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हरियाणा चुनाव के बाद कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक

हरियाणा चुनाव में कांग्रेस को मिली अप्रत्याशित हार के कई तरह से विश्लेषण किए जा रहे हैं

हरियाणा चुनाव के बाद कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक
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हरियाणा चुनाव में कांग्रेस को मिली अप्रत्याशित हार के कई तरह से विश्लेषण किए जा रहे हैं। कांग्रेस की आंतरिक गुटबाजी, आलाकमान के निर्देशों की परवाह न करके क्षत्रपों का मनमाना रवैया, भाजपा की रणनीति को समझने में चूक, दलित और जाट वोट बैंक का साथ न मिलना और इन सबके साथ एक अहम कारण इंडिया गठबंधन के दलों को साथ न लेकर चलने को भी कांग्रेस की हार का कारण बताया जा रहा है। कांग्रेस पर अहंकारी होने के आरोप कई विश्लेषक लगा रहे हैं। वैसे अगर परिणाम एक्जिट पोल के मुताबिक ही आते तो शायद इस तरह विश्लेषण में पलटी मारने की कला नहीं देखी जाती। क्योंकि स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले यू ट्यूब चैनलों के पत्रकार ही नहीं, सरकार समर्थक माने जाने वाले न्यूज चैनलों के एक्जिट पोल में भी कांग्रेस की जीत के अनुमान लग रहे थे। कांग्रेस तो अब भी यही मानती है कि ईवीएम में कोई गड़बड़ी की गई है, इसलिए उसे कई सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। इस बात की शिकायत निर्वाचन आयोग से भी कांग्रेस ने की है, और नतीजों को अस्वीकार्य करार दिया है। निर्वाचन आयोग ने कांग्रेस के आरोपों को खारिज कर दिया है और गड़बड़ी की बात नहीं मानी है, लेकिन फिर भी शिकायत दर्ज हुई है, तो उस पर क्या कार्रवाई आयोग करता है, यह देखना होगा।

हालांकि कांग्रेस के प्रदर्शन का विश्लेषण किया जाए तो आंकड़े दर्शाते हैं कि पार्टी की स्थिति में उत्तरोत्तर सुधार ही हुआ है। 2014 में कांग्रेस को केवल 15 सीटें मिली थीं और वोट शेयर 20.58 प्रतिशत था, वहीं 2019 में 16 सीटें बढ़ीं और कांग्रेस 31 के आंकड़े पर पहुंची, तब वोट शेयर 28.08 प्रतिशत रहा और इस बार के चुनाव में कांग्रेस की छह सीटें बढ़ीं तो उसे 37 सीटों पर जीत मिली और इस बार वोट शेयर 39.09 रहा। अर्थात कांग्रेस के वोट शेयर में 11.01 प्रतिशत का उछाल आया। इन आंकड़ों को देखकर कहा जा सकता है कि कांग्रेस की रणनीति तो शायद सही रही लेकिन उसे जमीन पर उतारने का जो काम स्थानीय कांग्रेस नेताओं को करना चाहिए था, उसमें वो नाकाम रहे। बहरहाल, नाकामी मिली है तो ठीकरा किसी न किसी के सिर फूटना है। ऐसे में कांग्रेस विरोधी लोगों को फिर राहुल गांधी ही नजर आ रहे हैं कि उनकी नेतृत्व क्षमता पर संदेह खड़ा करने का माहौल बनाया जाए। इसमें खुद प्रधानमंत्री मोदी भी पीछे नहीं हैं। हरियाणा की जीत को उन्होंने सीधे भारत के खिलाफ किसी संभावित अंतरराष्ट्रीय साजिश के विफल होने से जोड़ दिया। उन्होंने पूरी जिम्मेदारी लेते हुए कहा कि कांग्रेस ऐसी साजिशों के साथ है, लेकिन हरियाणा की जनता ने उसे जवाब दे दिया है। हालांकि ऐसा कहते हुए श्री मोदी यह भूल गए कि जम्मू-कश्मीर की जनता ने कांग्रेस और नेकां गठबंधन पर मुहर लगाई है।

नरेन्द्र मोदी ने तो कांग्रेस पर विभाजनकारी खेल करने का आरोप भी लगाया, साथ ही उसे परजीवी बताते हुए उसके सहयोगियों को आगाह किया कि कांग्रेस उनका लाभ ले लेगी और उन्हें खत्म कर देगी। इन बयानों को सुनकर यह समझ आता है कि राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा के वक्त जिस तरह उन्हें घेरने की कोशिश भाजपा ने की, हरियाणा के नतीजों के बाद वो कोशिशें थोड़ा और जोर पकड़ रही हैं, दूसरी बात यह कि हरियाणा के बहाने भाजपा इंडिया गठबंधन को कमजोर करने में फिर से जुट गई है। कांग्रेस और सहयोगी दलों के बीच फूट डालने का जो काम लोकसभा में नहीं हो पाया, उसे अब पूरा करने की कोशिश में भाजपा है। ऐसे में आम आदमी पार्टी, सपा, शिवसेना उद्धव गुट, एनसीपी शरद पवार गुट, झामुमो, राजद इन तमाम दलों को अब शायद और सावधान होना होगा।

आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच हरियाणा में तो गठबंधन नहीं बना था और अब शायद दिल्ली में भी न बने, लेकिन दोनों दलों के नेता एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते हुए केवल अपनी बयानबाजियों को रोक दें, तो शायद भाजपा के मंसूब कामयाब न हों। उधर उद्धव गुट ने भी सामना के संपादकीय में कांग्रेस की हार का विश्लेषण तो किया, और उसकी गुटबाजी पर सवाल उठाए, लेकिन राहुल गांधी की आलोचना नहीं की, यह गौर करने वाली बात है। वहीं अखिलेश यादव ने उप्र के उपचुनाव के लिए अपनी तरफ से छह उम्मीदवारों का ऐलान तो किया था, लेकिन यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सपा कांग्रेस के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ेगी। झारखंड में भी इंडिया गठबंधन पहले की तरह बना हुआ है, बुधवार को ही हेमंत सोरेन और कल्पना सोरेन ने दिल्ली आकर श्री खड़गे और श्री गांधी से मुलाकात की है। तेजस्वी यादव भी हरियाणा में कांग्रेस की हार पर आश्चर्य जता रहे हैं। इससे समझ आता है कि इंडिया गठबंधन में दरार की जो कोशिश भाजपा कर रही है, वो फिलहाल नाकाम हो चुकी है।

लेकिन इस वक्त जो सियासी माहौल बना हुआ है, उसे देखकर ऐसा लग रहा है कि लोकतंत्र बचाने की लड़ाई कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी को अभी और लंबी लड़नी पड़ेगी। सबसे पुरानी पार्टी होने के नाते हमेशा उम्मीदें कांग्रेस से ही रहेंगी, अब देखना ये है कि क्या कांग्रेस इन उम्मीदों पर पूरा उतर कर इंडिया गठबंधन को एकजुट रखने में सफल होगी। क्योंकि असली लड़ाई अब शुरु हुई है। लोकसभा चुनावों का यह उपसंहार अब क्या सियासत में नए अध्याय शुरु करेगा, यह देखना भी दिलचस्प होगा।


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