है; अथवा राहुल बतलाते हैं कि दूसरी बार अध्यक्ष बनने के बाद ओम बिरला उनसे (राहुल से) तो तनकर मिलते हैं परन्तु मोदी से झुककर हाथ मिलाते हैं। इस सबके बावजूद यदि प्रतिपक्ष का मुंह बंद रखने पर बिरला-धनखड़ आमादा हैं तो विरोधी दलों के पास इसके अलावा कोई और चारा नहीं रह जाता कि वे मोदी व गौतम अदानी के मास्क पहनकर संसद परिसर में दोनों की दोस्ती को प्रतीकात्मक तरीके से अभिनीत करें। यह प्रहसन बतलाता है कि संसद ऐसी अप्रासंगिक हो गयी है कि अपनी बात कहने या उन पर होते अन्याय को दर्शाने के लिये निर्वाचित सांसदों को मिमिक्री का सहारा लेना पड़ रहा है।
पार्टी के प्रति निष्ठा कहें या मोदी-शाह का डर; अथवा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा- इन्हें देश व जनता के हितों से भी ऊपर रख दिया गया है। इसी के चलते एक ओर तो ओम बिरला थोक के भाव में विरोधी सदस्यों को निलम्बित करते हैं, तो वहीं धनखड़ राज्यसभा में राष्ट्रीय सुरक्षा पर नियम 267 के तहत नोटिस खारिज होने के बावजूद चर्चा के लिये सत्तारुढ़ दलों के सदस्यों को बोलने से रोकते हैं; लेकिन विपक्षी पार्टियों के सदस्यों का बोलना नामंजूर कर देते हैं। यही कारण है कि प्रेस के समक्ष दिग्विजय सिंह को कहना पड़ता है कि इतना पक्षपाती सभापति उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी भी नहीं देखा।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


