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अरावली को मृत्युदंड

पर्यावरण संरक्षण का मोदी सरकार का वादा उसके बाकी वादों की तरह न केवल खोखला है, बल्कि डरावना भी है।

अरावली को मृत्युदंड
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पर्यावरण संरक्षण का मोदी सरकार का वादा उसके बाकी वादों की तरह न केवल खोखला है, बल्कि डरावना भी है। इस संरक्षण के नाम पर सरकार ने एक उद्योगपति को निजी जंगल बनाकर उसमें तमाम तरह के जानवर पालने की अनुमति दे दी। पूरी दुनिया में ऐसे भ्रष्टाचार की मिसाल नहीं मिलेगी। लेकिन पर्यावरण को लेकर सरकार के खौफनाक रवैये का यह अकेला उदाहरण नहीं है। नया उदाहरण 2 अरब साल पुरानी अरावली पर्वत श्रृंखला को सुप्रीम कोर्ट के जरिए मृत्युदंड सुनाने का है। सरकार की बनाई कमेटी की तय परिभाषा के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अरावली में खनन की जो अनुमति दी है, वह किसी मृत्युदंड से कम नहीं है।

अगड़े-पिछड़े, लोकतांत्रिक-तानाशाही वाले तमाम देशों में पर्यावरण के मुद्दों पर व्यापक बहस होती है, फिर भावी पीढ़ियों को ध्यान में रखकर फैसले लिए जाते हैं। लेकिन भारत शायद इकलौता देश है जहां सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर केंद्र की सिफारिश पर अपनी मुहर लगा दी और इसमें पर्यावरणविदों की राय जरूरी नहीं समझी गई। सरकार ने किसी पर्यावरणविद को भले सलाहकार नहीं बनाया, फिर भी अरावली में खनन के खिलाफ जो आवाज़ें चारों तरफ से उठ रही हैं, उन पर ही सर्वोच्च न्यायाल को स्वत: संज्ञान लेना चाहिए कि आखिर क्या गलत हो रहा है, जिस पर इतना विरोध हो रहा है।

गौरतलब है कि अरावली पहाड़ियों की परिभाषा के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा पर्यावरण मंत्रालय, भारतीय वन सर्वेक्षण, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण, राज्यों के वन विभागों और सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी के सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई जिसे अरावली को परिभाषित करने को कहा गया। कमेटी ने कोर्ट के सामने अपनी अनुशंसा में कहा कि दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा और गुजरात इन चार राज्यों में लगभग 670 किमी तक फैली अरावली पहाड़ियों में वही पहाड़ियां अरावली श्रृंखला का हिस्सा मानी जायें जिनकी ऊंचाई 100 मीटर या उससे अधिक हो। भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार, पूरी अरावली श्रृंखला में 12,081 पहाड़ियां हैं जिनमें से मात्र 1048 पहाड़ियां ही यानी केवल 8.7 प्रतिशत हिस्सा ही सरकार के 100 मीटर के मानक पर खरी उतरता है। जिस पहाड़ी की ऊंचाई 99 मीटर है, उसे भी सरकार ने पहाड़ी नहीं माना है। कमेटी की अनुशंसाओं से असहमति जताते हुए न्यायमित्र वरिष्ठ वकील के. परमेश्वर ने अरावली श्रृंखला की नई परिभाषा का विरोध किया। उन्होंने कहा था कि भारतीय वन सर्वेक्षण ने इससे पहले अरावली की परिभाषा को लेकर जो नियम बनाये थे, उसके अनुसार, 3 डिग्री से अधिक ढाल, जिसमें घाटियों की चौड़ाई 500 मीटर हो, उसे अरावली श्रृंखला का हिस्सा समझा जाये, इसके अतिरिक्त पहाड़ी के नीचे (तलछटी) में 100 मीटर की चौड़ाई तक किसी भी किस्म की कोई गतिविधि ना की जाये। लेकिन अब तो नया खेल करके सौ मीटर ऊंचाई का मापदंड बना दिया गया है। जिसके बाद इन पहाड़ियों के मनचाहे खनन का खेल खेलने के लिए मैदान साफ है।

कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 4 दिसंबर को द हिंदू में प्रकाशित अपने लेख में इसे 'अरावली के लिए एक डेथ वारंट यानी मृत्युदंड का ऐलान बताया था। उन्होंने लिखा था कि यह निर्णय उन समूहों के लिए वरदान है जो अवैध खनन और जमीन कब्जे में शामिल रहते हैं। सोनिया गांधी ने याद दिलाया कि अरावली सदियों से उत्तर भारत की जलवायु को संतुलित रखने, थार रेगिस्तान के फैलाव को रोकने और राजस्थान के जंगलों को संरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आई है। उन्होंने चेतावनी दी थी कि राजधानी दिल्ली में बढ़ता प्रदूषण अब रोज़मर्रा की समस्या नहीं रहा, बल्कि यह एक बड़े जन-स्वास्थ्य संकट का रूप ले चुका है। देश के दस बड़े शहरों में सालाना 30 हजार से अधिक मौतें सिर्फ प्रदूषण की वजह से हो रही हैं।

दरअसल केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम 1980 और वन संरक्षण नियम 2022 में संशोधन कर प्राकृतिक संसाधनों के गलत तरीके से दोहन का रास्ता खोला है, ताकि कुछ उद्योगपतियों के मुनाफे की हवस पूरी हो सके। इसके बदले भाजपा को करोड़ों का चंदा मिलता है, जिसका इस्तेमाल वो अपनी सत्ता बनाए रखने और मनमाने फैसले लेने में करती है। लेकिन माननीय अदालत को यह देखना चाहिए कि कुछ लोगों को खुश करने के लिए न केवल करोड़ों लोगों को नुकसान में धकेला जा रहा है, बल्कि पर्यावरण को ऐसा नुकसान पहुंचाया जा रहा है, जिसकी भरपाई संभव नहीं होगी।

अगर अदालत को कुछ वक्त बाद यह अहसास होगा कि अरावली पहाड़ों को खत्म करना ठीक नहीं था, तब भी इसका भूल सुधार नहीं हो पाएगा, क्योंकि जो पहाड़ दो अरब सालों में बने हैं, मजबूत हुए हैं, उन्हें फिर हासिल नहीं किया जा सकेगा। ध्यान रहे कि अरावली पर्वतमाला करोड़ों सालों से थार मरुस्थल को पूर्व की ओर बढ़ने से रोक रही है। सिंधु-गंगा के उर्वर मैदान को रेगिस्तान बनने से रोक रही है। चंबल, साबरमती और लूनी जैसी नदियों को इन पहाड़ों से जीवन मिला है। करोड़ों साल पुराने एक सम्पूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र को एक 'तथाकथित विशेषज्ञ कमेटी' ने सिर्फ़ एक 'ऊंचाई' से परिभाषित कर दिया है, यह बड़ी विडंबना है।

अरावली मौसम को संतुलित करने की पुरानी ढाल है, जिसमें अब जगह-जगह सुराख किए जा चुके हैं। 92 प्रतिशत अरावली को नकारकर हम आने वाली पीढ़ियों के साथ गुनाह करेंगे। मोदी सरकार तो लोककल्याण का मतलब ही भूल चुकी है, उसे न खामोश खड़े जंगल, पहाड़ दिखाई देते हैं, न ही प्रदूषण की त्रासदी से तड़पते लोग दिखते हैं। व्यापारी सरकार को केवल आंकड़े दिखाई देते हैं कि एयर प्यूरीफायर बिकने से कितने का मुनाफा हुआ, दुर्लभ खनिजों की बिक्री से कितने का कमीशन आया। अफसोस की बात है कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के इस खेल को रोक नहीं पाया है। जबकि 2018 में सुप्रीम कोर्ट की ही बनाई गई एक कमेटी ने पाया था कि अवैध खनन की वजह से राजस्थान में अरावली की 128 पहाड़ियों में से 31 गायब हो चुकी हैं और पहाड़ियों के बीच 10 से अधिक बड़े-बड़े खाली स्थान बन चुके हैं।

यह स्थिति भयावह है। गनीमत है कि कांग्रेस के साथ-साथ सपा, आप और बाकी विपक्षी दल भी अरावली को बचाने की गुहार लगा रहे हैं। यानी इस बार किसी अमृता बिश्नोई को अकेले नहीं लड़ना पड़ेगा, सियासी दल भी इस बार साथ रह सकते हैं।



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