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2025 : दिल्ली और विपक्षी एकजुटता

नये साल, 2025 के संबंध में, गुजरता हुआ साल जाते-जाते कुछ महत्वपूर्ण संकेत दे गया है। इनमें प्रमुख चुनावी संकेतों पर नजर डाल ली जाए

2025 : दिल्ली और विपक्षी एकजुटता
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- राजेंद्र शर्मा

इस तमाम पृष्ठïभूमि की थोड़ा विस्तार से याद दिलाने की जरूरत इसलिए पड़ी है कि नये साल के लिए राजनीतिक संकेतों को इस संदर्भ के बिना नहीं पकड़ा जा सकता है। यह संदर्भ, दिल्ली से जुड़े के मामलेे में आए संकेतों को समझने के लिए खासतौर पर जरूरी है। याद रहे कि नये साल में, दो ही महत्वपूर्ण चुनाव होने हैं—साल के पहले महीनों में दिल्ली का चुनाव और साल के मध्य में बिहार का चुनाव।

नये साल, 2025 के संबंध में, गुजरता हुआ साल जाते-जाते कुछ महत्वपूर्ण संकेत दे गया है। इनमें प्रमुख चुनावी संकेतों पर नजर डाल ली जाए। गुजरे हुए साल को किसी भी तरह से क्यों न देखा जाए, इसे देश के स्तर पर भी एक बहुत ही घटनापूर्ण साल कहना पड़ेगा। इस साल, देश में बहुत ही महत्वपूर्ण और दिलचस्प आम चुनाव हुए। बेशक, इन चुनावों के नतीजे में, जैसा कि सभी जानते हैं, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, भाजपा ने लगातार तीसरे बार सरकार बनाई है। लेकिन, यह भी सच किसी से छुपा हुआ नहीं है कि भाजपा की इस जीत में भी हार का एक बारीक स्वर समाया हुआ था। चार सौ पार के नारे के साथ और उसके बल पर संविधान ही बदल डालने के इरादों के साथ चुनाव में उतरी भाजपा, पिछले दो चुनावों में हासिल रहे अपने साधारण बहुमत और पिछले आम चुनाव में मिली 303 सीटों से बहुत पीछे, 240 के आंकड़े पर ही अटकी रह गयी और उसे सरकार बनाने के लिए एक ओर चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम, दूसरी ओर नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड आदि सहयोगी पार्टियों की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा है। एनडीए के अपने सहयोगियों के साथ मिलकर भी सत्ता पक्ष बहुमत के अंाकड़े से मुश्किल से बीस सीटें ज्यादा हासिल कर पाया है।

इसका नतीजा यह हुआ है कि तीसरे कार्यकाल में मोदी की भाजपा के पहले करीब छ: महीने ने सचेत रूप से यह दिखाने की कोशिश करने में ही गुजरे हैं कि वह वाकई एक गठबंधन की सरकार चला रही है। यह बात दूसरी है कि यह कथित गठबंधन की सरकार भी, वास्तविक आचरण में मोदी के दूसरे कार्यकाल से खास अलग नहीं है; तीसरे कार्यकाल में भी कम से कम महत्वपूर्ण निर्णयों के मामले में गठबंधन की कोई भूमिका नहीं है और निर्णयों का अधिकार अब भी सिर्फ मोदी की भाजपा के हाथ में है। हां! दूसरे कार्यकाल से भिन्न, कभी-कभार सत्ताधारी एनडीए की समारोही बैठकें जरूर होने लगी हैं, जिन्हें मोदी के पहले कार्यकाल के बाद भुला ही दिया गया था।

मोदी के दूसरे और तीसरे कार्यकालों के बीच यह अंतर, आम चुनाव में विपक्ष की ताकत में जिस खासी बढ़ोतरी का नतीजा है, वह बेशक मोदी राज की लगभग सभी मोर्चों पर घोर विफलताओं पर और इन विफलताओं की ओर से ध्यान हटाने के लिए, बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता के उसके खुले खेल पर, आम भारतवासियों की नाराजगी का नतीजा है। लेकिन, आम लोगों की इस नाराजगी को एक विकल्प की ओर केंद्रित करने में, व्यापक विपक्षी एकता की उस परिघटना की केंद्रीय भूमिका रही थी, जिसने इंडिया नामक मंच के जरिए रूप ग्रहण किया था। संक्षेप में इस परिघटना ने मोदी नहीं तो कौन के रेहटॉरिकल सवाल का एक कन्विंसिंग जवाब जनता के सामने पेश कर दिया था। मोदी की जगह, इंडिया की सरकार!

बेशक, इंडिया ब्लाक के गठन ने इस आम चुनाव में काफी दूर तक विपक्ष को पड़ने वाले वोट को एकजुट करने के जरिए, सत्ता पक्ष की गिनती की बढ़त को क्षति पहुंचाने का काम किया था। देश के बड़े हिस्से में, औपचारिक रूप से न सही, व्यावहारिक रूप से तो इस चुनाव में सीधे मुकाबले की स्थिति बन ही गयी थी। बहरहाल, इस मंच का प्रभाव विपक्ष के इस पहले ही मौजूद वोट को एक जगह इकठ्ठा करने तक ही सीमित नहीं थी। इससे ज्यादा नहीं तो कम से कम इतने ही महत्वपूर्ण रूप से इसने, विपक्ष की इस एकजुटता के साथ, प्रभावशाली तथा असरदार तरीके साथ, मोदी राज के जनविरोधी चरित्र के संबंध में आम लोगों को कन्विंस करने का भी काम किया था। और इससे बनी जन-भावना का एक महत्वपूर्ण नतीजा यह भी था कि जहां एक के मुकाबले एक उम्मीदवार की स्थिति नहीं भी बन सकी थी, वहां भी जनता ने खुद ही विपक्षी उम्मीदवारों में से इस विरोध की अभिव्याक्ति के लिए सबसे उपयोगी विपक्षी उम्मीदवार को चुन लिया था और विपक्ष के ही बाकी उम्मीदवारों को नकार कर मुकाबला व्यवहार में एक प्रकार से एक के मुकाबले एक उम्मीदवार का बना दिया था।

इस तमाम पृष्ठïभूमि की थोड़ा विस्तार से याद दिलाने की जरूरत इसलिए पड़ी है कि नये साल के लिए राजनीतिक संकेतों को इस संदर्भ के बिना नहीं पकड़ा जा सकता है। यह संदर्भ, दिल्ली से जुड़े के मामलेे में आए संकेतों को समझने के लिए खासतौर पर जरूरी है। याद रहे कि नये साल में, दो ही महत्वपूर्ण चुनाव होने हैं—साल के पहले महीनों में दिल्ली का चुनाव और साल के मध्य में बिहार का चुनाव। दिल्ली के चुनाव के सिलसिले में वैसे तो संकेत, पांच साल पहले के विधानसभाई चुनाव के समीकरणों के कमोबेश ज्यों का त्यों दोहराए जाने के ही हैं। इस बार चुनाव में भी, पांच साल पहले हुए चुनाव की तरह ही न सिर्फ आम आदमी पार्टी विधानसभा में जबर्दस्त बहुमत-प्राप्त पार्टी की हैसियत से चुनाव मैदान में उतर रही है, उसका मुकाबला विधानसभा में इकलौती विपक्षी पार्टी के रूप में भाजपा से तो है ही, इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी भी चुनाव में तीसरा कोना बनाने की कोशिश कर रही है।

लेकिन, 2020 के विधानसभाई चुनाव से यह समानता सिर्फ ऊपरी समानता है और इसके आधार पर पिछली बार के ही नतीजों की एक बार फिर पुनरावृत्ति का अनुमान लगाना, सतही ही कहा जाएगा। जाहिर है कि इन पांच सालों में और खासतौर पिछले करीब एक साल के दौरान, राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण बदलाव तो इंडिया मंच का उदय ही है। हालांकि, यह मंच प्राथमिक रूप से संसदीय चुनाव के लिए ही खड़ा किया गया था और संसदीय चुनाव से ठीक पहले भी और खासतौर पर संसदीय चुनाव के बाद, विधानभाई चुनावों में इस गठबंधन को, मुख्यत: उसकी भाजपा-विरोधी धार के साथ ज्यों का त्यों बनाए रखना संभव भी नहीं हुआ है। संसदीय चुनाव के बाद से विधानसभाई चुनाव के जो दो चक्र गुजरे हैं, उनमें भी इस मामले में रिकार्ड मिला-जुला ही रहा है। जहां पहले चक्र में जहां जम्मू-कश्मीर में एक हद तक इंडिया ब्लाक को बनाए रखा जा सका था, हरियाणा के चुनाव में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच सीटों पर समझौता न होने के चलते, विपक्षी एकता की इस संकल्पना को धक्का लगा था। लेकिन, आम चुनाव के बाद से विधानसभाई चुनावों के दूसरे चक्र में, झारखंड तथा महाराष्टï्र, दोनों में ही कमोबेश इंडिया गठबंधन को बनाए रखा जा सका था।

बहरहाल, दिल्ली के विधानसभाई चुनाव में एकजुट इंडिया ब्लाक के रूप में उतरने की वास्तव में कोई गंभीर कोशिश हुई हो, इसके कोई संकेत नजर नहीं आते हैं। बेशक, इसका कुछ न कुछ संबंध, आम चुनावों के अनुभव से भी है, जिनमें सीटों के तालमेल के तहत, दिल्ली की कुल सात सीटों में से कांग्रेस पार्टी ने तीन और आम आदमी पार्टी ने चार सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ा था और इसके बावजूद भाजपा दिल्ली की सभी सात लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रही थी, जैसे कि वह इससे पहले 2014 के चुनाव में भी सभी सीटें जीतने में कामयाब रही थी। इसलिए, लोकसभा चुनाव से एक सरल सा नतीजा यह निकाला जा सकता था और निकाल लिया गया लगता है कि भाजपा के विरुद्घ कांग्रेस और आप पार्टी के एक साथ आने का, चुनाव में कोई फायदा नहीं है।

भाजपा और उसके सहयोगियों के खिलाफ विपक्षी दलों के चुनाव में एकजुट होने में, इस तरह के सरलीकरण के अलावा वस्तुगत समस्याओं का भी आना स्वाभाविक है। खासतौर पर जहां कोई विपक्षी दल सत्ता में हो, उसके प्रति एंटी-इन्कंबेंसी का कोई भी अन्य भाजपा-विरोधी पार्टी अपने समर्थन आधार यानी वोट को बढ़ाने के लिए उपयोग करना चाहेगी। इसके पीछे यह जायज चिंता भी हो सकती है कि अगर तमाम भाजपा-विरोधी सभी ताकतें सत्ताधारी पार्टी के पीछे लामबंद नजर आती हैं, तो भाजपा को ही एंटी-इन्कम्बेेंसी का फायदा मिल जाएगा। इसके लिए, एक हद तक इन पार्टियों के अलग-अलग चुनाव लड़ने को भी कई बार समझा जा सकता है। लेकिन, अगर ये विपक्षी पार्टियां भाजपा तथा उसके सहयोगियों के खिलाफ अपनी वृहत्तर लड़ाई के परिप्रेक्ष्य को ही भूलकर, अपनी लड़ाई के मुख्य निशाने को ही भूलकर, एक-दूसरे को ही मुख्य निशाना बनाने लगती हैं, तो वे उस भाजपा-विरोधी जन-भावना के ही साथ विश्वासघात कर रही होंगी, जो इंडिया ब्लाक की धुरी है। दुर्भाग्य दिल्ली में कांग्रेस और आप पार्टी के बीच की होड़, इसी मुकाम तक पहुंचती नजर आती है।

कांग्रेस और आप पार्टी के बीच इस तरह के टकराव का, फौरी तौर पर दिल्ली के चुनाव के नतीजों पर हो सकता है कि बहुत ज्यादा असर नहीं पड़े, फिर भी इस प्रकार का टकराव विपक्षी एकता के पक्ष में जनभावना पर जिस तरह की चोट कर सकता है, उसका असर दूर तक दिखाई देगा। इस सिलसिले में यह नहीं भूलना चाहिए कि किस तरह भाजपा, आम चुनाव के नतीजे आने के बाद सेे यह आख्यान गढ़ने की कोशिश में लगी हुई है कि आम चुनाव में उसे लगा धक्का, एक विपर्यय था, जो संविधान आदि के प्रश्नों पर उसके रुख को लेकर विपक्ष द्वारा प्रचारित झूठे आख्यानों का नतीजा था और जनता ने आम चुनाव की अपनी इस गलती को सुधारना शुरू कर दिया है। पहले हरियाणा और अब महाराष्टï्र के चुनाव नतीजों को मोदी राज इसी का सबूत बनाने की कोशिशों में जुटा हुआ है।

इस पृष्ठïभूमि में दिल्ली के चुनाव का भाजपा के लिए भी और विपक्ष के लिए भी, महत्व बहुत बढ़ जाता है। विपक्ष के लिए महत्व में सिर्फ सत्ताधारी आप पार्टी ही नहीं, विपक्षी कांग्रेस के लिए महत्व भी शामिल है। इस सच्चाई की एक स्पष्टï पहचान दिल्ली में वामपंथी पार्टियों की चुनावी कार्यनीति में दिखाई देती है, जिन्होंने सीमित संख्या में सीटों पर एक ब्लाक के रूप में, स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने का फैसला तो लिया है, लेकिन अपने प्रचार में मुख्य निशाना भाजपा पर ही केंद्रित रखा है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अगर इंडिया गठबंधन की भावना के खिलाफ काम करने के आरोप से बचना चाहती हैं, तो उन्हें भाजपा के ही मुख्य निशाना होने की ऐसी ही स्पष्टïता का परिचय देना होगा, ताकि उनकी चुनावी टकराहट से, विपक्षी एकजुटता घायल न हो। इसके विपरीत, उनका एक-दूसरे को ही मुख्य निशाना बनाना, फौरन भी और दूरगामी तरीके से भी, भाजपा की ही मदद करेगा।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


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