खेती में किसान-मजदूरों का भाईचारा
इन दिनों खेती-किसानी में धान रोपाई का काम चल रहा है। साल भर में यह एक ऐसा मौका होता है जब किसान और मजदूरों में भाईचारा देखने को मिलता है

- बाबा मायाराम
अब हमारी खेती स्वावलंबी की जगह परावलंबी हो गई है। जिसमें हर चीज के लिए उसकी निर्भरता बढ़ती चली जा रही है। ट्रैक्टर के लिए ईंधन और ट्रैक्टर मरम्मत के लिए वह शहरों पर निर्भर हो गया। अगर कभी बिगड़ जाता है तब भी मरम्मत के लिए शहर आना पड़ता है। खर्च भी होता है।
इन दिनों खेती-किसानी में धान रोपाई का काम चल रहा है। साल भर में यह एक ऐसा मौका होता है जब किसान और मजदूरों में भाईचारा देखने को मिलता है। किसानों को धान रोपाई में मजदूरों की जरूरत होती है, और मजदूरों को काम की। जबकि अन्य दिनों खेती में मशीनीकरण के कारण मजदूरों की जरूरत कम हो गई है। आज खेती के इसी बदलते स्वरूप पर चर्चा करना उचित होगा, जिससे खेती को समग्रता से समझा जा सके।
जब मैं बचपन की याद करता हूं, तो उस समय धान रोपाई का काम लोकगीतों के साथ होता था। कभी रिमझिम तो कभी तेज झमाझम बारिश के बीच धान रोपाई का काम होता था। है। धान रोपाई के मजदूरों की टोलियां रंग-बिरंगी क्यारियों सी बिछ गई लगती थी। प्रकृति की लय के साथ मजदूरों का उत्साह भी देखते बनता था। इससे शारीरिक श्रम का कष्ट भी कम हो जाता होगा। क्योंकि यह मेहनत का काम होता है।
यह ऐसा समय होता है जिसमें सबको काम मिलता है, पुरुष, महिला, बुजुर्ग सभी काम करते हैं। यही वह मौका होता है, जब तीज-त्यौहार की शुरूआत होती है। कल ही हरियाली अमावस्या थी। अब रक्षाबंधन आने वाला है। इसके बाद लगातार त्यौहारों का सिलसिला चलता रहता है।
मजदूरी के लिए पहाड़ी क्षेत्रों के लोग मैदानी क्षेत्रों में आते हैं। कई कारणों से पहाड़ी इलाकों में खेती उतनी अच्छी नहीं होती, जितनी मैदानी क्षेत्रों में होती है। धान रोपाई व फसल कटाई ऐसा मौका होता है, तब मैदानी क्षेत्र में मजदूरों की जरूरत होती है, और पहाड़ी क्षेत्र के लोग यह काम करने आते हैं। इस तरह किसान व मजदूरों दोनों की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। ऐसा सिलसिला बरसों से चलता आ रहा है।
हमारा देश कृषि प्रधान है, यह हम बरसों से सुनते-पढ़ते आ रहे हैं। लेकिन अब किसानों से ज्यादा मजदूरों की संख्या हो गई है। इसका एक कारण खेती का मशीनीकरण होते जा रहा है। हालांकि अब खेती का संकट भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। लघु-कुटीर उद्योग भी खत्म हो गए हैं, या काफी कम हो गए हैं।
लेकिन मैं यहां खेती-किसानी की मिली-जुली संस्कृति और पारंपरिक खेती की चर्चा करना चाहूंगा। बचपन में हम देखते थे कि किसान खुद से ही खेती का काम करते थे। वे फसलों में बीज के लिए अलग से अनाज रखा करते थे। इस संबंध में उत्तराखंड के बीज बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता विजय जडधारी एक कहावत बताते हैं खाज खाणु अर बीज धऱणु। यानी खाने वाला अनाज खाओ पर बीज सुरक्षित रखो। हर बार बीज रखने और हर अगली फसल बोने के साथ पीढ़ियों से लोगों ने बीज बचाकर रखे हैं।
इसी प्रकार, पशुपालन से गोबर खाद होता था, जिससे खेतों की उर्वरता बढ़ती थी। और इससे पोषण की जरूरतें भी पूरी हो जाती थीं। बैलों से खेतों की जुताई होती थी। पशुपालन और खेती दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इसके साथ, किसान खुद ही मेहनत करते थे। देसी बीज, गोबर खाद व हाथ से मेहनत से खेती होती थी। इससे खेती में लागत कम होती थी, और विविधता भी होती थी।
पहले एकल फसलों की जगह मिश्रित फसलों का चलन था। छत्तीसगढ़ में मेड़ों पर अरहर, तिली, अमाड़ी, भिंडी, बरबटी, झुरगा ( बरबटी की तरह बीज) चुटचुटिया ( ग्वारफली) आदि लगाते थे। यानी एक ही खेत में चावस दलहन, तिलहन सब कुछ हो जाता था। यही छत्तीसगढ़ की खान-पान की संस्कृति व तीज-त्यौहार से जुड़ा है। यह बीज बचाना ही नहीं, बल्कि जैव विविधता, खेती और पशुपालन आधारित जीवन पद्धति और संस्कृति बचाना है।
लेकिन अब हमें खेतों में कंबाईन-हार्वेस्टर का चलन दिखाई दे रहा है, इसे समृद्धि और विकास का प्रतीक मानते हैं। जबकि हकीकत में इसके कई नुकसान सामने आ रहे हैं। इसके आने से जो रोजगार कटाई और थ्रेसिंग के रूप में मजदूरों को मिलता था उससे वे वंचित हो रहे हैं। कंबाईन -हार्वेस्टर से कटाई के बाद जो ठंडल छूट जाते हैं, उनमें आग लगाने से हरे-भरे पेड़ जल रहे हैं, भूमि की उर्वर को बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो रहे हैं। जैव-विविधता खत्म हो रही है। एक बड़ा असर धरती के गरम होने का भी हैं। कार्बन गैसों के उत्सर्जन से यह खतरा जुड़ा है। इस समय देश-दुनिया में जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है, इसके बावजूद ऐसी मशीनों के उपयोग पर सावधानी नहीं बरती जा रही है। हम देखते हैं कि खेतों में गेहूं की कटाई हुई है। मजदूरों की जगह अब कंबाईन हार्वेस्टर से कटाई की जाने लगी है। कटाई के बाद बचे गेहूं की नरवाई (गेहूं के ठंडलों में) आग लगाई जा रही है। इससे एक तो खड़ी फसलें जल रही हैं, खेतों और सड़क के किनारे लगे हरे-भरे पेड़ जल रहे हैं। इनमें से कई तो बरसों पुराने पेड़ हैं। इससे खेतों की हरियाली खत्म हो रही है। वायु प्रदूषण बढ़ता है। जबकि पूर्व में खेतों का सौंदर्य देखते ही बनता था। हरे-भरे पेड़-पौधे मन को मोह लेते थे।
कुछ किसान शिकायत करते हैं कि कटाई के समय मजदूर नहीं मिलते, इसलिए हार्वेस्टर से कटाई करवाना जरूरी है। लेकिन मजदूरों का कहना है कि अगर उन्हें उचित मजदूरी दी जाए तो मजदूरों की कमी नहीं है। गांव से शहरों की ओर लगातार पलायन हो रहा है दूसरी तरफ गांव में मजदूर नहीं मिलने की बात समझ से परे है। अब हमारी खेती स्वावलंबी की जगह परावलंबी हो गई है। जिसमें हर चीज के लिए उसकी निर्भरता बढ़ती चली जा रही है। ट्रैक्टर के लिए ईंधन और ट्रैक्टर मरम्मत के लिए वह शहरों पर निर्भर हो गया। अगर कभी बिगड़ जाता है तब भी मरम्मत के लिए शहर आना पड़ता है। खर्च भी होता है। इससे हो यह रहा है कि छोटे किसानों के लिए खेती करना मुश्किल होता जा रहा है।
गांधीवादी अर्थशास्त्री ने के.सी.कुमारप्पा ने उनकी प्रसिद्ध किताब स्थायी समाज व्यवस्था में इसे अच्छी तरह समझाया है। एक रूपक देते हुए उन्होंने बताया कि हमें बाल्टी अर्थव्यवस्था की नदी अर्थव्यवस्था की जरूरत है। बाल्टी अर्थव्यवस्था यानी धरती के संसाधनों का दोहन करने की बजाय उनका उचित इस्तेमाल करना। वे कहते हैं बाल्टी कितनी ही बड़ी हो, एक न दिन उसका पानी खाली होना है। उनका कहना है कि हमें नदी अर्थ व्यवस्था की आवश्यकता है। जहां पानी लगातार पुनरोत्पादित होता रहता है और खत्म नहीं होता है। यानी हमें स्थायी अर्थव्यस्था चाहिए, जिसमें मिट्टी पानी का संरक्षण होता रहे। इस सबके मद्देनजर हमें टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना जरूरी हो गया है। खेती-किसानी को ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने का साधन बनाने की बजाय भोजन की जरूरत पूरा करने की दृष्टि से करने की जरूरत है। पर्यावरण और मिट्टी को बचाने की जरूरत है। खेतों के आसपास हरे-भरे वृक्षों को बचाने की जरूरत है।
इसके साथ ही मेड़बंदी और भू तथा जल संरक्षण के साथ ही भूमि का उपजाऊपन बढ़ाने की कोशिश करना चाहिए। जैविक खेती को अपनाना चाहिए। गोबर-खाद और हल-बक्खर की खेती को अपनाना चाहिए। इसमें टिकाऊपन और पारिस्थिकीय संतुलन की क्षमता मौजूद है। इससे हमारी जैव-विविधता नष्ट नहीं होती। हमारे यहां मिश्रित फसलों बोने का चलन है। एक साथ कई फसलें बोने से मिट्टी में पोषक तत्व बने रहते हैं। इस संदर्भ में किसान मजदूरों का भाईचारा भी समाज के लिए सराहनीय है। क्योंकि खेती में सभी का पेट भरने व जीव-जगत के पालन का विचार निहित है।


