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विस्फोट के बाद बेतुकी बयानबाजी

10 नवंबर को हुए दिल्ली बम धमाके के बाद देश में फिर डर और संदेह का माहौल बन गया है

विस्फोट के बाद बेतुकी बयानबाजी
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10 नवंबर को हुए दिल्ली बम धमाके के बाद देश में फिर डर और संदेह का माहौल बन गया है। जिस देश में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, यहूदी सब मिलजुल कर रहें, उसे तोड़ना मुश्किल होता है। इसके लिए जरूरी है कि देश में भीतरी दरारें बनाई जाएं, यह काम दो तरीकों से हो सकता है। पहला डर का माहौल और दूसरा परस्पर भरोसे को तोड़ना। इस समय देश में यही हो रहा है। हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होता है, जैसे वाक्यों के जरिए बड़ी चालाकी से आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ने की कोशिशें बरसों से हो रही हैं। दाढ़ी, जालीदार टोपी, बुर्का ये सब संदेह के घेरे में डाल दिए गए हैं। याद पड़ता है कि कोरोना काल में एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने कोरोना को आतंकवाद की तरह खतरनाक बताते हुए कार्टून प्रकाशित किया था, तो वायरस के मानवीकरण चित्रण में उसे पायजामे, जालीदार टोपी में दिखाया गया था। इसकी खूब निंदा भी हुई थी। लेकिन यह असल में समाज में भीतर तक पैठ चुकी सोच का सबूत है।

जब पहलगाम हमला हुआ था, तो आतंकियों ने धर्म पूछकर मारा यह बात चर्चा में आई थी। क्योंकि आतंकवादी भी जानते हैं कि इस तरह हम भारत के लोगों में आसानी से फूट डलवा सकते हैं। अभी दिल्ली धमाके से पहले ही फरीदाबाद में जब बड़ी मात्रा में विस्फोटक मिली तो भाजपा सांसद गिरिराज सिंह का बयान था कि जो लोग कहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि जितने आतंकी पकड़े गए सभी मुसलमान ही क्यों हैं? इस पर जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा भी है कि गांधी जी को किसने मारा? इंदिरा जी को किसने मारा? राजीव गांधी जी को किसने मारा? गिरिराज जी के जवाब के बाद हम बात करेंगे।

सुश्री मुफ्ती का तर्क बिल्कुल वाजिब है, क्योंकि भारत ही नहीं विश्व के अधिकतर देश आतंकवाद का दंश किसी न किसी तरह झेल रहे हैं या झेल चुके हैं और आतंक फैलाने वाले लोग किसी भी मज़हब या पंथ के हो सकते हैं। जो लोग आतंकवाद को धर्म से जोड़ते हैं, वे असल में आतंकवाद पर पर्दा डालने का कम करते हैं, जो गंभीर अपराध की तरह देखा जाना चाहिए। क्योंकि इसमें आतंकवादियों को बचाकर सारा ध्यान बंटाया जाता है। गिरिराज सिंह पहले भी राजनैतिक फायदे के लिए बार-बार अपने विरोधियों को पाकिस्तान जाने की नसीहत देते रहे हैं। हमें नहीं पता कि उनकी अपनी पार्टी के मुस्लिमों को ये बातें कैसी लगती हैं। हो सकता है वे भी राजनैतिक मजबूरी के कारण चुप रहते हों। लेकिन देश का हित राजनैतिक लाभ-हानि से सर्वोपरि है, यह बात उन्हें भी समझनी चाहिए।

भाजपा में केवल गिरिराज सिंह ही नहीं हिमंता बिस्वासरमा जैसे नेता भी हैं, जो शिक्षित और अतिवादी होने में फर्क नहीं कर पा रहे। दिल्ली विस्फोट पर बोलते हुए असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा, 'हमें सिखाया गया था कि अगर लोग शिक्षित होंगे, तो कोई अतिवाद नहीं रहेगा। लेकिन आपने देखा कि शिक्षा उन्हें और खतरनाक बनाती है। डॉक्टर बनना उन्हें और भी खतरनाक बनाता है। एक व्यक्ति कभी अपना रंग नहीं बदलता। जो लोग वंदे मातरम नहीं गा सकते, वे भारतीय नहीं हो सकते। अगर आप भारतीय नहीं हो सकते, तो आप भारत माता को कभी अपनी मां नहीं मान सकते। इसलिए, हमें लगातार सतर्क रहने की ज़रूरत है।'

अपनी राजनैतिक सहूलियत से श्री बिस्वासरमा ने दिल्ली धमाके और वंदे मातरम को आपस में जोड़ दिया, जबकि इसकी कोई तुक नहीं है। दिल्ली आतंकी हमले में डॉ.मोहम्मद उमर को मुख्य आरोपी माना जा रहा है। लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं है कि आरोपी ने उच्च शिक्षा हासिल की, इसलिए वो अधिक खतरनाक बन गया। चरमपंथ में अक्सर लोगों का ब्रेनवॉश यानी उन्हें मानसिक तौर पर पूरी तरह प्रभावित कर बड़ी घटनाओं को अंजाम देने के लिए तैयार किया जाता है। ऐसे लोग अनपढ़, गरीब भी हो सकते हैं और उच्च शिक्षित और संपन्न भी। हिमंता बिस्वासरमा ये बात अच्छे से जानते होंगे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद जैसे अतिवादी हिंदू संगठनों में कई उच्चशिक्षित बल्कि पेशे से चिकित्सक शामिल हैं। डा. मोहन भागवत, डा. प्रवीण तोगड़िया, डा. माया कोडनानी ऐसे कई नाम गिनाए जा सकते हैं, जो हिंदुत्व के पैरोकार हैं। तो क्या हिमंता बिस्वासरमा इन्हें भी अतिवादी मानेंगे या इनके लिए उनके मानक कुछ और होंगे।

शिक्षा को आतंकवाद और चरमपंथ से जोड़ना और यह कहना कि शिक्षा खतरनाक बनाती है, असल में पूरे समाज को मध्ययुग की तरफ धकेलने जैसी बात है। सामान्य आदमी इस तरह की बात करे तो उसे समझाया जा सकता है, लेकिन मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठकर ऐसी बेतुकी बातें करना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। भाजपा नेता और पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी ने भी कहा कि... हमें इन गद्दारों की पहचान करनी होगी। वे देश में पढ़ते हैं, सारे लाभ लेते हैं और फिर देश छोड़ देते हैं, इन गद्दारों की पहचान करना हमारी ज़िम्मेदारी है।

इस तरह के बयान संदेह पैदा करने में मदद करते हैं। क्योंकि अब अल्पसंख्यकों या पड़ोसी देशों से पढ़ने आए छात्रों को कदम-कदम पर अपनी वफादारी की मिसाल देनी पड़ेगी। वैसे भी इस पूरे प्रकरण में अल-फ़लाह विश्वविद्यालय का नाम जिस तरह आया है, उससे संस्थान पर संकट आ गया है। जानकारी है कि इस हमले का मुख्य आरोपी डा.मोहम्मद उमर विस्फोट में मारा गया है, लेकिन उसका और एक अन्य डॉक्टर का संबंध फरीदाबाद में मिले विस्फोटक से जोड़ा जा रहा है। ये दोनों अल-फ़लाह विश्वविद्यालय में ही कार्यरत थे। अल-फ़लाह विश्वविद्यालय की कु लपति प्रो. (डॉ.) भूपिंदर कौर आनंद ने एक बयान में कहा, विश्वविद्यालय का 'इन व्यरिक्तयों से कोई संबंध नहीं है, सिवाय इसके कि वे विश्वविद्यालय में अपनी आधिकारिक क्षमता में कार्यरत थे।' विश्वविद्यालय ने ऑनलाइन प्रसारित हो रही 'निराधार और भ्रामक कहानियों' की निंदा करते हुए कहा कि इनका उद्देश्य उसकी प्रतिष्ठा और साख को धूमिल करना है।

सोचने वाली बात है कि दो लोगों के कारण पूरे विश्वविद्यालय को संदेह की नजर से देखकर कितने लोगों के साथ अन्याय किया जा रहा है। दरअसल यह वक्त तमाम तरह की बयानबाजियों से परहेज करने का है। जांच एजेंसियां अपना काम करें और दोषियों को पकड़ें, यही देश के हित में है।


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