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स्वाद और पौष्टिकता में बेजोड़ है बारहनाजा

बारहनाजा की फसलों से प्रकृति को बिना नुकसान पहुचाएं पैदावार बढ़ाई जा सकती है, जो पर्यावरण व मित्र जीवों की रक्षा की जा सकती है

स्वाद और पौष्टिकता में बेजोड़ है बारहनाजा
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- बाबा मायाराम

बारहनाजा की फसलों से प्रकृति को बिना नुकसान पहुचाएं पैदावार बढ़ाई जा सकती है, जो पर्यावरण व मित्र जीवों की रक्षा की जा सकती है, पशुपालन व कृषि का समन्वय किया जा सकता है, इसमें खेती का खर्च न्यूनतम है। इसके साथ पर्यावरण रक्षा करते हुए उत्पादन वृद्धि को टिकाऊ रूप दिया जाता है। गांवों में स्थायी, टिकाऊ खेती से आजीविका व भोजन सुरक्षा की जा सकती है। साथ ही दीर्घकालीन दृष्टि रखकर मिट्टी, पानी का संरक्षण भी किया जा सकता है।

देसी बीज बचाने की देश भर में कई पहल हो रही हैं। इनमें से एक पहल की शुरूआत उत्तराखंड में हुई थी। कुछ वर्ष पहले मैं उत्तराखंड गया था। वहां विजय जड़धारी के जड़धार गांव गया था, जहां वे न केवल बारहनाजा नामक पारंपरिक मिश्रित खेती करते हैं, बल्कि उसका प्रचार-प्रसार भी करते हैं। वे बीज बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता हैं, जो देश-दुनिया में इसे फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। आज इस कॉलम में इस पहल के बारे में बताना उचित होगा, जिससे देसी बीजों की खेती को समग्रता से समझा जा सके।
मैं विजय जड़धारी के गांव गया हूं, और अलग-अलग जगहों पर कई बार मिला हूं। वे खुद किसान हैं, लेखक हैं और एक जमाने में चिपको आंदोलन के कार्यकर्ता रह चुके हैं। उन्हें कई सम्मान व पुरस्कार मिल चुके हैं।
वे टिहरी-गढ़वाल जिले के जड़धार गांव में रहते हैं। इसी गांव के नाम को उन्होंने अपने नाम के साथ जोड़ लिया है, वे विजय जड़धारी के नाम से जाने जाते हैं। वे जहां भी जाते हैं, अपने गांव की पहचान लेकर जाते हैं।
वे अपने खेत में बारहनाजा पद्धति से फसलें उगाते हैं। यह पारंपरिक मिश्रित खेती की पद्धति है। बारहनाजा का शाब्दिक अर्थ बारह अनाज है,पर इसके अंतर्गत बारह अनाज ही नहीं बल्कि दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा शामिल हैं। इसमें 20-22 प्रकार के अनाज होते हैं।
इन अनाजों में कोदा ( मंडुवा), मारसा ( रामदाना), ओगल (कुट्टू), जोन्याला ( ज्वार), मक्का, राजमा, गहथ ( कुलथ), भट्ट ( पारंपरिक सोयाबीन), रैयास ( नौरंगी), उड़द, सुंटा, रगड़वांस, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, सण ( सन), काखड़ी इत्यादि।
विजय जड़धारी बताते हैं कि मंडुआ बारहनाजा परिवार का मुखिया कहलाता है। असिंचित व कम पानी में यह अच्छा होता है। पहले मडुंवा की रोटी ही लोग खाते थे, जब गेहूं नहीं था। पोषण की दृष्टि से यह भी बहुत पौष्टिक है।
जड़धारी जी बताते हैं कि शुरूआत में हमें देसी बीज ढूंढ़ने में दिक्कतें आईं। दूर-दूर के गांवों में जाकर देसी बीज एकत्र किए। चूंकि खेती का अधिकांश काम महिलाएं करती हैं, इसलिए उन्हें इस काम से जोड़ा। इस पूरे आंदोलन में महिलाओं को प्राथमिकता दी। कई तरह के देसी बीजों का आज संग्रह है।
वे आगे बताते हैं कि बारहनाजा मिश्रित फसल पद्धति है, जिसमें खरीफ की फसलें होती हैं। इस पद्धति में मिट्टी के साथ रिश्ता है। मंडुवा, रामदाना, कुट्टू ज्यादा ताकत लेते हैं। इसलिए दलहन की फसलें लगाई जाती है। यह मिट्टी को उपजाऊ बनाने का काम करती हैं। दालों से नत्रजन मिलता है। यह सब किसानों ने अपने अनुभव से सीखा है।
इसकी फसलें अलग-अलग होते हुए भी एक दूसरे की सहायक हैं। रामदाना, मंडुवा, ज्वार ऊपर की तरफ बढ़ते हैं। बेल वाली दालें उससे लिपट जाती हैं। एक दूसरे को सहारा देती हैं। नियंत्रित करती हैं और उन्हें बढ़ाने में सहायक होती है।

जड़धारी बताते हैं कि बारहनाजा की फसलें मई-जून में बोई जाती हैं और सितंबर-अक्टूबर में उनकी कटाई हो जाती है। 4 महीने खेत खाली रहते हैं। यानी इस बीच खेतों की छुट्टी होती है, इससे खरपतवार का नियंत्रण होती है, मिट्टी फिर से उपजाऊ बनती है, यह जांचा परखा तरीका है।
वे कहते हैं अब हमारे भोजन से विविधता गायब है। चावल और गेहूं में ही भोजन सिमट गया है। जबकि पहले बहुत अनाज होते थे। उन्होंने कहा भोजन पकाने के लिए चूल्हा कैसा होना चाहिए, पकाने के बर्तन कैसे होने चाहिए, यह भी गांव वाले तय करते हैं। उन्होंने पूछा क्या किसी कांदा ( कंद) को गैस में भूना जा सकता है।
यह खेती बिना लागत वाली है। बीज खुद किसानों का होता है, जिसे वे घर के बिजुड़े ( पारंपरिक भंडार) से ले लेते हैं और पशुओं व फसलों के अवशेष से जैविक खाद मिल जाती है, जिसे वे अपने खेतों में डाल देते हैं। परिवार के सदस्यों की मेहनत से फसलों की बुआई, निंदाई-गुड़ाई, देखरेख व कटाई सब हो जाती हैं। इसके अलावा निंदाई-गुड़ाई के लिए कुदाल, दरांती, गैंती, फावड़ा आदि की लकड़ी भी पास के जंगल से मिल जाती है। गांव के लोग ही खेती के औजार बनाते थे।

जड़धारी जी कहते हैं कि हमारी खेती समावेशी खेती है। उससे मनुष्य का भोजन भी मिलता है और पशुओं का भी। वे पालतू पशुओं को पशुधन कहते हैं। यह किसानी की रीढ़ है। लम्बे ठंडल वाली फसलों से जो भूसा तैयार होता था उसे पशुओं को खिलाया जाता था और जंगल में भी चारा बहुतायत में मिलता था। और पशुओं के गोबर व मूत्र से जैव खाद तैयार होती थी जिससे जमीन उपजाऊ बनी रहती थी। बारहनाजा की फसलों से पशुओं को भी पौष्टिक चारा निरंतर मिलते रहता था।

बारहनाजा के बीज सभी किसान रखते हैं। खाज खाणु अर बीज धरनु ( खाने वाला अनाज खाओ किन्तु बीज जरूर रखो)। बिना बीज के अगली फसल नहीं होगी। बीजों को सुरक्षित रखने के लिए तोमड़ी ( लौकी की तरह ही) का इस्तेमाल किया जाता था।
जलवायु परिवर्तन हो रहा है, यह असलियत है। लेकिन बारहनाजा में इसका मुकाबला करने की क्षमता बारहनाजा में है, ऐसा अनुभव रहा है। जैसे अगर ज्यादा बारिश होती है, सूखा होता है या जंगली जानवर का आक्रमण होता है तो अगर कुछ फसलों का नुकसान होता है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसलों से हो जाती है।
उन्होंने बताया कि जंगली भालू मंडुवा को बहुत पसंद करता है और खाता है पर दूसरी फसलों को नहीं खाता। इसी प्रकार बंदर चौलाई को नहीं छेड़ते यानी नहीं खाते। बारहनाजा जैसी मिश्रित पद्धतियों का फायदा यह है कि किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में किसान को कुछ न कुछ मिल जाता है। जबकि एकल फसलों में पूरी की पूरी फसल का नुकसान हो जाता है और किसान के हाथ कुछ नहीं लगता है।
इसके अलावा, अब किसानों को बारहनाजा की फसलों से अच्छी आमदनी भी हो रही है। चिकित्सक, कई बीमारियों के लिए मंडुवा व सांवा खाने की सलाह देते हैं। इससे इनके दाम बाजार से ज्यादा भी मिलते हैं। रामदाना तो सबसे अच्छा पहाड़ का ही होता है, इस कारण बाजार में इसके अच्छे दाम मिलते हैं। सरकारें भी इस ओर ध्यान दे रही हैं।

यानी बारहनाजा की फसलों से प्रकृति को बिना नुकसान पहुचाएं पैदावार बढ़ाई जा सकती है, जो पर्यावरण व मित्र जीवों की रक्षा की जा सकती है, पशुपालन व कृषि का समन्वय किया जा सकता है, इसमें खेती का खर्च न्यूनतम है। इसके साथ पर्यावरण रक्षा करते हुए उत्पादन वृद्धि को टिकाऊ रूप दिया जाता है। गांवों में स्थायी, टिकाऊ खेती से आजीविका व भोजन सुरक्षा की जा सकती है। साथ ही दीर्घकालीन दृष्टि रखकर मिट्टी, पानी का संरक्षण भी किया जा सकता है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बारहनाजा जैसी पद्धतियां सूखा में भी उपयोगी हैं और उसमें खाद्य सुरक्षा संभव है। इसलिए बारहनाजा जैसी कई और मिश्रित पद्धतियां हैं, जो अलग-अलग जगह अलग-अलग नाम से प्रचलित हैं। छत्तीसगढ़ में उतेरा पद्धति है, जो बारिश की नमी में ही हो जाती है। इस पद्धति में जब धान कटाई के पहले ही तिवड़ा, चना आदि की फसलें बोई जाती हैं। मध्यप्रदेश में भी मिलवां ( मिश्रित ) फसलों की परंपरा है। यहां गेहूं और चना दोनों को एक ही खेत में बोते थे, इसे बिर्रा कहते थे। इसी प्रकार, कई और स्थानों पर मिश्रित खेती की परंपरा है। इसमें देसी बीजों के साथ पारंपरिक ज्ञान का भी संरक्षण होता है। ये सभी स्थानीय हवा,पानी, मिट्टी और जलवायु के अनुकूल हैं। ऐसी स्वावलंबी पद्धतियों को अपनाने की जरूरत है। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ने को तैयार है?


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