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वाहियात लड़ाई वाला महत्वपूर्ण चुनाव

दिल्ली को सबसे अच्छी तरह जानने और दिल्ली विधान सभा चुनाव को काफी करीब से जानने के आधार पर कहा जा सकता है कि देश की राजनीति में अपने कद से काफी बड़ा स्थान रखने के बावजूद इतना वाहियात चुनाव प्रचार कहीं नहीं होता

वाहियात लड़ाई वाला महत्वपूर्ण चुनाव
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- अरविन्द मोहन

पुरबिया वोट के मसले पर भाजपा शुरू से बहुत संवेदनशील रही है लेकिन उसने पुरबिया लोगों के लिए कुछ किया नहीं है। संवेदनशीलता की हालत यह है कि कहीं बाहर से लाकर मनोज तिवारी को सर्वेसर्वा बना दिया और इस बार उनका टिकट रिपीट भी किया लेकिन ये सारे फैसले भाजपा के मूल चरित्र और आधार से इतना उलट है।

दिल्ली को सबसे अच्छी तरह जानने और दिल्ली विधान सभा चुनाव को काफी करीब से जानने के आधार पर कहा जा सकता है कि देश की राजनीति में अपने कद से काफी बड़ा स्थान रखने के बावजूद इतना वाहियात चुनाव प्रचार कहीं नहीं होता। बड़े मुद्दे बताते हुए दिल्ली राज्य सरकार के अधिकार और उसकी सीमाओं की चर्चा भी हो सकती है लेकिन यहां दिल्ली का यातायात (खासकर जाम की समस्या), दमघोंटू प्रदूषण, शिक्षा और स्वास्थ्य से लेकर हर मामले में कई-कई स्तर का साफ बंटवारा (और हर दल के नेता और अधिकारियों के एक अलग ही स्तर पर जीने), संसाधनों के दुरुपयोग (जिसमें सबसे ज्यादा नेताओं के प्रचार का खर्च अखरता है), गंदगी के साम्राज्य, अपराधों, की भरमार, बेतहाशा शराबखोरी और महंगाई-बेरोजगारी चुनावी मुद्दा बनते ही नहीं। सत्ता के साथ समृद्धि का केंद्र बनाकर दिल्ली जिस तरह दूरदराज के गरीब इलाकों के बेरोजगार और बीमार लोगों को बसने और इलाज के लिए आकर्षित करती है उसमें यहां कोई व्यवस्थित नीति बने यह चर्चा सिरे से गायब है- जबकि पुरबिया प्रेम अचानक सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन गया है। उसमें जरा सी चूक या मन के तह में बैठे पुरबिया द्वेष के बाहर आते ही बवाल मच जाता है-भाजपा के एक नामी प्रवक्ता तो 'झा जी' को 'झान्टूजी' कहकर शहीद भी हो चुके हैं।

चुनाव के समय अचानक पुरबिया समाज के महत्वपूर्ण होने के मसले की चर्चा से पहले यह देखना जरूरी है कि जैसे ही कोई गंभीर मसला उठता है दोनों प्रमुख पक्ष एक दूसरे को दोषी बताने का नाटक चलाकर चुप्पी साध लेते है। भाजपा शिक्षा का रोना रोएगी तो आप वाले प्रिंसिपल और अध्यापकों की नियुक्ति की फाइल लाट साहब द्वारा रोकने की बात करेगी। अदालत पेड़ कटवाने पर उप राज्यपाल को दोषी बताते हैं तब भी आप के नेताओं को उस पर दबाव बनाने की नहीं सूझती। जबकि वे लगभग रोज उनकी दखलंदाजी की या अधिकारियों द्वारा उनका निर्देश न मानने की शिकायत करते हैं। इस बार तो शक्तियों के बंटवारे का सवाल उठा ही नहीं वरना अभी तक दिल्ली चुनाव में केंद्र बनाम राज्य एक मुद्दा रहा करता था। भाजपा झुग्गी झोपड़ी वालों को मकान देने का आप का वायदा पूरा न होने का आरोप लगाएगी तो आप वाले डीडीए से जमीन न मिलने का बहाना ढूंढ लेते हैं। दंगा, अपराध, प्रदूषण, यमुना सफाई, गंदगी, कूड़े का पहाड़ जैसे हर मुद्दे पर यही खेल चलता है और बात आई गई हो रही है और यह अखरता ज्यादा है क्योंकि चौथी बार आप और भाजपा आमने सामने है तथा सारा जोर भी लगा है पर मुद्दों के मामले में 'खेल' और बिगड़ा है।

27 साल से दिल्ली की सत्ता से बाहर रहने और महाबली नरेंद्र मोदी की सत्ता के ठीक नीचे अरविन्द केजरीवाल का एक अलग तरह की राजनीति शुरू करना और बार बार-बार भाजपा को पटखनी देना मोदी-शाह को जरूर अखरता है लेकिन जिस तरह आप और अरविन्द खड़े रहा करते हैं और दिल्ली से बाहर हर जगह की चुनावी लड़ाई में मोटे तौर पर भाजपा को ही मदद करते रहे हैं उससे भाजपा उनकी मौजूदगी से ज्यादा शिकायत नहीं लगती। पंजाब में जरूर आप की सत्ता हो जाने से अरविन्द को बल मिला है लेकिन वहां कांग्रेस का हारना भाजपा को अच्छा ही लगा है। दिल्ली की लड़ाई भाजपा चुनाव के अलावा भी लगातार लड़ती है लेकिन जिस तरह उसने अपना स्थानीय नेतृत्व खत्म किया है और इस चुनाव में भी साफ कमजोरियां दिखा रही है वह उसके इस डर को भी बताता है कि कहीं कांग्रेस और राहुल गांधी मजबूत न हों जाएं। भाजपा ने शराब नीति के घोटाले और मुख्यमंत्री आवास के मसले पर कुछ 'अति' कर दिया हो लेकिन इन्हें मुद्दा बनाने में वह सफल रही, चुनाव में उस पर जोर न देना समझ नहीं आता। केजरीवाल ने भी इन मुद्दों पर बेशर्मी की हद तक राजनीति की (उन्हें हेमंत सोरेन से सीख लेनी चाहिए थी) लेकिन वे अब इन्हें भुलाने में लगे हैं क्योंकि इनका असर देखकर ही उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ी थी।

पुरबिया वोट के मसले पर भाजपा शुरू से बहुत संवेदनशील रही है लेकिन उसने पुरबिया लोगों के लिए कुछ किया नहीं है। संवेदनशीलता की हालत यह है कि कहीं बाहर से लाकर मनोज तिवारी को सर्वेसर्वा बना दिया और इस बार उनका टिकट रिपीट भी किया लेकिन ये सारे फैसले भाजपा के मूल चरित्र और आधार से इतना उलट हैं कि लाभ करने की जगह नुकसान ही हुआ लगता है। इस बार भी आप के एक दर्जन पुरबिया उम्मीदवारों की जगह उसने मात्र चार या पांच उम्मीदवार उतारे हंै, वह भी कपिल मिश्र को पुरबिया बताकर जबकि उनका पूरब से कोई लेना-देना नहीं है। आप को यह आधार मिला लेकिन यह कांग्रेसी आधार है। इस बार कांग्रेस जोर लगा रही है लेकिन ऐसा कोई बड़ा शिफ्ट होता दिखाई नहीं देता। मुसलमान वोटों के मामले में ऐसा कहना जल्दबाजी होगी पर उसमें बदलाव हो सकता है। खुद कांग्रेस पूरा जोर नहीं लगा रही है। अभी तक राहुल गांधी की सिर्फ एक सभा हुई है और प्रियंका तो मैदान से बाहर ही हैं। कांग्रेस के प्रति दलितों और पिछड़ों में आकर्षण बढ़ा है लेकिन मतदान तक की स्थिति बहुत मेहनत और भरोसे से आती है। फिर दिल्ली की चुनावी राजनीति में जाति उतना बड़ा फैक्टर नहीं होती जितना यूपी-बिहार-राजस्थान या उत्तराखंड में। यहां उसकी तुलना में वर्ग का आधार ज्यादा कारगर है जो काफी कुछ मुहल्लों और चुनाव क्षेत्रों की बसावट से भी जाहिर होता है। स्लम और निम्न-मध्यमवर्गी बस्तियों में पहले कांग्रेस का जोर रहता था और अब आप का।

लेकिन इन सबसे दिल्ली चुनाव का महत्व इतना काम नहीं हो जाता कि कभी सैफ के कथित हमलावर की राष्ट्रीयता तो कभी काटोगे-बांटोगे और कभी भाजपा प्रवक्ता शहजाद पूनावाला जी जुबान फिसलने को केन्द्रीय मुद्दा बना दिया जाए। अभी भी छोटा और सत्ता से कमजोर राज्य होने के बावजूद दिल्ली देश की राजधानी है और उभरते भारत की प्रतिष्ठा इसके साथ जुड़ी है। सत्ताईस साल से सत्ता से दूर रही भाजपा के स्थानीय नेता अगर भूखे भेड़िए सा व्यवहार करते हैं तो बात समझ आती है। नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह के लिए भी काफी कुछ दांव पर लगा है क्योंकि हर्षवर्द्धन जैसे नेता को किनारे करना और भाजपा के पंजाबी, बनिया और ब्राह्मण आधार को झुठलाकर पुरबिया मनोज तिवारी जैसों के हाथ में पतवार देने का फैसला उनका ही रहा है। कांग्रेस का ज्यादा कुछ दांव पर भले न हों पर आप का फिर से जीतना इंडिया गठबंधन की राजनीति को मटियामेट करेगा और संभव है कांग्रेस विरोधी एक तीसरे मोर्चे की राजनीति भी शुरू करा देगा और अरविन्द केजरीवाल तथा आप के लिए तो जीवन-मरण प्रश्न है। उन्हें सिर्फ जीतना ही नहीं है अगर सीटें ज्यादा काम हुईं तब भी भाजपा और मोदी उन्हें जीने नहीं देंगे। बीते पांच साल भी इस बात की गवाही हैं।


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