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एंजेल चकमा की मौत, देश के लिए सबक

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में त्रिपुरा से आए छात्र एंजेल चकमा की नस्लवादी नफरत में हत्या कर दी गई

एंजेल चकमा की मौत, देश के लिए सबक
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उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में त्रिपुरा से आए छात्र एंजेल चकमा की नस्लवादी नफरत में हत्या कर दी गई। इस घटना पर अब उत्तराखंड से लेकर त्रिपुरा तक विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं, लोग नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं। पूर्वोत्तर के छात्र अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। वहीं अब भाजपा के नेता भी इस घटना को दुखद और चिंतनीय बता रहे हैं। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने सोमवार को पूर्वोत्तर के लोगों की सुरक्षा और संरक्षण सुनिश्चित करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज में नस्लवाद और भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है। किसी भी जाति, नस्ल या धर्म के लोगों का मजाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि केवल पूर्वोत्तर के लोग ही नहीं, बल्कि सभी को इस तरह की घटनाओं से दुखी होना चाहिए, क्योंकि यह किसी के साथ भी हो सकता है।

एक बेकसूर नागरिक को केवल उसके चेहरे-मोहरे के कारण मार देना दुख और नाराजगी की बात तो है ही, उससे भी अधिक गहरी चिंता की बात है कि एक समाज के तौर पर हम पागलपन के किस दौर में पहुंचा दिए गए हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोगों को कपड़ों से पहचान करने के लिए उकसाया तो अब उससे एक कदम आगे बढ़ते हुए लोग कपड़ों के साथ-साथ खान-पान, नाम, नैन-नक्श से भी पहचान करने लगे हैं कि कौन हमारे जैसा है और कौन नहीं। जो हमारी तरह नहीं है, बहुसंख्यकों में शामिल नहीं है, उसे अल्पसंख्यक भी न रहने दिया जाए, बल्कि उसका अस्तित्व ही मिटा दिया जाए, इसी उन्मादी सोच का शिकार देश हो चुका है।

भाजपा ने सत्ता पाने और उस पर जमे रहने के लिए लोगों में जो फूट डालनी शुरु की है, अब उसकी पराकाष्ठा देखी जा सकती है। किरण रिजीजू को अब अगर लग रहा है कि जाति, नस्ल या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए, तो ऐसा ही विरोध उन्हें उस वक्त भी करना था जब सैंटा क्लॉज की टोपी पहनने या बेचने वालों को प्रताड़ित किया गया। जब जन्मदिन के जश्न में बजरंग दल के गुंडे केवल इसलिए घुसकर मारपीट करने लगे, क्योंकि उसमें अल्पसंख्यक लोग भी थे। अगर अखलाक की लिंचिंग के बाद ही किरण रिजीजू भीड़ की हिंसा के खिलाफ बोलते या झारखंड में मॉब लिंचिंग के आरोपियों को जब भाजपा नेता जयंत सिन्हा माला पहना रहे थे, तब उनकी मुखालफत करते, तब तो उनकी चिंता जायज लगती। लेकिन अभी तो ऐसा लग रहा है कि पूर्वोत्तर में भाजपा की स्थिति कमजोर न हो जाए, इस डर से किरण रिजीजू पीड़ित के पक्ष में बोल रहे हैं।

गनीमत यही है कि वो बोल रहे हैं, वर्ना देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को तो शायद ऐसी घटनाएं संबोधित करने लायक लगती ही नहीं हैं। वैसे भी इस समय उनका पूरा ध्यान इस समय बंगाल चुनाव पर हैं, जहां से घुसपैठियों को चुन-चुन कर निकालने की प्रतिबद्धता मोदी-शाह दिखा रहे हैं। हालांकि वे अब तक ये नहीं बता पाए हैं कि इससे पहले झारखंड, दिल्ली और बिहार में उन्हें कितने घुसपैठिए मिले हैं और उन पर क्या कार्रवाई की गई है। घुसपैठिए का डर बढ़ाकर भी देश में अल्पसंख्यकों और बांग्लाभाषियों के लिए खतरे बढ़ा दिए गए हैं। मजदूरी या अन्य कार्यों में रत बांग्लाभाषियों को कई बार घुसपैठिए होने के नाम पर प्रताड़ित होना पड़ा है। इस सिलसिले में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कर चिंता जाहिर की है कि प्रवासी बंगाली मजदूरों के साथ हो रहे भेदभाव पर कार्रवाई की जाए।

तो किरण रिजीजू मुंहजुबानी जो चिंता जतला रहे हैं, उसे अपनी पार्टी के भीतर उन्होंने व्यक्त किया है या नहीं, ये भी बता देना चाहिए। वैसे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 29 तारीख को पीड़ित के पिता से फोन पर बात की और आश्वासन दिया कि कोई बख्शा नहीं जाएगा। उन्होंने त्रिपुरा की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री माणिक साहा से भी फोन पर बात की। पीड़ित के पिता से बात करते हुए मुख्यमंत्री धामी ने बाकायदा वीडियो बनवाया और उसे सोशल मीडिया पर भी पोस्ट किया। सवाल ये है कि क्या भाजपा के लोगों में शर्म और संवेदनशीलता का भाव रंचमात्र भी बचा है या नहीं। क्योंकि 9 तारीख की घटना पर प्रतिक्रिया देने में मुख्यमंत्री को पूरे 20 दिन लग गए। जबकि घटना उसी देहरादून में हुई, जहां वो रहते हैं। क्या मुख्यमंत्री को यह खबर ही नहीं थी कि राजधानी में एंजेल और उनके छोटे भाई माइकल को बीच बाजार में 'चीनी', 'चिंकी' और 'मोमो' जैसे अपमानजनक शब्द कहकर छेड़ा गया और विरोध करने पर उन्हें इतनी बुरी तरह मारा गया कि उनकी जान ही चली गई। अगर मुख्यमंत्री इस घटना से अनजान थे तो फिर यह माना जा सकता है कि सरकार का सूचना तंत्र बेहद कमजोर है और उन्हें इस पद पर रहने का अधिकार नहीं है। और अगर उन्हें इस नस्लीय हिंसा की जानकारी थी तो फिर इतने दिन चुप्पी क्यों लगाई गई, यह भी विचारणीय है।

राहुल गांधी ने सही लिखा है कि नफरत रातोंरात नहीं पैदा होती। सालों से इसे रोजाना पोषित किया जा रहा है- खासकर हमारी युवा पीढ़ी को- जहरीले कंटेंट और गैरजिम्मेदार बातों से। और सत्ता में बैठी बीजेपी की नफरत उगलने वाली नेतागिरी इसे सामान्य बना रही है। हम प्यार और विविधता का देश हैं। हमें ऐसा मरा हुआ समाज नहीं बनना चाहिए जो अपने साथी भारतीयों पर हमले होते देखकर मुँह फेर ले। हमें सोचना होगा और सामना करना होगा कि हम अपने देश को क्या बनने दे रहे हैं।

वैसे मोदीजी को अगर इस मामले में लीपापोती करनी हो तो वे त्रिपुरा और काशी का नाता बताकर अपना बचाव कर सकते हैं। एंजेल चकमा उनाकोटी के रहने वाले थे, जो त्रिपुरा की रघुनंदन पहाड़ियों में स्थित एक धरोहर स्थल है। उनाकोटी का शाब्दिक अर्थ है एक करोड़ से एक कम, और मान्यता है कि यहां चट्टानों को काटकर बनाई गई शिवजी की लगभग इतनी ही नक्काशीदार मूर्तियां स्थापित हैं।

इन मूर्तियों को 7वीं से 9वीं शताब्दी के बीच बनाया गया है, ऐसा माना जाता है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब भगवान शिव एक करोड़ देवी-देवताओं के साथ काशी जा रहे थे, तो उन्होंने इस स्थान पर रात्रि विश्राम किया था।


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