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संसद में खतरनाक खेल की शुरुआत

देश में सांप्रदायिक धु्रवीकरण के खेल को भाजपा अब एक खतरनाक स्तर पर ले आई है। इसे रोकना या इसका हल निकालना आसान नहीं है

संसद में खतरनाक खेल की शुरुआत
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देश में सांप्रदायिक धु्रवीकरण के खेल को भाजपा अब एक खतरनाक स्तर पर ले आई है। इसे रोकना या इसका हल निकालना आसान नहीं है, क्योंकि अब धु्रवीकरण हिंदू या मुसलमान बोलकर नहीं हो रहा है, राष्ट्रवाद के नाम पर हो रहा है। इस खेल में इतिहास को बदला जा रहा है, तथ्यों पर झूठ चढ़ाया जा रहा है। खास बात यह है कि यह सब संस्थागत तरीके से हो रहा है। सोमवार को संसद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वंदे मातरम् के 150 साल पूरे होने पर चर्चा करना इसी का प्रमाण है।

इस बार का शीतकालीन सत्र बेहद छोटा है, जिसमें कामकाज के कुछ घंटे पहले ही हंगामे में निकल चुके हैं। बचे वक्त का अच्छा इस्तेमाल देश के सामने आई बड़ी विपदाओं पर चर्चा कर उनका हल निकालने या विकास के लिए जरूरी मुद्दों पर विमर्श करने में लगाया जा सकता था। एसआईआर के कारण बीएलओज़ की मौत, इंडिगो संकट के कारण लाखों यात्रियों पर आई मुसीबत, दिल्ली में आतंकी हमला, प्रदूषण, रुपए की गिरती कीमत, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के पेंच, महंगाई, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, किसान-मजदूर हित, युवाओं में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति ऐसे ढेरों मुद्दे हैं जिन पर संसद का कीमती वक्त लगना चाहिए था।

लेकिन सोमवार से लेकर मंगलवार तक लोकसभा और फिर राज्यसभा में वंदेमातरम् पर चर्चा तय की गई। देश में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि डेढ़ सौ साल पहले लिखे गीत को लेकर अकारण बहसबाजी की जाए। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी यह दुस्साहस कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें हर हाल में देश को उन ताकतों से मुक्त करना है, जिनके कारण संविधान बना हुआ है। यह संविधान ही है जो देश में तानाशाही कायम नहीं होने देता। लोगों को हिम्मत देता है कि अगर उन्हें सरकार का कोई फैसला पसंद न आए या अपने हित खतरे में पड़ते दिखें तो उसके खिलाफ आवाज़ उठाएं। इसी संविधान की दी हुई ताकत से किसानों ने एक साल लंबा आंदोलन चलाया, जिसके बाद नरेन्द्र मोदी को कृषि कानून वापस लेने पड़े। अभी संचार साथी ऐप प्रीइंस्टाल करने का फैसला हटाना पड़ा। वक्फ संशोधन अधिनियम को संसदीय समिति के पास भेजना पड़ा। ऐसे कई उदाहरण है, जिनमें बहुमत के बावजूद मोदी सरकार को अपने फैसले से पीछे हटना पड़ा। यही बात शायद सरकार को खटक रही है, क्योंकि इस बार तो संसद में विपक्ष पहले से अधिक ताकतवर है। ऊपर से बिहार चुनाव हारने के बावजूद राहुल गांधी वोट चोरी का मुद्दा छोड़ नहीं रहे हैं। इसलिए अब नरेन्द्र मोदी ने वंदे मातरम् का विवाद खड़ा कर कांग्रेस को निशाने पर लेने की एक और कोशिश की है।

संसद में श्री मोदी के भाषण से यह समझ आ गया कि चर्चा शब्द का मुखौटा लगाकर भाजपा देश को नुकसान पहुंचाने वाली ताकतों को बढ़ावा दे रही है, ठीक ऐसा ही काम भाजपा के पुरखों यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा ने किया था। आजादी की लड़ाई के लंबे कालखंड में संघ का योगदान रत्ती भर भी देखने नहीं मिलता है। बल्कि इस बात के सबूत हैं कि वी डी सावरकर ने सजा से बचने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी और उनकी सेवा करने का वचन दिया। भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त भी संघ के लोग अंग्रेजों के लिए मुखबिरी कर रहे थे और जनता को अंग्रेजी फौज में भर्ती होने के लिए उकसा रहे थे। लेकिन आज उसी संघ से निकले नरेन्द्र मोदी कांग्रेस पर देश विभाजन का आरोप लगा रहे हैं। श्री मोदी ने कहा कि तुष्टीकरण की राजनीति के दबाव में कांग्रेस वंदे मातरम् के बंटवारे के लिए झुकी। इसलिए कांग्रेस को एक दिन भारत के बंटवारे के लिए भी झुकना पड़ा था। प्रधानमंत्री ने कहा कि मोहम्मद अली जिन्ना ने लखनऊ से 15 अक्टूबर 1936 को वंदे मातरम् के खिलाफ नारा बुलंद किया था। इसको लेकर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को अपना सिंहासन डोलता दिखा था। इसके बाद उन्होंने कहा कि 'जब वंदे मातरम् के 100 साल हुए थे, तब देश आपातकाल की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। भारत के संविधान का गला घोंट दिया गया था। लगभग एक घंटे के भाषण में प्रधानमंत्री ने 13 बार कांग्रेस और 7 बार नेहरू का नाम लिया।

श्री मोदी ने पं.नेहरू को मुस्लिम लीग के आगे झुकता बता दिया, लेकिन यह नहीं बताया कि 1937 में ब्रिटिश इंडिया में कुल 11 राज्य थे, तब चुनाव हुए तो कांग्रेस ने 7 राज्यों में सरकार बनाई। मुस्लिम लीग ने एक राज्य भी नहीं जीता था। लेकिन तब भी और फिर 1941-42 में भी सावरकर की हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ तीन राज्यों में गठबंधन सरकार बनाई। जब देश आजाद हुआ तो 15 अगस्त 1947, आधी रात को संविधान सभा में श्रीमती सुचेता कृपलानी ने वंदे मातरम् का गायन किया। फिर 24 जनवरी, 1950 को इसे राष्ट्रीय गीत घोषित किया। तब कांग्रेस की ही सरकार थी और नेहरू ही प्रधानमंत्री थे।

कांग्रेस के अधिवेशन में तो आज भी वंदे मातरम् गाया जाता है। लेकिन संघ में तिरंगे और वंदेमातरम् दोनों से परहेज किया गया। अगर मोदीजी को इतिहास सुधारना ही था, तो उसकी शुरुआत अपने मातृसंगठन से करनी चाहिए था। बहरहाल, उनका मकसद वंदेमातरम् के बहाने बंगाल चुनाव साधना है, यह सबको समझ आ रहा है। बंगाल चुनाव में बार-बार की कोशिशों के बावजूद भाजपा को पहले सफलता नहीं मिली, तो अब हिंदू-मुस्लिम पर उतर आई है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम पर मुसलमानों को शक के दायरे में लाना, हुमायूं कबीर का बाबरी मस्जिद बनवाने का ऐलान और अब वंदे मातरम, सब के तार बंगाल चुनाव से जुड़ते हैं। पिछले चुनावों को याद करिए। पहले श्री मोदी ने सुभाषचंद्र बोस को भुनाने की कोशिश की, उसमें सफलता नहीं मिली, उसके अगले चुनाव में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की तरह नरेन्द्र मोदी ने दाढ़ी बढ़ा ली थी, लेकिन रवीन्द्रनाथ ठाकुर की पहचान दाढ़ी से नहीं उनकी सोच और लेखनी से थी। खैर श्री मोदी फिर नाकाम रहे तो अब बंकिमचंद्र और उनकी अमर रचना वंदे मातरम् पर दांव लगाया है।

यह एक खतरनाक खेल की शुरुआत है, जिसमें आगे और गहरे जख्म देश को मिलेंगे। इसलिए कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष को अब सावधानी से इसका मुकाबला करना होगा। क्योंकि सवाल आजादी और संविधान को बचाए रखना है।


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