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संसद के लिए काला दिन

जब केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने चुनाव सुधारों पर सरकार की तरफ से पक्ष रखते हुए एक अपशब्द के साथ चुनाव आयोग को जोड़ा।

संसद के लिए काला दिन
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बुधवार को भारत के संसदीय इतिहास में एक और काला अध्याय उस समय जुड़ गया, जब केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने चुनाव सुधारों पर सरकार की तरफ से पक्ष रखते हुए एक अपशब्द के साथ चुनाव आयोग को जोड़ा। हालांकि श्री शाह के बयान से उस शब्द को हटा दिया गया है। मीडिया भी इसकी चर्चा नहीं कर रहा, क्योंकि मामला भाजपा की साख का है। लेकिन इस मामले को न हल्के में लिया जाना चाहिए, न इसे उपेक्षित करना चाहिए। क्योंकि यहां सवाल संसद की मर्यादा का है।

भारत की संसद पर आतंकी हमला, सदन के भीतर नोटों की गड्डी लहराना, बसपा के अल्पसंख्यक सांसद दानिश अली को भाजपा के सांसद रमेश बिधूड़ी का अपशब्द कहना और भाजपा के बाकी सांसदों का उस पर हंसना, नए संसद भवन में दो युवकों द्वारा रंगीन धुआं छोड़ना, ऐसे कुछ प्रकरण हैं, जो गौरवशाली संसदीय इतिहास में दु:स्वप्न की तरह हैं। इन घटनाओं को मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन इनसे सबक लेते हुए आईंदा इन्हें घटने से रोका जा सकता है। लेकिन अफसोस है कि सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी इसमें न केवल नाकाम रही, बल्कि इस बार तो संसद के अपमान के लिए खुद गृहमंत्री ही जिम्मेदार हैं।

अमित शाह ने गुजरात की राजनीति से आगे बढ़कर दिल्ली तक का सफर काफी जल्दी तय किया। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अमित शाह का सियासी कद भी बढ़ा। 2014 में भाजपा का अध्यक्ष पद संभालने के बाद वे 2019 में देश के गृहमंत्री बने और अब इस पद पर सबसे लंबे वक्त बनने वाले व्यक्ति बन चुके हैं। मोदी-शाह की जोड़ी ने भाजपा को सबसे ताकतवर पार्टी बना दिया है। मोदी का चेहरा और शाह की रणनीति भाजपा की जीत का असली कारक बताई जाती है। अमित शाह को तो आधुनिक चाणक्य तक कहा जाता है। हम नहीं जानते कि इस तरह की तुलना मीडिया के प्रचार की वजह से हुई या चापलूसी से, लेकिन कम से कम चाणक्य से गलती की उम्मीद तो न चाटुकारों को होगी, न भाजपा के कार्यकर्ताओं को। इस उम्मीद पर बुधवार को पानी फिर गया, जब विपक्ष को घेरने में अमित शाह ने लोकसभा के भीतर अपशब्द का प्रयोग किया।

राहुल गांधी, गौरव गोगोई जैसे सांसदों ने इसका प्रतिवाद किया तो संभवत: श्री शाह को अपनी गलती समझ आई और उन्होंने आसंदी से कहा कि मैंने अगर कुछ गलत कहा हो तो उसे हटा दीजिए। अच्छी बात है कि श्री शाह ने खुद ही आसंदी से अपने शब्दों को हटाने कह दिया। लेकिन इसमें भी एक किस्म का अहंकार नजर आया, अपनी गलती पर शर्मिंदगी कहीं नहीं दिखी। अगर अमित शाह जानते हैं कि उनकी पार्टी में उन्हें चाणक्य माना जाता है, या उन्हें यह अहसास है कि वे सरकार में कितने शक्तिशाली हैं और गृहमंत्री के तौर पर कितनी अहम जिम्मेदारी निभा रहे हैं, तब उनसे ऐसी चूक नहीं होनी चाहिए थी। चुनाव सुधार जैसे महत्वपूर्ण विषय पर बोलते हुए एक-एक शब्द सोच-समझ कर इस्तेमाल करना चाहिए था। लेकिन भाजपा तो संसद को भी चुनावी मंच की तरह ही उपयोग में लाती है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के लिए रेनकोट पहन कर नहाने जैसी निम्नस्तरीय टिप्पणी कर चुके हैं, राज्यसभा सांसद रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना शूर्पणखा की हंसी से कर चुके हैं। सदन में खड़े होकर बेबुनियाद बातें करना या विपक्ष पर मिथ्या आरोप गढ़ना भी भाजपा की आम रणनीति बन चुकी है। भाजपा को लगता होगा कि इस रणनीति में मर्यादा और नैतिकता के लिए जगह बनाई जाए तो फिर उसका असर कम हो जाएगा। संभवत: इसलिए गंभीर विषयों पर भी हल्केपन के साथ चर्चा की जाती है, जिसमें अपशब्द शामिल हो सकते हैं, इसकी परवाह भी नहीं की जाती।

अमित शाह की टिप्पणी के बाद कई सांसद चिंता जतला रहे हैं कि संसद में ये दिन भी देखना पड़ेगा, ऐसी कल्पना नहीं की थी। यह चिंता वाजिब है और यहीं विपक्ष की जिम्मेदारी पहले से अधिक बढ़ जाती है कि अब वो भाजपा को संसद को अपने राजनैतिक हितों का जरिया बनाने से रोके। देश के मीडिया को भी इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा। भाजपा के एजेंडे के अनुरूप टीवी चैनलों पर जब से हिंदू-मुस्लिम बहसों को बढ़ावा दिया गया, स्टूडियो का माहौल बिगड़ चुका है। अब केवल चीखने-चिल्लाने कर ये बहसें सीमित नहीं हैं, बल्कि खुलकर अपशब्दों का इस्तेमाल और हाथापाई तक होने लगी है। समाज पर ऐसी बहसें किस तरह का असर करती हैं, पहले इसकी चिंता थी। अब यही चिंता संसद की कार्रवाई पर होने लगी है। इसलिए अमित शाह द्वारा अपशब्द के इस्तेमाल पर गहन-गंभीर विमर्श होने चाहिए कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों बनी और इसका निराकरण कैसे हो सकता है।

फज़र् कीजिए कि अगर विपक्ष के किसी सांसद की तरफ से ऐसा होता तो भाजपा इस मामले पर कितना बवाल खड़ा करती। राहुल गांधी ने एक बार अपनी बहन प्रियंका गांधी के गाल स्नेह से खींच दिए थे, तो ओम बिड़ला ने फौरन उन्हें टोकते हुए सदन की मर्यादा बनाए रखने की नसीहत दी थी। क्या ऐसी ही नसीहत अमित शाह को भी फौरन नहीं मिलनी चाहिए थी।

संसद में पक्ष-विपक्ष के बीच तीखी बहसें हों, एक-दूसरे की कमियों को भरपूर गिनाया जाए, आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाएं, लेकिन इन सबके बीच संसद की गरिमा हर हाल में कायम रहे, यह जिम्मेदारी हरेक सांसद की है। हर सांसद यह तथ्य याद रखे कि उसे देश की सबसे बड़ी पंचायत में लाखों लोगों ने अपनी आवाज उठाने की उम्मीदों के साथ भेजा है। संसद की हरेक मिनट की कार्रवाई सुचारु चले इसके लिए जनता अपनी कमाई माननीयों पर खर्च करती है। उनके लिए तमाम तरह की रियायतें देकर खुद कष्ट उठाती है। इसके बाद अगर वहां काम करने की जगह अगर अपशब्द सुनने मिलें तो यह लोक और लोकतंत्र दोनों के साथ धोखा है।



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