संविधान पर बहस : मोदीशाही की गोयबल्सीय रणनीति
आरक्षण का मुद्दा एक और ऐसा मुुद्दा है, जिस पर मोदीशाही ने एक्यूजेशन इन मिरर रणनीति का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है

- राजेन्द्र शर्मा
आरक्षण का मुद्दा एक और ऐसा मुुद्दा है, जिस पर मोदीशाही ने एक्यूजेशन इन मिरर रणनीति का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है। और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के बाद इसी मामले में उसकी नीयत सबसे ज्यादा संदेह के घेरे में है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि संघ-भाजपा का मनुवादी विचारधारात्मक आधार इतना हाल-हाल तक लिखत-पढ़त में बना रहा है कि, न उसे छुपाना संभव है और न उनके लिए उसके खिलाफ जाना संभव है।
एक्यूजेशन इन मिरर उस झूठे दावे का नाम है, जिसमें शिकार होने वाले पर शिकारी द्वारा वह सब करने का आरोप लगाया जाता है, जो वह खुद कर रहा होता है या करने का इरादा रखता है।
संविधान के 75वें वर्ष के संदर्भ में संसद के दोनों सदनों में हुई बहस में सत्तापक्ष की ओर से सबसे बढ़कर 'एक्यूजेशन इन मिरर' की प्रचार रणनीति का ही सहारा लिया जा रहा था। वैसे संघ परिवार के इस रणनीति का सहारा लेने में शायद ही किसी को हैरानी होनी चाहिए, क्योंकि यह रणनीति गोयबल्स की शिक्षाओं तथा उसके अमल पर ही आधारित मानी जाती है। फिर भी यह बात अतिरिक्त रूप से चिंतित करने वाली जरूर है कि आधुनिक नरसंहारों के विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, यह रणनीति नरसंहारकर्ताओं की आम रणनीति रहती आयी है; ऐसी रणनीति का संविधान की महत्ता पर चर्चा के संदर्भ में इस तरह का खुलेआम सहारा लिया जाना, नरसंहार की निकटता के एहसास से बदन में एक सिहरन तो पैदा करता ही है।
प्रधानत: इस गोयबल्सीय रणनीति का सहारा लेकर ही मोदी की भाजपा और उसके सहयोगी भी, अपने साढ़े दस साल के राज में संविधान के एक प्रकार से ध्वस्त ही कर दिए जाने और उससे भी बढ़कर अब भी लगतार ध्वस्त किए जाने की कड़वी सच्चाइयों को, अपने विरोधियों पर ही संविधान को ध्वस्त करने के आरोप लगाने के जरिए छुपाने की कोशिश कर रहे थे। याद रहे कि एक धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक संविधान को ध्वस्त कर के, उसकी जगह पर एक हिंदू राज के नाम पर सांप्रदायिक तानाशाही को बैठाने की इस परियोजना में, अब भी कोई पक्की रुकावट नहीं आयी है। यह तब है जबकि इसी वर्ष हुए आम चुनाव में, संविधान को बदलने के उसके इरादों पर विपक्ष के सुगठित प्रहार ने, न सिर्फ इन्हें चुनाव में बचाव पर पड़ने के लिए मजबूर कर दिया था, बल्कि मोदी की भाजपा और उसके नेतृत्ववाले गठजोड़ को, चार सौ पार के उसके मंसूबों और उसके आधार पर संविधान बदलने के इरादों से काफी सुरक्षित दूरी पर ही, रोक दिया था।
हैरानी की बात नहीं है कि आम चुनाव के समय से ही और खासतौर पर चुनाव नतीजे आने के बाद से, पूरी संघी बिरादरी इसका रक्षात्मक प्रचार करने में लगी रही थी कि उसके संविधान को बदलने के इरादों के, अपने 'झूठे नैरेटिव' के जरिए ही उसके विरोधी आम चुनाव में अपनी ताकत काफी बढ़ाने में कामयाब रहे थे। पहले हरियाणा और फिर महाराष्ट्र में विधानसभाई चुनाव में अपनी संदिग्ध किंतु स्पष्टï जीत के बाद से तो उनके इस प्रचार में एक नयी और बढ़ती हुई आक्रामकता भी दिखाई देने लगी है। एक प्रकार से बड़े झीने से पर्दे के पीछे से उन्होंने इसका दावा ही शुरू कर दिया है कि आम चुनाव में जनता बहक गयी थी और अब उसने तेजी से अपनी गलती सुधारनी शुरू कर दी है!
बहरहाल, 'एक्यूजेशन इन मिरर' की ही रणनीति का सहारा लेकर, इस मिथ्या प्रचार को एक नयी ऊंचाई पर ले जाने की कोशिश की जा रही है, जहां वे संविधान को घाव भी देते रहेंगे और उसी समय इसका शोर भी मचा रहे होंगे कि विपक्ष ही संविधान को घायल कर रहा है। इस मुहिम के लगातार जारी होने का सबूत तब मिल गया, जब राज्यसभा में जिस समय संविधान के 75 वर्ष पर बहस का, मोदी राज में अपनी नंबर दो की हैसियत का और खुला ऐलान करते हुए, गृहमंत्री अमित शाह जवाब दे रहे थे, ठीक उसी समय लोकसभा में मोदीशाही द्वारा तथाकथित 'एक देश, एक चुनाव' के अपने नारे को लागू करने के लिए, दो-दो विधेयक पेश किए जा रहे थे।
यह पूरा प्रोजेक्ट किस तरह भारत के पूरे संघीय ढांचे को ही उलट-पुलट कर देने वाला है और इसके साथ ही साथ हमारी संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था को गंभीरता से भीतर से खोखला कर देने वाला है, इसके विस्तार में हम यहां नहीं जाएंगे। इसी प्रकार, हम यहां इसके विस्तार में भी नहीं जाएंगे कि किस तरह इस नारे को एक अलोकतांत्रिक हठ के साथ, देश पर इसके बावजूद थोपने की कोशिश की जा रही है कि देश, इस सवाल पर साफ तौर पर और दो लगभग बराबर के हिस्सों में बंटा हुआ है। इस विभाजन का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि लोकसभा में इन विधेयकों को पेश किए जाने के प्रस्ताव पर हुए मत विभाजन में बेशक , 263 वोट के साथ उक्त प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया, लेकिन इस प्रस्ताव के खिलाफ भी पूरे 198 वोट पड़े थे।
यह भी याद रहे कि उक्त विधेयकों में संविधान संशोधन के प्रस्ताव भी शामिल हैं, जिनके लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की न्यूनतम शर्तंर् है। लेकिन, लोकसभा में जिन कुल 461 सदस्यों ने वोट किया, उनका दो-तिहाई आंकड़ा 307 होता है। जाहिर है कि इन संशोधनों के पक्ष में दो-तिहाई बहुमत दूर-दूर तक नहीं है। वैसे बड़े विडंबनापूर्ण तरीके से यह प्रकरण एक बार फिर चार सौ पार के नारे की याद दिला देता है। चार सौ पार का आंकड़ा इसी तरह मनमर्जी से संविधान संशोधन थोपने के लिए ही तो चाहिए था, जिस सच्चाई को उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान तथा कर्नाटक, देश के अलग-अलग कोनों से भाजपा नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान, नासमझी से उजागर कर दिया था।
इसे एक्यूजेशन इन मिरर का उदाहरण नहीं तो और क्या कहेेंगे कि जिस मोदीशाही ने दोनों सदनों में संविधान पर बहस में, अब तक हुए संविधान संशोधनों की कथित रूप से बड़ी संख्या को इसका सबूत बनाकर पेश करने की कोशिश की थी कि कैसे उसके राज से पहले सत्ता में रहे लोग संविधान से खिलवाड़ ही करते रहे थे, वही लोकसभा में बहस के एक दिन बाद ही, संविधान में संशोधन के प्रस्ताव ले आयी। याद रहे कि इस सिलसिले में मोदीशाही ने अर्द्घ-सत्य का सहारा लेते हुए, संविधान के पहले संशोधन के बहाने से, यह कहकर कि यह संशोधन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हरण करने के लिए लाया गया था, जवाहरलाल नेहरू को ही संविधान के साथ खिलवाड़ की जड़ बताने की कोशिश की थी। और नेहरू के मुख्यमंत्रियों के लिए पत्र में यह लिखने को भारी अपराध बनाने की कोशिश की थी कि, 'अगर संविधान आड़े आता है तो उसमें भी बदलाव किए जा सकते हैं'। लेकिन, खुद अमित शाह के आंकड़े के अनुसार, भाजपा के 16 साल के राज में कुल 22 संविधान संशोधन किए गए हैं, जबकि कांग्रेस के 55 साल के राज में 77 संशोधन किए गए थे। दोनों का सालाना औसत तो लगभग बराबर ही बैठता है। और दिलचस्प है कि मोदी के लोकसभा के भाषण से भिन्न, राज्यसभा में अमित शाह संविधान में संशोधन की व्यवस्था बचाव ही करते नजर आए।
बेशक, मोदीशाही इस खोखली दलील से खुद अनेक संविधान संशोधन लाने को सही ठहराने की कोशिश कर रही है कि उसी के संशोधन, संविधान की भावना के अनुरूप थे! लेकिन, वास्तव में उनके संविधान संशोधन, हमारे संविधान की भावना के उलट और सिर्फ संघ के एजेंडे तथा उसके हिंदू राष्टï्र के प्रोजेक्ट के अनुरूप रहे हैं, यह सीएए कानून और जम्मू-कश्मीर से संबंधित धारा-370 के कुटिल चालबाजी से खात्मे जैसे उनके विभाजनकारी संशोधनों से साफ हो जाता है। इसी सिलसिले की कड़ी के तौर पर अब 'एक देश, एक चुनाव' से संबंधित संशोधन लाए जा रहे हैं और अमित शाह की घोषणा के अनुसार, निकट भविष्य में ही 'समान नागरिक संहिता' संबंधी संशोधन लाए जाने वाले हैं। वास्तव में समान नागरिक संहिता के मामले में तो उनके इरादे और भी कुटिल लगते हैं। शाह की घोषणा के अनुसार, मोदीशाही इस मामले में राज्यों से ही, और जाहिर है कि भाजपा-शासित राज्यों से ही, तथाकथित समान नागरिक संहिता कानून बनवाने का रास्ता अपनाने जा रही है।
आरक्षण का मुद्दा एक और ऐसा मुुद्दा है, जिस पर मोदीशाही ने एक्यूजेशन इन मिरर रणनीति का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है। और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के बाद इसी मामले में उसकी नीयत सबसे ज्यादा संदेह के घेरे में है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि संघ-भाजपा का मनुवादी विचारधारात्मक आधार इतना हाल-हाल तक लिखत-पढ़त में बना रहा है कि, न उसे छुपाना संभव है और न उनके लिए उसके खिलाफ जाना संभव है। यह कोई संयोग ही नहीं है कि आरक्षण के मामले में मोदीशाही ने जो इकलौती उल्लेखनीय पहल की है, सवर्णों के लिए 10 फीसद आरक्षण की पहल है, जो न सिर्फ आरक्षण के विचार के ही सिर के बल खड़ा कर दिए जाने को दिखाती है बल्कि सत्ताधारियों की विचारधारा पर ब्राह्मïणवादी प्रभाव को भी दिखाती है।
जहां तक पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का प्रश्न है, खुद प्रधानमंत्री समेत संघ-भाजपा के अटपटे झूठे दावों के बावजूद, विश्वनाथ प्रसाद सिंह की सरकार द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किए जाने के बाद, उसके खिलाफ अगड़ी जातियों की उग्र लामबंदी में भाजपा समेत संघ परिवार की अग्रणी भूमिका का इतिहास इतना हाल का और ताजा है कि उसे फिर से याद दिलाने की शायद ही जरूरत होगी। और जाति जनगणना का मोदीशाही का विरोध तो और भी हाल का है। यह भी दिलचस्प है कि अमित शाह ने आरक्षण की 50 फीसद की सीमा को इस बहस में भी यह कहकर उचित ठहराने की कोशिश की है कि इस सीमा को हटाने की मांग अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के लिए हो रही है; संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता है।
विडंबना यह है कि आर्थिक रूप से वंचितों के आरक्षण को सिर्फ हिंदू सवर्णों तक सीमित करने के जरिए, इस दावे से ठीक उल्टा अमल किया जा रहा है यानी न सिर्फ हिंदू धर्म बल्कि सवर्ण जातियों तक सीमित आरक्षण चलाया जा रहा है। लेकिन, यही तो एक्यूजेशन इन मिरर का कमाल है, दूसरों पर आरोप लगा रहे हैं क्योंकि उन्हें खुद वही करना है।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


