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बंगाल चुनाव से पहले सांप्रदायिकता की खुराक

अग्निहोत्री की पहले की फिल्मों की तरह ही ये फिल्म भी वर्तमान की किसी घटना के साथ इतिहास के संदर्भ को जोड़ते हुए आगे बढ़ती है।

बंगाल चुनाव से पहले सांप्रदायिकता की खुराक
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ताशकंद फाइल्स और कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों के कारण विवादों में रहने वाले फिल्म निर्माता निर्देशक विवेक अग्निहोत्री अपनी नयी फिल्म बंगाल फाइल्स के कारण फिर चर्चा में हैं। श्री अग्निहोत्री की पहले की फिल्मों की तरह ही ये फिल्म भी वर्तमान की किसी घटना के साथ इतिहास के संदर्भ को जोड़ते हुए आगे बढ़ती है। हर बार की तरह इस बार भी बड़ी मासूमियत के साथ सांप्रदायिकता की नयी खुराक दर्शकों को पिलाने की कोशिश की गई है। हालांकि कुछ वक्त पहले ही इसी तरह की एक और फिल्म उदयपुर फाइल्स को दर्शकों ने नकार दिया था। जबकि उसके निर्माता-निर्देशक ने भी फिल्म के प्रचार में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। उदयपुर में कन्हैयालाल नाम के दर्जी की नृशंस हत्या पर फिल्म बनाई गई थी, इसलिए उनके बेटों को सिनेमा हॉल में बिठाकर उनकी रोते हुई तस्वीरें और वीडियो भी सामने आए। लेकिन फिर भी फिल्म नहीं चली। कुछ ऐसा ही हाल बंगाल फाइल्स का भी रहा। पांच सितंबर को जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो खास कलेक्शन नहीं आया, लेकिन इसके बाद सोशल मीडिया पर फिल्म के कई दृश्य प्रसारित किए गए और बताया गया कि फलाने दृश्य ने तहलका मचा दिया, ढिकाने दृश्य में गज़ब का अभिनय है। शायद इसी के कारण सप्ताहांत पर फिल्म की कमाई थोड़ी बढ़ी है। जिस तरह कश्मीर फाइल्स बनाकर विवेक अग्निहोत्री विदेशों में सैर सपाटा करते, रील बनाते दिखाई दिए थे, हो सकता है इस बार का मुनाफा भी उनके जीवन में मौज मस्ती के कुछ और आयाम जोड़ दे। आखिर में वे फिल्में समाजसेवा के लिए तो बना नहीं रहे हैं, उनका मकसद कमाई करना है जिसमें वे सफल हो रहे हैं। अब सोचना समाज को है कि इसमें उसे क्या नुकसान हो रहा है।

प.बंगाल में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और भाजपा अब तक जिस काम में सफल नहीं हो पाई है, उसे वो इस बार पूरा करना चाहती है। पहले वाममोर्चे की सरकार थी और भाजपा की कमान अटल जी, आडवानी जी के हाथों में थी, तो प.बंगाल में भाजपा को कोई सफलता नहीं मिली। नरेन्द्र मोदी के आने के बाद भाजपा और संघ को यह खुशफहमी हुई कि जिस तरह मोदी लहर पूरे देश में कामयाब रही, प. बंगाल में भी इस पर सवार होकर भाजपा सत्ता तक पहुंच ही जाएगी। लेकिन ममता बनर्जी के कारण यह संभव नहीं हो पाया। पिछले चुनाव में श्री मोदी ने दीदी ओ दीदी कहकर बंगाल की सभ्यता, संस्कृति सबको चुनौती दी थी, शक्तिपूजक इस समाज को एक महिला मुख्यमंत्री और नेता के लिए यह अशोभनीय संबोधन रास नहीं आया। लिहाजा भाजपा हार गई। हालांकि उसकी ताकत में थोड़ा इजाफा हुआ, क्योंकि अघोषित तरीकों से ममता बनर्जी के करीबियों को भाजपा अपने खेमे में न केवल ले आई, बल्कि उन्हें ऊंचा ओहदा भी दे दिया। अब यही लोग ममता बनर्जी को चुनौती दे रहे हैं। इधर भाजपा ने दूसरे तरीके भी अख्तियार करने शुरु कर दिए हैं। एसआईआर को करवाने की तैयारी हो चुकी है, हालांकि ममता बनर्जी ने जिस तरह विधानसभा में वोट चोरी के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरा है, उसके बाद बिहार की तरह बंगाल में खेल करना थोड़ा कठिन हो सकता है। इसलिए अब भाजपा अपने चिर परिचित पैंतरे सांप्रदायिक नफरत पर उतर आई है।

बीते कई दिनों से बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा भाजपा ने उठा कर रखा है। हालांकि इसमें पहला सवाल गृहमंत्री अमित शाह से ही होता है कि सीमाओं की सुरक्षा आपकी जिम्मेदारी है, फिर किसी भी राज्य में आप घुसपैठियों के लिए विपक्षी दलों पर उंगली किस तरह उठा सकते हैं। लेकिन ऐसे सवालों से बेपरवाह भाजपा बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर कार्रवाई करती जा रही है, जिसमें सबसे ज्यादा असर गरीब तबके के, कामगार अल्पसंख्यकों पर पड़ रहा है। कई जगह तो ऐसे प्रसंग भी आए जिसमें बांग्ला बोलने वालों पर ही शक किया जा रहा है। अब पुलिस प्रशासन की ऐसी क्षुद्र बुद्धि पर तरस खाएं या नाराज हों, जो दूसरे धर्म या भाषाओं को लेकर इतने शक्की हो चुके हैं कि यह भी भूल गए कि बांग्ला इस देश की संविधानसम्मत भाषाओं में से एक है। घुसपैठियों के अलावा दुर्गापूजा को लेकर भी भाजपा का सांप्रदायिक नजरिया सामने आने लगा है।

प.बंगाल में दुर्गापूजा धार्मिक से ज्यादा सांस्कृ तिक महत्व रखती आई है, क्योंकि सारे धर्मों के लोग इसके आयोजन में एक जैसे उत्साह से हिस्सा लेते हैं। लेकिन अब इसमें भी धर्म का भेदभाव दिखने लगा है।

हाल ही में प.बंगाल की उर्दू अकादमी ने कुछ कट्टरपंथियों के दबाव में लोकप्रिय गीतकार जावेद अख्तर का कार्यक्रम रद्द कर दिया। जावेद अख्तर हिंदू और मुस्लिम दोनों तरह के कट्टरपंथियों के लिए एक जैसे विचार रखते हैं, दोनों उनकी नजर में गलत हैं। कुछ मुस्लिम संगठनों ने कहा कि जावेद अख्तर की कुछ टिप्पणियों से समुदाय की धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं। इसके बाद मुशायरे को स्थगित कर दिया गया। राज्य की तरफ से संचालित अकादमी ने स्थगन के लिए कोई आधिकारिक कारण नहीं बताया।

लेकिन इस घटना से समझा जा सकता है कि राज्य में धार्मिक विभेद कितना गहरा और असरकारी होता जा रहा है। ममता बनर्जी के लिए यह चेतावनी ही है कि वे बंगाल की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं को इस तरह नष्ट न होने दें। इस घटना पर अब जावेद अख्तर ने एक्स पर लिखा है कि कोई उन्हें नहीं समझ सकता। उन्होंने लिखा 'नेक आदमी ने मुझे गैर-मुस्लिम समझा और गैर-मुस्लिम यह समझता है कि मैं मुसलमान हूं। शराबी मुझे अल्लाह वाला समझता है और अल्लाह वाला मुझे शराबी समझता है। सुन के इन की बातें मैं हैरान हूं। मैं वह विषय हूं जिसको समझना मुश्किल है। हालांकि कोई मुझे समझना चाहे तो मैं बहुत आसान हूं।

जावेद अख्तर की इन बातों पर विचार करना आज जरूरी है, क्योंकि इसी से सांप्रदायिक सद्भाव को संभाल कर रखा जा सकता है। अर्बन नक्सल कहकर आधुनिक और उदार विचार रखने वाले बुद्धिजीवियों का अपमान करने वाले विवेक अग्निहोत्री जैसे लोग चुनावों के वक्त खास विषयों को एक ही नजरिए से प्रस्तुत कर फिल्में बनाते हैं और भाजपा इन्हें बढ़ावा देती है, क्योंकि आखिर में भाजपा को ही इससे फायदा होता है। कोई आश्चर्य नहीं अगर प्रधानमंत्री मोदी अपनी किसी रैली में बंगाल फाइल्स का प्रचार करते या खुद फिल्म देखते दिखाई पड़ जाएं। फिल्में भी रचनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम ही हैं, लेकिन इसमें परोक्ष रूप से जिन लोगों को निशाना बनाया जा रहा है, उन्हें अब संभलने की जरूरत है।


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