दिल्ली के नतीजे बताएंगे कि कांग्रेस अकेली चलेगी या फिर अनिर्णय में फंसी रहेगी
राहुल ने दिल्ली चुनाव में समां बांध दिया। कांग्रेस जो दिल्ली में बिल्कुल खतम हो गई थी उसमें वापस जान फूंक दी

- शकील अख्तर
खुद कांग्रेस के नेता राहुल को नहीं पहचान पाए। उनके लिए राहुल भी एक चेहरा तो हैं मगर यह नहीं समझ पाए कि एक ऐसा शख्स उनके पास है जो कभी भी बाजी पलट सकता है। उनको सत्ता में ला सकता है। मुकाबला बहुत मुश्किल है। मोदी ने देश में एक ऐसा माहौल बना दिया है कि जनता पर किसी बात का असर नहीं हो रहा है। अभी कुंभ में भगदड़ में मारे गए लोगों की खबर छुपाई गई।
राहुल ने दिल्ली चुनाव में समां बांध दिया। कांग्रेस जो दिल्ली में बिल्कुल खतम हो गई थी उसमें वापस जान फूंक दी। अगर इस चुनाव में राहुल इतने तेवर के साथ सामने नहीं आते तो कांग्रेस की स्थिति दिल्ली में भी बिहार-यूपी की तरह हो जाती। मगर सही टाइम पर राहुल ने दिल्ली का फैसला लिया और मोदी की तरह केजरीवाल पर भी उतने ही कड़े प्रहार किए या यह भी कह सकते हैं कि कांग्रेस की दिल्ली में जमीन आम आदमी पार्टी ने छीनी थी इसलिए उस पर ज्यादा फोकस किया। ज्यादा तगड़े वार! शायद सबसे बड़ा हमला वह था जब उन्होंने कहा कि- विपक्षी नेताओं में केजरीवाल सबसे ज्यादा मोदी से डरते हैं। राजनीति में डरना सबसे बड़ी कमी मानी जाती है। है तो फिल्म का डायलाग मगर राजनीति में बिल्कुल सही है कि जो डर गया समझो वह मर गया।
राहुल ने केजरीवाल के राजनीतिक खात्मे की घोषणा कर दी। और यह कांग्रेस के लिए सबसे जरूरी है। राहुल ने बिल्कुल सही कहा कि कांग्रेस और भाजपा में विचारधारा की लड़ाई चल रही थी बीच में केजरीवाल आ गए। खंबे पर चढ़ गए। मगर फिर धड़ाम से गिरे भी।
कांग्रेस के लिए यह बहुत जरूरी है। मोदी से आमने-सामने की लड़ाई कांग्रेस के लिए मुश्किल नहीं मगर बहुत सारे आवरण चढ़ाए केजरीवाल से लड़ना इसके लिए शुरू से अनिश्चितता का मामला रहा। 2013 में उसके समर्थन से ही केजरीवाल पहली बार मुख्यमंत्री बने। और फिर 2015 और 2020 में केजरीवाल ने कांग्रेस को शून्य पर ला दिया। वोट परसेन्टेज 4. 3 पर। केवल 11 साल में यह हाल हो गया।
जबकि यूपी बिहार में कांग्रेस का बुरा हाल हुआ मगर शून्य पर वह कभी नहीं पहुंची। यूपी में पिछले विधानसभा चुनाव 2022 में वह सबसे कम केवल दो सीटों पर रह गई और बिहार में 2010 के विधानसभा चुनाव में वह सबसे कम केवल 4 सीटों पर रह गई थी। तीनों जगह दिल्ली, बिहार, यूपी इस बात में समानता है कि कांग्रेस कहीं भी एक निर्णय नहीं ले सकी। कभी साथ में कभी अकेले चुनाव लड़ती रही। यूपी में 1989 के बाद से वह सत्ता से बाहर है। और बिहार 1990 के बाद से। मतलब करीब 35- 36 साल से। दिल्ली में भी 11 साल हो गए। मगर अब दिल्ली में कांग्रेस जागी है। कितना कर पाएगी यह तो 8 फरवरी को पता चलेगा। लेकिन दिल्ली में वापस खड़ी हो गई यह अभी से दिखने लगा है।
यहीं से कांग्रेस को कोई बड़ा नीतिगत फैसला लेना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर माना जाता है कि कांग्रेस ही भाजपा से लड़ रही है। मगर यथार्थ में होता यह है कि कई बड़े राज्यों में कांग्रेस दूसरे विपक्षी दलों के मुकाबले बहुत कमजोर हो जाती है। यूपी, बिहार, दिल्ली का तो अभी बताया ही मगर जम्मू-कश्मीर, झारखंड, पंजाब, महाराष्ट्र के अलावा दक्षिण और नार्थ ईस्ट के राज्यों में भी यही हालत हो गई है। कांग्रेस तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी बन गई है।
यह तब है जब उसके पास इस समय देश का सबसे निडर, मेहनती और आम जनता से सबसे ज्यादा मिलने जुलने वाला नेता है। सच तो यह है कि कई बार यह कहा जाता है कि देश के लोग राहुल को नहीं पहचान पा रहे। सही बात है। चमक-दमक के इस झालर, पन्नी के दौर में असली मेटल को लोग नहीं पहचान पा रहे। मगर लोगों से शिकायत तो तब बनती है जब खुद उनकी पार्टी उन्हें सही से पहचान लेती!
मुख्य बात तो यही है कि खुद कांग्रेस के नेता राहुल को नहीं पहचान पाए। उनके लिए राहुल भी एक चेहरा तो हैं मगर यह नहीं समझ पाए कि एक ऐसा शख्स उनके पास है जो कभी भी बाजी पलट सकता है। उनको सत्ता में ला सकता है। मुकाबला बहुत मुश्किल है। मोदी ने देश में एक ऐसा माहौल बना दिया है कि जनता पर किसी बात का असर नहीं हो रहा है। अभी कुंभ में भगदड़ में मारे गए लोगों की खबर छुपाई गई। अखिलेश यादव ने लोकसभा में बजट से पहले कुंभ में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देने की मांग करते हुए कहा कि हमें बजट के आंकड़ें नहीं लापता लोगों के आंकड़े चाहिए। कितने लोग मारे गए। कितने घायल हैं और कितनों का पता नहीं है। विपक्षी दलों ने लोकसभा में जोरदार मांग उठाई, वाक आउट तक कर गए मगर सरकार निश्चिंत बनी रही। उसे लगता है विपक्ष आवाज उठाता रहे जनता नहीं सुनेगी। जनता को नफरत के ऐसे नशे में डाल दिया है कि वह कुछ भी नहीं सुनती, सोचती। बस उसे नफरती बातों से ही खुशी मिलती रहती है।
कोई भी बड़ी से बड़ी घटना हो जाए जनता का नशा टूटता नहीं है। नोटबंदी, किसानों का आंदोलन, कोविड में बिना इलाज लोगों का मरना, चिता तक का इंतजाम नहीं, पुलों से लाशों का नीचे फेंकना, लॉकडाउन, लाखों मजदूरों का पैदल जाना, चीन द्वारा घुस कर हमारे आदमियों को मारना, फिर वापस न जाना, प्रधानमंत्री का इस बात को भी नकार देना, कहना न कोई घुसा है न कोई है, मगर किसी बात का असर नहीं होना।
ऐसे में राहुल का बिना हिम्मत हारे लगातार लड़ते रहना ही एक मात्र आशा की किरण रही। यहीं यह सवाल पैदा होता है कि क्या कांग्रेसियों को यह नहीं दिखता? या वह अपनी आदत से मजबूर हैं कि राहुल को जो करना है करें मगर हम तो उसी तरह गुटबाजी, काम न करना, अपने स्वार्थों में लिप्त रहना में लगे रहेंगे।
जी-23 सिर्फ और सिर्फ राहुल के खिलाफ ही बनाया गया था। 2019 में उन्हीं से अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिलवाया गया था। राजस्थान चुनाव पूरी तरह गुटबाजी की वजह से हारा था। और फिर हरियाणा भी ऐसे ही हाथ में आया हुआ गंवाया गया था। लोग बाकी राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्रकी हार को भी इसी क्रम में खड़ा करने लगते हैं। मगर इन राज्यों में कारण अलग थे। राजस्थान और हरियाणा शुद्ध रूप से सिर्फ गंदी गुटबाजी की वजह हारे गए थे।
अगर कांग्रेस हरियाणा जो कि वह जीत रही थी जीत जाती तो क्या महाराष्ट्र के यह नतीजे आते? कांग्रेस हरियाणा जीत जाती तो देश का माहौल ही कुछ और होता। 8 महीने पहले 240 पर रोक कर जो मोदी को झटका दिया था उसका असर जारी रहता। प्रधानमंत्री मोदी ने जो फिर से आत्मविश्वास पा लिया है वह नहीं होता।
पता नहीं कांग्रेस समझेगी या नहीं! अभी तक के कांग्रेसियों का इतिहास तो यह बताता है कि कांग्रेसी नेता खुद से कभी नहीं समझते। उन्हें तो डंडे के बल पर समझाना पड़ता है। राहुल ने अभी वंचित समाज के दिल्ली सम्मेलन में यह माना कि कि कांग्रेस वह नहीं रह गई जो इन्दिरा गांधी के समय थी। सही बात है। राहुल को यहीं से आगे लाइन लेना चाहिए कि इन्दिरा गांधी कैसी सख्ती से पार्टी को डील करती थीं। जो वे कह रहे थे कि पिछले कुछ सालों में पार्टी कमजोर हो गई तो उसका कारण ही यही है कि नेतृत्व ने सख्त निर्णय लेना छोड़ दिए।
दिल्ली चुनाव के बाद राहुल को पूरा समय पार्टी संगठन के पुनर्निर्माण में लगाना चाहिए। जाने कितने साल हो गए कुछ लोग पदों पर बैठे हुए हैं। उनका कमरा बदल दिया जाता है। जिम्मेदारी बदल दी जाती है। मगर पद बरकरार रहता है। कुर्सियों से चिपके हैं। इनकी क्या उपयोगिता है? इनके बदले और लोगों को मौका देना चाहिए। साल 2025 कांग्रेस ने संगठन का साल घोषित किया है। अगर सही मायनों में हो गया तो पार्टी की तकदीर बदल सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


