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अपने ही जलाये चिराग को बुझाकर जा रहे हैं चन्द्रचूड़

भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के कामकाज का यह अंतिम सप्ताह है

अपने ही जलाये चिराग को बुझाकर जा रहे हैं चन्द्रचूड़
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- डॉ. दीपक पाचपोर

जब सीजेआई चन्द्रचूड़ ने सरकार की आलोचना को लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये अच्छा बताया, जन आंदोलनों को लोकतांत्रिक अधिकार बताया तथा वे नागरिक अधिकारों के पक्ष में खड़े दिखाई दिये, तो उन्होंने मानों घुप अंधेरे में एक चिराग रोशन किया था। लोगों को लगने लगा था कि ऐसे न्यायाधीश से सरकार की मनमानी रूकेगी, मानवाधिकार बहाल होंगे और नागरिक उनके अधिकारों से पुन: सुसज्जित होंगे।

भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के कामकाज का यह अंतिम सप्ताह है। देश के 50वें चीफ जस्टिस के रूप में काम करने के बाद वे आने वाले सप्ताह के अंतिम दिन यानी रविवार, 10 नवम्बर को सेवानिवृत्त हो जायेंगे। 11 नवम्बर, 1959 को जन्मे सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ पहले बाम्बे हाईकोर्ट में जस्टिस रहे। इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे। देश में नागरिक अधिकारों की सर्वोच्च कस्टोडियन कही जाने वाली इस न्यायिक संस्था के मुखिया का पद उन्होंने 8 नवम्बर, 2022 को सम्हाला था। जिस दौरान वे इस कुर्सी पर बैठे थे, वह एक तरह से अंधेरे का समय था। दो चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस प्रकार से निरंकुश बन बैठे थे, उसके कारण देश की संवैधानिक संस्थाएं कमजोर हो चुकी थीं, विपक्ष लुंज-पुंज की अवस्था से वापिस खड़ा होने की कोशिश कर रहा था, अल्पसंख्यकों की इमारतों तथा नागरिक अधिकारों पर बुलडोज़र चल रहे थे। फिलहाल मोदी जो तोड़ बहुत कमजोर पड़े हैं वह न्यायपालिका के कारण नहीं वरन नागरिकों के कारण है। सीजेआई चन्द्रचूड़ को कार्यकाल को किस प्रकार से याद किया जायेगा, इस पर विचार किये जाने का यह सटीक वक्त है।

उनके पिता जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ भी 28 अगस्त 1972 को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बने थे जिन्होंने न्यायपालिका के इतिहास में सबसे लम्बी अवधि तक इस पद पर बने रहने का इतिहास बनाया है- 7 साल 4 माह का। वे अपने निर्भीक फैसलों एवं जनपक्षीय न्यायदान के लिये जाने जाते थे। इसलिये जब उनके पुत्र डीवाई ने यह पद सम्हाला तो उनसे आशाएं होनी स्वाभाविक थीं क्योंकि वे निष्पक्षता व निर्भीकता की एक चमकदार पारिवारिक विरासत लेकर आये थे। वैसे तो बगैर डरे और पक्षपात विहीन न्याय की विरासत खुद न्यायपालिका में उपलब्ध है परन्तु मोदी-काल में जिस प्रकार से न्यायपालिका का व्यवहार रहा है, उसके कारण सीजेआई चंद्रचूड़ से स्वतंत्र न्याय की अपेक्षा के लिये लोग संस्था की बजाये उनके परिवार की ओर देखने लगे थे और याद करते थे। वे जब इस पद पर बैठे तो कई न्यायाधीश, यहां तक कि एक पूर्व चीफ जस्टिस भी लोगों को निराश कर चुके थे। पद छोड़ने के बाद किसी के लिये राज्यसभा में कुर्सी लगने लगी तो किसी को राजभवन की आरामदेह जिंदगी नसीब हुई। एक तो ऐसे भी निकले जिन्होंने त्यागपत्र देकर भारतीय जनता पार्टी से लोकसभा का चुनाव तक लड़ लिया और संसद पहुंचे।

ऐसे सारे पूर्व 'मी लॉर्ड्स' ने नि:संदेह अपने पेशे को कलंकित किया क्योंकि उनकी कलम से ऐसे फैसले निकले थे जो सरकार से बढ़कर सत्ताधारी दल यानी भाजपा के लिये लाभकारी साबित हुए थे। यहां तक कि कुछ ऐसे निर्णय भी थे जो उस संविधान की धज्जियां उड़ाने के लिये भी जाने गये जिसकी रक्षा का भार एवं दायित्व इन्हीं माननीयों पर था। सेवा काल के बाद जब इन न्यायाधीशों ने सरकार में कोई पद सम्हाला या राजनीति में प्रवेश किया तो लोग उनके दिये निर्णयों को फिर से उलट-पलट कर देखने लगे और इसकी जांच करते रहे कि क्या उनमें कोई ऐसा एंगल रहा था जिसने भाजपा या सरकार को लाभ दिया हो। एक जज के रूप में परन्तु भविष्य में निजी तौर फायदा लेने के लिये हुए ये फैसले अंततोगत्वा भारतीय न्याय पद्धति की विश्वसनीयता को पलीता लगा गये। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से देशवासी ऐसे निर्णयों और न्यायाधीशों को देखने के आदी हो चुके हैं क्योंकि जब राष्ट्रपति रहे रामनाथ कोविंद ने तक बगैर ना-नुकुर के 'एक देश एक चुनाव' के लिये बनी कमेटी का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया तो न्यायाधीशों की भला क्या बिसात? वैसे न्यायपालिका के जजों के बारे में अब कहा जाने लगा है कि 'जब सांसद-राज्यपाल बनने का अवसर सामने हो तो खामख्वाह जज लोया क्यों बना जाये?'

यह भी ख्याल रखा जाये कि जब डी वाय चंद्रचूड सीजेआई बने तब तक स्वीकार कर लिया गया था कि न्यायपालिका सरकार की जेब में है। उनके आने के पहले ही मोदी एवं उनके मुख्य सिपहसालार अमित शाह मनमाने ढंग से कई संविधान विरोधी या जनविरोधी कानून बगैर रूकावट के ला चुके थे। चाहे कृषि कानून हो या अनुच्छेद 370 की समाप्ति आदि, अपनी नागरिकता साबित करने के लिये कागज दिखाने पर मजबूर करने वाले कानून हों या न्याय संहिता में मनमाने बदलाव। सरकार के खिलाफ की गयी तमाम याचिकाएं न्यायपालिका में औंधे मुंह जा गिरती थी। सरकार और मोदी के खिलाफ बात करना गैरकानूनी ही नहीं एक तरह से पाप हो चला था। विरोधी दलों की सरकारें गिराई जाती रहीं तो निर्वाचित मुख्यमंत्रियों को शक्तिहीन किया गया अथवा जेलों में डाला जाता रहा। सरकारें गिराई जाती रहीं सो अलग।

ऐसे में जब सीजेआई चन्द्रचूड़ ने सरकार की आलोचना को लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये अच्छा बताया, जन आंदोलनों को लोकतांत्रिक अधिकार बताया तथा वे नागरिक अधिकारों के पक्ष में खड़े दिखाई दिये, तो उन्होंने मानों घुप अंधेरे में एक चिराग रोशन किया था। लोगों को लगने लगा था कि ऐसे न्यायाधीश से सरकार की मनमानी रूकेगी, मानवाधिकार बहाल होंगे और नागरिक उनके अधिकारों से पुन: सुसज्जित होंगे। उनके कुछ निर्णय इस तरह के दिखाई तो दिये लेकिन उनका लास्टिंग इफेक्ट कहीं नजर नहीं आता। सरकार का लोकतंत्र विरोधी काम अब भी जारी है, विरोधी नेताओं के दरवाजों पर जांच एजेंसियां अब भी दस्तकें देती रहती हैं। कुछ नेताओं या कार्यकर्ताओं को बेल मिल जाना ही न्याय नहीं है क्योंकि वे अब भी अपने सिर पर अपराधी होने का ऐसा कलंक ढो रहे हैं जो साबित ही नहीं हुआ है।

यह वक्त है कि उनके कई फैसलों या उनकी देखरेख में हुए निर्णयों की (चाहे वे उनमें शामिल रहे हों या न रहे हों) विवेचना का। यह तो सही है कि चीफ जस्टिस चन्द्रचूड़ ने इलेक्टोरल बॉन्ड्स को सही ठहराया पर इसके लिये न तो किसी भी पार्टी का पैसा जब्त किया न किसी को दोषी ठहराया, जैसे उनके एक पूर्ववर्ती सीजेआई ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस को गैरकानूनी बतलाते हुए भी मंदिर बनाने का अधिकार दिया। सीजेआई चन्द्रचूड़ ने तोड़-फोड़ से बनी महाराष्ट्र सरकार को अवैध तो ठहराया लेकिन उसे वे सत्ता में बने रहने को मौन होकर देखते भी रहे। उन्होंने चंडीगढ़ नगरपलिका के निर्वाचन अधिकारी को लोकतंत्र का अपराधी बतलाया पर उसे जेल नहीं भेजा। ऐसे ही, उमर खालिद हों या सुधा भारद्वाज अथवा जीएन साईंबाबा या फादर स्टेन- इन सबकी न रिहाई सुनिश्चित की और न ही उनके खिलाफ आरोप साबित करने के लिये अभियोजन पक्ष को जवाबदेह बनाया। इनमें से कई अब भी जेल के भीतर दिन गिन रहे हैं या कुछ बाहर आकर मर गये हैं। दूसरी ओर दोषसिद्ध हुए अपराधी हर महीने- दो महीने में फरलो पर जेल के बाहर आ जाते हैं। प्रक्रिया को दोष नहीं दिया जा सकता न ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है (जो सजा से भी अधिक कष्टप्रद है) क्योंकि उसे भी न्यायपूर्ण बनाना सुप्रीम कोर्ट का ही काम है।

जब सीजेआई चंद्रचूड़ ने अपने घर गणपति पूजा के लिए प्रधानमंत्री मोदी को बुलाया, तब भी सवाल उठे। अंधेरा छंटा नहीं है। ऐसे में जो दीपक सीजेआई चन्द्रचूड़ ने जलाया था उसे भी वे फूंक मारकर जा रहे हैं।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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