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भारतीय अर्थव्यवस्था पर मंडराता संकट- बढ़ता कर्ज, सरकारी संरक्षणवाद और पूंजीवादी मिलीभगत

भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय गहरे संकट में है। सरकार के नीति-निर्माण में असंतुलन, कर्ज का बढ़ता बोझ और सरकारी संरक्षित पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज़्म) के कारण प्रतिस्पर्धा और आत्मनिर्भरता दोनों प्रभावित हो रहे हैं

भारतीय अर्थव्यवस्था पर मंडराता संकट- बढ़ता कर्ज, सरकारी संरक्षणवाद और पूंजीवादी मिलीभगत
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- सचिन श्रीवास्तव

सरकार एक ओर निजीकरण और विनिवेश के नाम पर सार्वजनिक संपत्तियों को बेचना चाहती है, जबकि दूसरी ओर कृषि जैसे बुनियादी क्षेत्रों को बड़े औद्योगिक घरानों के हवाले करने की कोशिश कर रही है। यह नीतियां न केवल आम जनता के लिए आर्थिक असुरक्षा पैदा कर रही हैं, बल्कि देश की प्रतिस्पर्धी क्षमता को भी कमजोर कर रही हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय गहरे संकट में है। सरकार के नीति-निर्माण में असंतुलन, कर्ज का बढ़ता बोझ और सरकारी संरक्षित पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज़्म) के कारण प्रतिस्पर्धा और आत्मनिर्भरता दोनों प्रभावित हो रहे हैं। 80 प्रतिशत से अधिक जीडीपी के बराबर कर्ज और नीति निर्माण में बड़े कॉरपोरेट समूहों की बढ़ती पकड़ ने देश की आर्थिक संप्रभुता को खतरे में डाल दिया है।

सरकार एक ओर निजीकरण और विनिवेश के नाम पर सार्वजनिक संपत्तियों को बेचना चाहती है, जबकि दूसरी ओर कृषि जैसे बुनियादी क्षेत्रों को बड़े औद्योगिक घरानों के हवाले करने की कोशिश कर रही है। यह नीतियां न केवल आम जनता के लिए आर्थिक असुरक्षा पैदा कर रही हैं, बल्कि देश की प्रतिस्पर्धी क्षमता को भी कमजोर कर रही हैं।

स्टेटिस्ता के अनुसार, भारत का राष्ट्रीय कर्ज 2020 में 88.43प्रतिशत जीडीपी तक पहुंच गया था, जो अब भी 80प्रतिशत से अधिक बना हुआ है। सरकार लगातार यह दावा कर रही है कि अर्थव्यवस्था सुधार की ओर बढ़ रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकारी नीतियां कुछ विशेष औद्योगिक समूहों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाई जा रही हैं, न कि आम जनता या लघु-मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के हित में।

सरकारी बैंक और कंपनियां घाटे में बताकर बेची जा रही हैं, लेकिन उन्हें खरीदने वाले उद्योगपतियों को सस्ते ऋ ण और टैक्स में छूट दी जा रही है। रेलवे, तेल कंपनियां, टेलीकॉम और एयरपोर्ट जैसे बुनियादी ढांचे को कुछ खास समूहों के हाथों बेचा जा रहा है, जिससे बाजार में प्रतिस्पर्धा खत्म हो रही है। छोटे व्यापारियों और किसानों को बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया, जबकि बड़े उद्योगपतियों को अरबों की टैक्स रियायतें दी जा रही हैं।

सरकार बार-बार कहती है कि सार्वजनिक उपक्रम घाटे में हैं, लेकिन क्या सच में ऐसा है? भारत पेट्रोलियम, जीवन बीमा निगम, रेलवे, इस्पात प्राधिकरण और अन्य कंपनियों को या तो बेचा जा रहा है या उनके संसाधन निजी हाथों में दिये जा रहे हैं। सरकारी संपत्तियों की बिक्री से जो पैसा आ रहा है, वह मौजूदा कर्ज चुकाने में नहीं, बल्कि नए कॉर्पोरेट टैक्स छूट और सरकारी खर्च बढ़ाने में इस्तेमाल हो रहा है। बाज़ार में प्रतिस्पर्धा खत्म हो रही है, क्योंकि सरकारी संरक्षण प्राप्त निजी कंपनियां मनमाने दाम वसूल रही हैं। सवाल वही है कि यह निजीकरण की नीति है या बस बड़े कॉरपोरेट समूहों को फायदा पहुंचाने का तरीका?

तीन कृषि कानूनों को जबरदस्ती लागू करने की कोशिश सरकार की नवउदारवादी सोच और पूंजीपतियों की लॉबी का स्पष्ट प्रमाण थी। ये कानून किसान आंदोलन के दबाव में वापस लिए गए, लेकिन सरकार अब भी कृषि सेक्टर में बड़े उद्योगपतियों को प्रवेश दिलाने की कोशिश कर रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी नहीं दी जा रही, ताकि किसान मजबूरी में निजी कंपनियों को अपनी उपज बेचें। कृषि को ठेकेदारी खेती के हवाले करने की योजनाएं अब भी जारी हैं, जिससे छोटे किसान बिचौलियों और बड़ी कंपनियों पर निर्भर हो जाएंगे। सरकार ने स्नष्टढ्ढ का बजट लगातार घटाया है, जिससे सरकारी खरीद कमज़ोर हुई और किसान खुले बाजार में जाने को मजबूर हुए।

खाद्य सुरक्षा पर खतरा: अगर कृषि उत्पादन पूरी तरह बाजार के हाथ में आ गया, तो खाद्य पदार्थों की कीमतें निजी कंपनियां तय करेंगी, जिससे गरीबों के लिए अनाज महंगा हो जाएगा।

छोटे किसानों की बर्बादी: भारत में 86प्रतिशत से अधिक किसान लघु या सीमांत श्रेणी के हैं। बड़े कॉरपोरेट के साथ प्रतिस्पर्धा में वे टिक नहीं पाएंगे।
भूमि अधिग्रहण और विस्थापन: कॉरपोरेट खेती के बढ़ने से गांवों में जमीनें उद्योगपतियों के हाथों में जाएंगी, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था खत्म हो जाएगी।
अगर सरकार सच में किसानों का भला चाहती है, तो उसे-
रूस्क्क की कानूनी गारंटी देनी होगी। स्नष्टढ्ढ को मजबूत करना होगा, ताकि सरकारी खरीद में कोई गिरावट न हो।
कृषि आधारित छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना होगा, जिससे किसान आत्मनिर्भर बनें।

सच्चे प्रतिस्पर्धी बाजार का अर्थ है कि कोई भी नया व्यवसायी बिना किसी भेदभाव के बाजार में प्रवेश कर सके और उपभोक्ताओं को अधिक विकल्प मिले। लेकिन भारत में सरकार खुद ही कुछ चुनिंदा उद्योगपतियों को बाज़ार पर कब्जा करने में मदद कर रही है। टेलीकॉम सेक्टर में सिर्फ दो-तीन कंपनियां ही बची हैं, क्योंकि अन्य कंपनियों को प्रतिस्पर्धा से बाहर कर दिया गया। एयरपोर्ट, हाईवे, रेलवे, बिजली उत्पादन और शिपिंग जैसे क्षेत्रों में एकाधिकार बनाने की कोशिश की जा रही है। बैंकों से कर्ज माफ़ी और टैक्स छूट केवल कुछ बड़े व्यापारिक समूहों को दी जाती है, जबकि छोटे व्यापारियों को लोन भी नहीं मिलता।
इसका खतरा क्या है?

महंगाई बढ़ेगी, क्योंकि कम प्रतिस्पर्धा के कारण कंपनियां मनमाने दाम वसूलेंगी।
नये कारोबार शुरू करना मुश्किल होगा, क्योंकि नये व्यवसायियों को बड़े कॉरपोरेट के साथ मुकाबला करना असंभव होगा।
रोज़गार कम होंगे, क्योंकि बड़े औद्योगिक समूह मशीनों और स्वचालन (ऑटोमेशन) पर निर्भर रहेंगे, जिससे नौकरियां घटेंगी।
सरकार अगर सच में मुक्त बाज़ार और प्रतिस्पर्धा चाहती है, तो उसे छोटे और मध्यम व्यापारियों को भी समान अवसर देने होंगे। एकाधिकारवाद को खत्म करने के लिए नियम और कानून सख्त करने होंगे। सरकारी बैंकों को सिर्फ बड़े उद्योगपतियों के लिए इस्तेमाल करने की नीति बंद करनी होगी।

भारत की अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है, लेकिन इस संकट का कारण कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि सरकारी नीतियां और कॉरपोरेट संरक्षणवाद है। सरकार जिन सुधारों की बात कर रही है, वे वास्तव में सिर्फ कुछ गिने-चुने उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाये गये हैं।

निजीकरण का विरोध किया जाना चाहिए, क्योंकि यह सार्वजनिक संसाधनों की लूट है। कृषि क्षेत्र में बड़े कॉरपोरेट्स की घुसपैठ को रोका जाना चाहिए, ताकि किसान बिचौलियों का शिकार न बनें। निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के लिए बड़े उद्योगपतियों को मिलने वाली सरकारी रियायतों को खत्म किया जाना चाहिये।

आज सवाल यह नहीं है कि भारत आर्थिक संकट से बाहर कैसे निकलेगा, बल्कि सवाल यह है कि क्या सरकार सच में आम जनता की भलाई चाहती है, या सिर्फ अपने प्रिय उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाना चाहती है?


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