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क्रियान्वयन के 19 वर्षों के बाद आरटीआई अधिनियम के रिकॉर्ड पर एक नजर

आम तौर पर,सार्वजनिक अभिलेखों में अधिकांश जानकारी सार्वजनिक गतिविधि से उत्पन्न होती है

क्रियान्वयन के 19 वर्षों के बाद आरटीआई अधिनियम के रिकॉर्ड पर एक नजर
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- शैलेश गांधी

आम तौर पर,सार्वजनिक अभिलेखों में अधिकांश जानकारी सार्वजनिक गतिविधि से उत्पन्न होती है। जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) को यह तय करना होता है कि क्या यह निजता का उल्लंघन है। निजता का संबंध घर के भीतर के मामलों, व्यक्ति के शरीर, यौन वरीयताओं आदि से है। यह संविधान के अनुच्छेद 19(2) के अनुरूप है।

सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम ने 12 अक्टूबर, 2024 को 19 वर्ष पूरे कर लिये। जब इसे पहली बार लागू किया गया था, तो इसने नागरिकों में बहुत उत्साह पैदा किया था, जिन्होंने अपनी सरकार से जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने की संभावना देखी थी।

हम भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं, लेकिन इसका आम नागरिकों के लिए कल्याण और सुशासन में परिवर्तन अभी तक नहीं हुआ है। लोकतंत्र को 'लोगों द्वारा लोगों के लिए लोगों का शासन' के रूप में परिभाषित किया जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि जब कोई आम नागरिक किसी सरकारी कार्यालय में जाता है, तो वह अक्सर आहत, अपमानित और निराश महसूस करता है।

पहली बार, हमारे पास ऐसा कानून था जो व्यक्तिगत नागरिक की संप्रभुता को मान्यता देता था और नागरिक की सरकार और सभी लोक सेवकों पर सर्वोच्चता को भी स्वीकार करता था।

इसने इस तथ्य को भी मान्यता दी कि सरकार के पास नागरिकों की ओर से सभी जानकारी होती है। सशक्त नागरिक अपनी शिकायतों के निवारण और भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल करते थे।

आरटीआई अधिनियम में ऐसी सूचनाओं की सूची नहीं है, जिन्हें नागरिक प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि इसमें ऐसी सूचनाओं की एक छोटी नकारात्मक सूची है, जिन्हें नागरिक को देने से मना किया जा सकता है। बाकी सभी सूचनाओं को नागरिकों के साथ साझा किया जाना था।

यह दुनिया के सबसे बेहतरीन पारदर्शिता कानूनों में से एक था, लेकिन यह वायदा किये गये परिणाम और बेहतर शासन नहीं दे रहा है, क्योंकि विभिन्न उपाय और उन्हें लागू करने वाले अनेक अधिकारी कानून का पालन नहीं कर रहे हैं, बल्कि इसे विकृत कर रहे हैं।

यह अधिनियम मानता है कि सभी मौजूदा सूचनाएं किसी नागरिक को मांगे जाने पर दी जानी चाहिए और अगर कोई लोक सेवक बिना उचित कारण के 30 दिनों के भीतर सूचना देने से मना करता है, तो उस पर व्यक्तिगत जुर्माना लगाया जा सकता है।

असंतुष्ट नागरिकों के लिए, यह विभाग के भीतर एक वरिष्ठ अधिकारी के पास अपील करने का प्रावधान करता है और यदि यह संतोषजनक नहीं है, तो कानून सूचना आयोग के रूप में एक दूसरा अपीलीय प्राधिकरण बनाता है। इसने आयोगों को अपने आदेशों को लागू करवाने के लिए पर्याप्त अधिकार दिये।
सूचना आयुक्तों का चयन प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और केंद्रीय आयोग के लिए एक अन्य मंत्री और राज्य आयोगों के लिए मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता और एक अन्य मंत्री वाली समिति द्वारा किया जाना था।

यह आरटीआई अधिनियम की कमजोर कड़ी बन गयी। आयुक्तों का चयन बिना किसी पारदर्शी प्रक्रिया के किया गया और, ज्यादातर मामलों में, पद ऐसे लोगों को दिये गये जो नौकरशाही और राजनीतिक नेटवर्क में काम कर सकते थे। नतीजतन, बड़ी संख्या में ऐसे आयुक्तों का चयन किया गया, जिन्हें न तो पारदर्शिता के प्रति कोई झुकाव था और न ही इसके प्रति कोई प्रेम। उनमें से कई ने इन पदों को सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरी या सेवा में रहते हुए किए गये उपकारों के पुरस्कार के रूप में देखा।

वे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) से उत्पन्न होने वाले मौलिक अधिकार के रूप में सूचना के अधिकार के महत्व को नहीं पहचानते या समझते थे। कानून में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि सूचना मांगने के लिए कोई कारण बताने की आवश्यकता नहीं है।
आयुक्तों और न्यायालयों ने आवेदकों से यह पूछना शुरू कर दिया कि वे सूचना क्यों चाहते हैं। यदि उत्तर उन्हें संतुष्ट नहीं करता, तो वे आवेदकों को सूचना देने से इनकार कर देते हैं।

यह इस तथ्य से और भी बढ़ गया है कि देश में कई आयुक्त किसी भी गंभीरता से काम नहीं करते हैं। उनमें से कई सप्ताह में 40 घंटे भी काम नहीं करते हैं। अधिकांश मामलों में मामलों का निपटारा बिल्कुल अस्वीकार्य है।

कई आयुक्त एक महीने में 50 से 100 मामलों का निपटारा करते हैं। उन्हें प्रति माह लगभग 400 से 500 मामलों का निपटारा करना चाहिए, जैसा कि कुछ करते हैं। एक बेंचमार्क के रूप में, मैं उल्लेख कर सकता हूं कि भारतीय उच्च न्यायालयों में मामलों का औसत निपटान, जो अधिक जटिल हैं, प्रति माह 200 मामलों से अधिक है।
सूचना आयोगों में लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ रही है और आयोगों में आरटीआई मामलों में छह महीने से चार साल तक की देरी हो रही है। नागरिकों की कानून को लागू करने में रुचि कम हो रही है और लोक सेवक कानून में उल्लिखित अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने लगे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि नागरिकों का कानून में विश्वास खत्म हो रहा है।

आरटीआई को एक और बड़ा झटका आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(जे) की घोर गलत व्याख्या है। इस धारा का उद्देश्य ऐसी सूचना को छूट देना था जो किसी व्यक्ति की निजता पर आक्रमण करती हो।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि निजता को परिभाषित करना कठिन हो सकता है, भारतीय संसद ने इस धारा को सावधानीपूर्वक और कुशलता से तैयार किया था।
यह धारा 'ऐसी सूचना को छूट देती है जो व्यक्तिगत सूचना से संबंधित है, जिसके प्रकटीकरण का किसी सार्वजनिक गतिविधि या हित से कोई संबंध नहीं है, या जो व्यक्ति की निजता पर अनुचित आक्रमण करेगी जब तक कि केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी या अपीलीय प्राधिकारी, जैसा भी मामला हो, संतुष्ट न हो कि व्यापक सार्वजनिक हित ऐसी सूचना के प्रकटीकरण को उचित ठहराता है।

'बशर्ते कि वह सूचना, जिसे संसद या राज्य विधानमंडल को देने से इनकार नहीं किया जा सकता है, किसी भी व्यक्ति को देने से इनकार नहीं किया जायेगा।'
आम तौर पर,सार्वजनिक अभिलेखों में अधिकांश जानकारी सार्वजनिक गतिविधि से उत्पन्न होती है। जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) को यह तय करना होता है कि क्या यह निजता का उल्लंघन है। निजता का संबंध घर के भीतर के मामलों, व्यक्ति के शरीर, यौन वरीयताओं आदि से है।

यह संविधान के अनुच्छेद 19(2) के अनुरूप है। फिर पीआईओ को अपना व्यक्तिपरक निष्कर्ष दर्ज करना चाहिए कि वह संसद या राज्य विधानसभा को मांगी गयी जानकारी नहीं देगा।

दुर्भाग्य से कई लोक सेवक, आयुक्त और अदालतें केवल यह कहकर सूचना देने से इनकार कर देती हैं कि यह व्यक्तिगत जानकारी है। यह कानून या संविधान के अनुरूप नहीं है। यह अनुच्छेद 19 (1)(ए) के तहत नागरिकों के मौलिक अधिकारों के लिए एक बड़ा नुकसान हो सकता है।
नागरिकों और मीडिया को सूचना के अपने अधिकार की रक्षा करनी चाहिए, ऐसा न करने पर आरटीआई अधिनियम सूचना देने से इनकार करने के अधिकार में बदल जायेगा।


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