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अस्मिता और विरासत का उत्सव: अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस

आज के वैश्विक युग में एक से अधिक भाषाओं में दक्षता हासिल करना एक कौशल है, जिसकी कि हम सबको विशेष ज़रूरत

अस्मिता और विरासत का उत्सव: अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस
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- डॉ. शुभंकर मिश्र

आज के वैश्विक युग में एक से अधिक भाषाओं में दक्षता हासिल करना एक कौशल है, जिसकी कि हम सबको विशेष ज़रूरत है। यह एक तरह की विशेष योग्यता है जिनका इस युग में बहुत अधिक महत्व है। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मातृभाषा में संवाद करने और बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने का पूरा अधिकार है।

अपनी भावनाओं और संवेदनाओं को व्यक्त करने में हमारी मातृभाषा सबसे प्रभावी माध्यम है, क्योंकि यह भावनात्मक रूप से हमें एक सूत्र में जोड़ती है और 'सगेपन' का अहसास कराती है। विभिन्न शोधों के निष्कर्ष यह दर्शाते हैं कि जो लोग अपनी मातृभाषा में दक्ष हैं, वे आमतौर पर शैक्षणिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करते हैं। यह उनकी कुशलता के लाभों को दर्शाता है। यही मूल कारण है कि शिक्षाविद प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा को शिक्षण का माध्यम बनाने को प्राथमिकता देते हैं ताकि छात्र अपने अकादमिक जीवन में बेहतर कुशलता और सफलता अर्जित कर सकें।

इसमें अब कोई दो राय नहीं कि हमारी और आपकी मातृ भाषाएं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने और समाज को सशक्त बनाने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। वैश्विक भाषा परिदृश्य की यदि बात करें तो पूरे विश्व में लगभग 8,324 भाषाएं बोली जाती हैं। गौरतलब है कि इनमें से कई वैश्वीकरण और सामाजिक परिवर्तनों के कारण विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह बेहद चिंता की बात है कि हर दो सप्ताह में एक भाषा लुप्त हो जाती है, जिससे हमारी अनूठी संस्कृतियां और परंपराएं खतरे में पड़ जाती हैं। अमेरिकी भाषाविद केनेथ एल. हेल ने एक बार कहा था, 'जब आप एक भाषा खो देते हैं, तो दरअसल आप एक संस्कृति, बौद्धिक संपदा और अपनी एक कला को खो देते हैं।'
यह अच्छी बात है कि भाषाई विविधता में तेजी से आ रही गिरावट को अब खुलकर स्वीकार किया जाने लगा है और प्रमुख और अल्पसंख्यक भाषाओं के बीच की चिंताओं पर अब चर्चा की जाने लगी हैं। परिणामस्वरूप, हाल के वर्षों में संकटग्रस्त भाषाएं, शैक्षणिक अनुसंधान और सामुदायिक पहलों का केंद्र बन गई हैं, जिनका उद्देश्य उनको संरक्षित और पुनर्जीवित करना है।

अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस बहुभाषावाद की सुरक्षा के महत्व को पुन: स्थापित करता है। यह भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देने के लिए हर साल 21 फरवरी को मनाया जाता है। यूनेस्को ने इस दिन की घोषणा 17 नवंबर 1999 को की थी, और इसे पहली बार 21 फरवरी 2000 को मनाया गया। सन् 2002 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर आधिकारिक रूप से इस दिन को मान्यता प्रदान किया। यह अवसर विश्व स्तर पर बोली जाने वाली विविध भाषाओं का जश्न मनाने का अवसर प्रदान करता है।

बीते वर्षों में, अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के माध्यम से मातृभाषा और बहुभाषी शिक्षा के विभिन्न सरोकारों पर किया गया, जिनमें 'समाज और शिक्षा में समावेशन के लिए बहुभाषावाद को बढ़ावा देना' (2021), 'बहुभाषी शिक्षा के लिए तकनीक का उपयोग: चुनौतियां और अवसर' (2022),'शिक्षा परिवर्तन के लिए बहुभाषी शिक्षा: एक आवश्यकता' (2023), 'बहुभाषी शिक्षा: सीखने और पीढ़ीगत आदान-प्रदान का एक स्तंभ' (2024) उल्लेखनीय हैं।

इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की 25वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है, जो भाषा संरक्षण के महत्व के प्रति हमारे सरोकारों को उजागर करती हैं, ताकि सांस्कृतिक विरासत व भाषिक विविधताओं को सुरक्षित रखा जा सके और एक समावेशी समाज का निर्माण संभव हो सके। यह दिवस संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य का समर्थन करता है, जिसका उद्देश्य समावेशी और समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करना और सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसरों को बढ़ावा देना है। यह लक्ष्य विशेष रूप से शिक्षा तक पहुंच और गुणवत्ता में असमानताओं को कम करने की आवश्यकता पर विशेष बल देता है। इसके अलावा, इस क्रम में एसडीजी 4.6 का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी युवा और वयस्क, पुरुष और महिलाएं—साक्षरता और अंक ज्ञान का बुनियादी कौशल आसानी से हासिल कर सकें।

'बहुभाषावाद' हमारे जीवन के कई पहलुओं को प्रभावित करता है। यह केवल संचार और शिक्षा तक सीमित नहीं, बल्कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा निर्धारित अन्य सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) से भी जुड़ा हुआ है। एसडीजी 5, सभी महिलाओं और लड़कियों के सशक्तिकरण और लैंगिक समानता को बढ़ावा देता है। एसडीजी 10 असमानताओं को दूर करने पर केंद्रित है। एसडीजी 16 शांति, न्याय और मजबूत संस्थानों को बढ़ावा देता है। विकास के ये लक्ष्य परोक्ष-अपरोक्ष रूप से मातृभाषा और बहुभाषा के छोटे-बड़े प्रश्नों से जुड़े हुए हैं। 'बहुभाषावाद' के व्यापक प्रभावों को समझने में गाहे-बगाहे हमें इनकी मदद लेनी ही पड़ती है। इस महत्वपूर्ण दिन का उत्सव हमें बहुभाषावाद और विभिन्न सतत विकास लक्ष्यों के बीच परस्पर के संबंधों की खोज और आपसी समझ विकसित करने का एक बेहतर अवसर प्रदान करता है।

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए मातृभाषा का उपयोग बेहद महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से, कई देश अभी भी एकभाषी शिक्षा-प्रणाली को अपना रहे हैं, जिनसे छात्रों का साक्षरता कौशल अनपेक्षित रूप से प्रभावित होता है। यूनेस्को द्वारा प्रकाशित 'वैश्विक शिक्षा निगरानी' रिपोर्ट के तहत प्रकाशित नीति-पत्र, जिसका शीर्षक है-'अगर आप समझ नहीं पाएँगे, तो सीखेंगे कैसे?' में इस बात पर इस बात की गंभीर चर्चा है कि दुनिया भर में 40 प्रतिशत लोग अपनी मातृभाषा में शिक्षा से वंचित हैं, जिससे एक असमान शैक्षिक वातावरण का निर्माण हो रहा है।

विदित ही है कि भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। इसकी विशाल भौगोलिक सीमा में यही कोई 120 से अधिक भाषाएं और बोलियां प्रचलित हैं। सन् 2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार, हिंदी भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, जिसके लगभग 52.83 करोड़ वक्ता हैं, जो देश की कुल जनसंख्या का 43.63 प्रतिशत हैं। हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, जो इसकी व्यापक लोकप्रियता को दर्शाती है। संस्कृत से गहरे रूप से जुड़ी और उर्दू के काफ़ी करीब हमारी हिंदी वर्षों से 'जन-भाषा' के रूप में भारत और अन्य देशों की विभिन्न संस्कृतियों को एकजुट करने का कार्य कर रही है।

आज के वैश्विक युग में एक से अधिक भाषाओं में दक्षता हासिल करना एक कौशल है, जिसकी कि हम सबको विशेष ज़रूरत है। यह एक तरह की विशेष योग्यता है जिनका इस युग में बहुत अधिक महत्व है। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मातृभाषा में संवाद करने और बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने का पूरा अधिकार है। दक्षिण अफ्रीका के प्रथम राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने एक बार कहा था, 'यदि आप किसी व्यक्ति से ऐसी भाषा में बात करते हैं, जिसे वह समझता है, तो वह उसके केवल दिमाग तक जाती है, लेकिन यदि आप उससे उसकी मातृभाषा में बात करते हैं, तो वह उसके दिल की गहराइयों तक पहुंचती है।' उनकी यह उक्ति इस बात पर बल देता है कि किसी व्यक्ति से उसकी मातृभाषा में संवाद करने से वह उससे अधिक प्रभावी रूप से जुड़ सकेगा। हमारी सांस्कृतिक और भाषाई विविधता एक बहुमूल्य धरोहर है, जिसे हमें संरक्षित करना चाहिए। बोलने, सुनने, पढ़ने और लिखने के माध्यम से अपनी भाषाओं को अपनाना हमें अपनी विरासत और अस्मिता को जानने-समझने का अवसर प्रदान करता है। यह समाज में दूसरों के साथ एक गहरे स्तर पर संबंध स्थापित करने में हमारी मदद करता है।

(लेखक विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस में उपमहासचिव के रूप में भारत सरकार के प्रतिनिधि हैं। इस लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)


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