उन्मादी कठपुतलियों का देश
शिवजी का एक नाम पशुपतिनाथ भी है। यानी वे समस्त प्राणियों के नाथ हैं, फिर कांवड़ यात्रा के दौरान शोर से, भीड़ से जिन मूक पशुओं को कष्ट भोगना पड़ता है, क्या उनसे पशुपतिनाथ प्रसन्न होंगे

- सर्वमित्रा सुरजन
शिवजी का एक नाम पशुपतिनाथ भी है। यानी वे समस्त प्राणियों के नाथ हैं, फिर कांवड़ यात्रा के दौरान शोर से, भीड़ से जिन मूक पशुओं को कष्ट भोगना पड़ता है, क्या उनसे पशुपतिनाथ प्रसन्न होंगे। सबसे बड़ी बात तो यह कि शिवजी दूसरों को कष्ट से बचाने के लिए खुद जहर पीने का उदाहरण प्रस्तुत कर चुके हैं, फिर उनकी भक्ति के नाम पर दूसरों को कष्ट क्यों दिया जा रहा है। कांवड़ यात्रा शांति से भी निकाली जा सकती है।
ककविवर भवानी प्रसाद मिश्र की कविता है कठपुतली, जिसमें कवि कहते हैं-
कठपुतली, गुस्से से उबली
बोली— ये धागे, क्यों हैं मेरे पीछे-आगे ?
तब तक दूसरी कठपुतलियां
बोलीं कि- हां हां हां, क्यों हैं ये धागे
हमारे पीछे- आगे?
हमें अपने पांवों पर छोड़ दो, इन सारे धागों को तोड़ दो!
बेचारा बाज़ीगर, हक्का - बक्का रह गया सुनकर
फिर सोचा अगर डर गया
तो ये भी मर गईं, मैं भी मर गया
और उसने बिना कुछ परवाह किए, •ाोर -•ाोर धागे खींचे
उन्हें नचाया!
कठपुतलियों की भी समझ में आया
कि हम तो कोरे काठ की हैं, जब तक धागे हैं, बाज़ीगर है
तब तक ठाट की हैं, और हमें ठाट में रहना है
याने कोरे काठ की रहना है।
इसी कविता का एक दूसरा स्वरूप एनसीईआरटी की कक्षा सात की हिंदी पुस्तक में है, जिसमें एक कठपुतली के गुस्से पर, बाकी कठपुतलियां भी कहती हैं कि हां, बहुत दिन हुए, हमें अपने मन के छंद छुए, तो पहली कठपुतली सोचने लगती है कि ये कैसी इच्छा मेरे मन में जगी।
दोनों ही प्रकारों में आखिरकार कठपुतलियों को ये मानना पड़ता है कि दूसरों के इशारे पर नाचना ही उनकी नियति है। कठपुतलियां दूर से भले कितनी भी सुंदर और आकर्षक दिखे, उनका सारा अस्तित्व उन धागों से ही है, जो बाजीगर के हाथ में बंधी हैं। कठपुतलियों की तरह अब इस देश की जनता भी ऐसे ही किसी और के धागे में बंधी रस्सियों के सहारे अपने अस्तित्व को निर्भर करती जा रही है। हमारा राष्ट्रगान जन गण मन को भारत का भाग्य विधाता कहता है। लेकिन ये कैसा भाग्यविधान हम रच रहे हैं, जिसमें उन्माद ही उन्माद नजर आ रहा है। सड़क से लेकर सिनेमाघरों तक फिलहाल इस उन्माद के नजारे देखे जा सकते हैं।
एक फिल्म आई है सैयारा, जिसने प्रदर्शन के चार दिनों के भीतर ही 84 करोड़ का कारोबार कर लिया है। जिन लोगों ने फिल्म देखी है, उनके मुताबिक एक लंबे अरसे के बाद कोई अच्छी प्रेमकथा बड़े परदे पर देखने मिली है, दोनों नए कलाकारों ने अच्छा अभिनय किया है और इसके गीत भी अच्छे हैं। यानी मनोरंजन के लिहाज से फिल्म अच्छी है, इसलिए लोग इसे पसंद कर रहे हैं। मगर सोशल मीडिया पर कई ऐसे वीडियो आ रहे हैं, जिनमें इस फिल्म को देखते हुए रोते, बिलखते, उछलते, एक-दूसरे से गले लगते युवा नजर आ रहे हैं। मनोविज्ञान में इसे एक मनोविकार मास हिस्टीरिया कहते हैं, जो एक ऐसी सामाजिक घटना है जिसमें एक समूह के लोग बिना किसी पहचाने जाने योग्य शारीरिक कारण के समान लक्षण प्रदर्शित करने लगते हैं। सैयारा से पहले एक और फिल्म आई थी छावा, उसे देखकर भी सिनेमा हॉल के भीतर मुसलमानों और मुगल शासन के खिलाफ दर्शक नारेबाजी करते और उन्माद में चीखते दिखे थे। फर्क इतना ही है कि छावा में नफरती उन्माद की लहर थी, सैयारा से रुमानी भावुकता का उन्माद फैल रहा है।
ऐसा नहीं है कि सैयारा जैसी प्रेमकथा को देखकर पहली बार ऐसा पागलपन हुआ है। 1981 में कुमार गौरव, विजेयता पंडित की लव स्टोरी और कमल हासन, रति अग्निहोत्री की एक दूजे के लिए, ये दो प्रेमकथाओं वाली फिल्में आई थीं और दोनों को देखकर युवाओं की दीवानगी बढ़ी थी। लेकिन वो दौर सोशल मीडिया का नहीं था, इसलिए तब खबरें प्रकाश से भी तेज गति से नहीं पहुंचती थीं। उस वक्त समाज का माहौल भी काफी अलग था। भावनाओं की ऐसी मुखर अभिव्यक्तियां नहीं होती थीं, जो अब सहज हो जाया करती हैं।
बहरहाल, सैयारा को लेकर यह दीवानगी कब तक चलेगी, कहा नहीं जा सकता। इससे प्रभावित युवा व्यक्तिगत तौर पर अपनी ऊर्जा या वक्त को कितना बर्बाद करते हैं, यह उनका निजी मसला है, लेकिन इससे व्यापक रूप से समाज को कोई नुकसान नहीं हो रहा है। मगर जो दूसरे किस्म का उन्माद सड़कों पर फैलता जा रहा है, वह बेहद चिंताजनक है। यह उन्माद धर्म के नाम पर फैला है और सालों साल फैलता ही जा रहा है।
11 जुलाई से सावन महीने की शुरुआत के साथ ही प्रारंभ हुई कांवड़ यात्रा बुधवार 23 जुलाई को महाशिवरात्रि पर खत्म हो गई। धार्मिक नजरिए से देखें तो यह व्यक्ति को अनुशासित करने की यात्रा है, जिसमें कड़े नियमों से बंधकर भक्त कंधे पर कांवड़ लेकर नंगे पांव चलते हैं। कई धर्मों में खुद को कष्ट देकर पुण्य कमाने के तरीके बताए गए हैं। यह भी उसी का एक प्रकार है। लेकिन भाजपा और आरएसएस ने इस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की अपनी सनक में कांवड़ यात्रा का राजनीतिकरण कर दिया है। अब कांवड़ यात्राओं में केवल भक्तों को कष्ट नहीं उठाना पड़ता, जो लोग इस यात्रा का हिस्सा नहीं बनते हैं, वे भी कष्ट भोगने के लिए अभिशप्त कर दिए गए हैं। कांवड़ यात्रा निकालने के लिए सड़कें जाम की जाती हैं, वाहनों के मार्ग बदले जाते हैं, पुलिस प्रशासन को कांवड़ियों की सेवा में लगा दिया जाता है और इससे भी राजनैतिक लाभ मिलने में कमी रह जाए तो सरकारें खुद सेवा के लिए आगे आ जाती हैं। हमने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को कांवड़ियों पर फूल बरसाते और दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता को कांवड़ियों को भोजन परोसते देखा है। अपनी निजी हैसियत में ये लोग चाहे जितने धार्मिक कर्मकांड करें, लेकिन जब वे सरकार चलाने के लिए गद्दी पर बैठे हैं, तो इनकी पहली प्राथमिकता क्या होना चाहिए, ये सवाल जनता को करना चाहिए। मगर जनता कठपुतली बनी देख रही है कि उसके नेता पूजा में व्यस्त हैं। उत्तर प्रदेश में स्कूलों के बंद होने पर बच्चियां रो रही हैं, दिल्ली के कुछ सरकारी स्कूलों में घुटनों तक पानी भरा है, बच्चियां परेशान हैं, लेकिन कठपुतली बन चुकी जनता इस बात पर खुश है कि कांवड़ियों को तकलीफ न हो, इसका इंतजाम सरकार ने किया है। यहां तक भी ठीक है, लेकिन कांवड़ लेकर धार्मिक यात्रा पर निकले कई लोग सड़कों पर गुंडागर्दी करते हैं, तय सीमा से कहीं अधिक आवाज में डीजे बजाकर शोर करते हैं, दुकानदारों से लेकर सरकारी ड्यूटी पर तैनात लोगों से मारपीट करते हैं, लड़कियों से अभद्रता करते हैं, क्या उसे भी जनता ने सहजता से लेना शुरु कर दिया है। अगर ऐसा है, तो फिर यह न केवल लोकतंत्र के लिए बल्कि हिंदू धर्म के लिए भी बड़ी खतरनाक बात है। ऐसे रवैये से वाकई धर्म खतरे में पड़ते जा रहा है।
जिन शिवजी के नाम पर पूरी कांवड़ यात्रा निकलती है, उनका एक नाम अर्द्धनारीश्वर भी है। स्त्री-पुरुष समानता का अनुपम उदाहरण शिव प्रस्तुत करते हैं। लेकिन क्या कांवड़ यात्रा में स्त्रियां पुरुषों की तरह बेखौफ होकर निकल सकती हैं, यह सोचने वाली बात है। अभी कुछ वीडियो देखने मिले, जिनमें कांवड़ यात्रा के वाहन में शिवजी की झांकी के सामने डीजे पर थिरकती लड़कियां हैं। कहने की जरूरत नहीं कि नृत्य अश्लील किस्म के थे और नजर आ रहा था कि कमाई के लिए लड़कियों को ऐसे नृत्य करने पर मजबूर होना पड़ा है। क्रोध में आकर खुद तांडव करने वाले शिवजी क्या ऐसी भक्ति से प्रसन्न होंगे। शिवजी का एक नाम पशुपतिनाथ भी है। यानी वे समस्त प्राणियों के नाथ हैं, फिर कांवड़ यात्रा के दौरान शोर से, भीड़ से जिन मूक पशुओं को कष्ट भोगना पड़ता है, क्या उनसे पशुपतिनाथ प्रसन्न होंगे। सबसे बड़ी बात तो यह कि शिवजी दूसरों को कष्ट से बचाने के लिए खुद जहर पीने का उदाहरण प्रस्तुत कर चुके हैं, फिर उनकी भक्ति के नाम पर दूसरों को कष्ट क्यों दिया जा रहा है। कांवड़ यात्रा शांति से भी निकाली जा सकती है। भक्त अपने कांवड़ लेकर निर्धारित मार्ग से यात्रा तय करें और सारे अनुष्ठान पूरे कर वापस लौटें। ऐसा सालों साल होता रहा है और हिंदुस्तानी समाज में कभी किसी को इस पर तकलीफ नहीं हुई। लेकिन अब सत्ता के लिए राजनीति धार्मिक उन्माद फैला रही है और लोग अपनी चेतना छोड़ उन्मादी कठपुतलियों में तब्दील हो रहे हैं।


