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बूचड़खाने में बदलती दुनिया?

महात्मा गांधी का अहिंसा का प्रयोग ऐसे समय में हुआ था जब दुनिया हिंसा से पीड़ित थी। अहिंसा के सामूहिक प्रयोग और एक राष्ट्र के नैतिक बल ने दुनिया के सामने एक नायाब उदाहरण देते हुए जीने का एक मार्ग प्रशस्त किया था

बूचड़खाने में बदलती दुनिया?
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- डॉ. संजय सिंह

महात्मा गांधी का अहिंसा का प्रयोग ऐसे समय में हुआ था जब दुनिया हिंसा से पीड़ित थी। अहिंसा के सामूहिक प्रयोग और एक राष्ट्र के नैतिक बल ने दुनिया के सामने एक नायाब उदाहरण देते हुए जीने का एक मार्ग प्रशस्त किया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब दुनिया में उन्माद था तब गांधीजी विपरीत परिस्थिति में सफल अहिंसक प्रयोग करके अन्याय के प्रतिरोध की एक नई कहानी लिख रहे थे। आज स्थिति वैसी ही है।

आज संपूर्ण विश्व एक प्रकार के युद्धकाल से गुजर रहा है। यह स्थिति किसी भी दृष्टि से 'द्वितीय विश्वयुद्ध' से कम नहीं है। यूक्रेन, रूस,फिलिस्तीन, सूडान, ईरान,इजराइल, पाकिस्तान,अफगानिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, इथियोपिया, नाइजीरिया, बुर्किना फासो, माली, यमन, कांगो, भारत, हैती, कैमरून, नाइजर, कोरिया, कोलंबिया, इराक, गाज़ा, मोज़ाम्बिक, चाड, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, चीन, अमेरिका, लीबिया आदि दुनिया के लगभग हर कोने में या तो प्रत्यक्ष युद्ध छिड़ा हुआ है या सीमित संघर्ष। हर जगह आतंकवाद या गृहयुद्ध की स्थिति है।

पिछले वर्ष ही यूक्रेन में 50,000, फिलिस्तीन में 23,000, म्यांमार में 13,000, सूडान में 9,000, इथियोपिया में 8,000 से अधिक लोगों की मौतें हुईं। ये आंकड़े इस साल के बाद और भी भयावह हो चुके हैं। इन संघर्षों में सबसे अधिक मौतें आम नागरिकों की हो रही हैं। यूक्रेन की सेना के 6,000 से अधिक जवानों के शव महीनों से रूस के पास पड़े हैं - ये सब किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भीतर तक झकझोर देने वाली सच्चाई है।

यह दृश्य केवल वीभत्स और अमानवीय ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के पतन का संकेत है। हिंसा में पागल हो चुके राष्ट्र प्रमुखों ने न केवल अपने देश को, बल्कि पूरे विश्व को तबाही की ओर धकेल दिया है। अपने ही देश में लोग शरणार्थी बन गए हैं और लाखों लोग देश छोड़कर भागने को विवश हैं, किन्तु अब यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि कोई देश सुरक्षित नहीं बचा है - कहीं भी शांति नहीं है। समूचा विश्व ही शरणार्थी बन गया है।

'द्वितीय विश्वयुद्ध' के बाद यह पहली बार है कि इतने अधिक देश युद्ध में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं। वैश्विक नेतृत्व पूरी तरह से विफल हो चुका है। अब ऐसा कोई राष्ट्र नहीं बचा जिसकी बात सुनी जाए, जिसकी नैतिक नेतृत्व क्षमता पर भरोसा किया जा सके। कोई व्यापारिक हितों के कारण मौन है, कोई गुप्त रूप से समर्थन दे रहा है, तो कोई राष्ट्रवाद की झूठी भावना जनता में जागृत कर चुनाव जीतने या सत्ता बनाए रखने की चिंता में युद्ध कर रहा है। राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए युद्ध का मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है। इस युद्धोन्माद की महामारी ने पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, सभी दिशाओं को ग्रसित कर लिया है। कोई भी राष्ट्राध्यक्ष, कोई भी सत्ता, इस अंधकार से बाहर निकलने का मार्ग नहीं सुझा पा रही है - न कोई नैतिक साहस दिखा रहा है, न कोई दिशा।

अधिकतर आक्रमण रात को हो रहे हैं। महाभारत के युद्ध में 14वें दिन नियमों का उल्लंघन हुआ और जयद्रथ के वध से क्रोधित कौरवों ने युद्ध के नियम और नैतिकता के विरुद्ध रात को हमला कर दिया। कृष्ण ने युद्ध में घटोत्कच का आह्वान किया, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि रात को आसुरी ताकत बढ़ जाती है। आज सभी देश रात को ही आक्रमण करते हैं, ताकि विध्वंस अधिक हो। यह प्रवृत्ति राक्षसी है। यह नरसंहार और युद्ध देखकर शायद राक्षस भी शरमा जाएं। यह केवल सीमा पर बंदूक और टैंक की लड़ाई नहीं है, बल्कि धरती, आकाश, समुद्र और अंतरिक्ष - हर क्षेत्र में छिड़ी एक जटिल और भयानक जंग है।

इन युद्धों में अब ड्रोन, हाइपरसोनिक मिसाइलें, स्मार्ट बम, साइबर अटैक, स्पेस वैपन जैसे हथियारों का प्रयोग हो रहा है। इजरायल का 'आयरन डोम' हो या अमेरिका का फाइटर जेट, दुनिया अब मशीनों से लड़ा जाने वाला युद्ध देख रही है, जहां इंसानी जान की कीमत सॉफ्टवेयर से तय होती है। दुनिया के कुछ देश अपनी 'जीडीपी' का 30 प्रतिशत हथियारों पर खर्च कर रहे हैं। अमेरिका, रूस, चीन, इजराइल जैसे देश नए हथियार बना रहे हैं, जबकि 'संयुक्त राष्ट्र संघ' और मानवाधिकार संस्थाएं कुछ नहीं कर पा रही हैं।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि परमाणु हथियार, जिन पर रोक होनी चाहिए, उन्हें कुछ देशों के लिए 'सुरक्षा' मान लिया गया है और दूसरों के लिए 'खतरा।' यह दोहरी नीति दुनिया को अंधे युद्ध की ओर धकेल रही है। अमेरिका अपने वाणिज्यिक हितों के लिए दुनिया के कोने-कोने में युद्ध कर रहा है। अपने फायदे के अनुसार वह दुनिया भर के कुछ राष्ट्राध्यक्षों को चुनकर उन्हें अपना मित्र या भोंपू बना चुका है। विश्व मंच पर चीन और रूस जैसे सभी परमाणु शक्तिसंपन्न देश युद्ध के लिए सदैव आतुर दिखाई देते हैं। यही कारण है कि आज के समय में 'नि:शस्त्रीकरण' पूरी दुनिया के लिए अनिवार्य हो गया है।

भारत, जिसकी एक स्वतंत्र और संतुलित पहचान विश्व राजनीति में रही है, उसकी आवाज़ आज कमज़ोर या लगभग अदृश्य हो गई है। यह हर भारतीय के लिए निराशाजनक है। भारत का मौन विश्व शांति की पहल को भी दुर्बल कर रहा है। एक त्रासदी यह भी है कि इन युद्धों के दृश्य अब मीडिया और सोशल मीडिया पर रील बनाकर परोसे जा रहे हैं। लोग युद्ध की वीभत्सता को वीरता समझकर उसका आनंद ले रहे हैं। हिंसा को चेतना में स्थापित करने की यह प्रवृत्ति इस ओर संकेत करती है कि युद्ध अब सामान्य मानवीय व्यवहार बनता जा रहा है। यह सोच मानवता को गहरे संकट की ओर धकेल रही है।

मध्यपूर्व की दो प्रमुख नदियां 'टाइग्रिस' और 'यूफ्रेट्स' जिनके बीच में विकसित हुई मेसोपोटामिया की सभ्यता मानव इतिहास की सबसे प्राचीन और समृद्ध सभ्यताओं में गिनी जाती है, लेकिन आज यह क्षेत्र लगातार युद्ध, बाहरी हस्तक्षेप और प्राकृतिक संसाधनों के शोषण की आग में झुलस रहा है। अमेरिका द्वारा तेल के लालच में इराक को तबाह करना इस विनाशकारी दौर की शुरुआत थी। अब ईरान को लक्ष्य बनाकर परमाणु ठिकानों पर हाइपरसोनिक बम गिराए जा रहे हैं जिससे केवल इंसानी जीवन ही नहीं, इस क्षेत्र की जीवनरेखा- 'टाइग्रिस-यूफ्रेट्स नदी प्रणाली' के भी गंभीर रूप से प्रदूषित होने का खतरा पैदा हो गया है। इससे जल, मछलियां, खेती और पूरे पारिस्थितिक तंत्र पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा। यह केवल एक भू-राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि मानवता और प्रकृति दोनों के लिए संकट की चेतावनी है।

महात्मा गांधी का अहिंसा का प्रयोग ऐसे समय में हुआ था जब दुनिया हिंसा से पीड़ित थी। अहिंसा के सामूहिक प्रयोग और एक राष्ट्र के नैतिक बल ने दुनिया के सामने एक नायाब उदाहरण देते हुए जीने का एक मार्ग प्रशस्त किया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब दुनिया में उन्माद था तब गांधीजी विपरीत परिस्थिति में सफल अहिंसक प्रयोग करके अन्याय के प्रतिरोध की एक नई कहानी लिख रहे थे। आज स्थिति वैसी ही है। जरूरत है, उस ओर आवाज देने की। अहिंसा की शक्ति समूचे विश्व के राष्ट्राध्यक्षों को समझ में आये या न आये, अपने अस्तित्व के लिए आम जनता को आवाज उठाना होगा। अब समय आ गया है कि हम युद्ध पर सवाल उठाएं क्योंकि यह युद्ध किसी एक देश की नहीं, पूरी मानवता की हार है।

(लेखक ' केन्द्रीय गांधी स्मारक निधि ' के सचिव हैं।)


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