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अंग्रेजीयत में फंसे हिंदुस्तान को देखकर डायर और मैकाॅले की आत्मा होगी खुश  :प्रो0 चावला

सामाजिक कार्यकर्ता एवं भारतीय जनता पार्टी की पूर्व सचिव एवं पूर्व स्वास्थ्य मंत्री प्रो0 लक्ष्मीकांता चावला ने कहा है कि देश को अंग्रेजों से ताे मुक्त करा लिया पर अंग्रेजीयत से कब मुक्त होगा

अंग्रेजीयत में फंसे हिंदुस्तान को देखकर डायर और मैकाॅले की आत्मा होगी खुश  :प्रो0 चावला
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चंडीगढ़ । सामाजिक कार्यकर्ता एवं भारतीय जनता पार्टी की पूर्व सचिव एवं पूर्व स्वास्थ्य मंत्री प्रो0 लक्ष्मीकांता चावला ने कहा है कि देश को अंग्रेजों से ताे मुक्त करा लिया पर अंग्रेजीयत से कब मुक्त होगा।

उन्होंने अगस्त क्रांति की वर्षगांठ पर आज अपनी चिंता व्यक्त करते हुये कहा कि देश में वर्ष 1942 में अगस्त क्रांति के साथ ही अंग्रेज भारत छोड़ो की हुंकार गूंज उठने के बाद अंग्रेेजों ने सारे बड़े नेताओं को मुंबई में गिरफ्तार कर लिया गया था । उन्होंने कहा “ मुझे पंजाब तथा केन्द्र सरकार से यह कहना है कि केवल भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की वर्षगांठ न मनाइए क्योंकि यह भी कम चिंता का विषय नहीं है कि अंग्रेजों के जाने के बाद भारत अंग्रेजीयत के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है।

दबंग तथा बेबाक नेता के रूप में अपनी पहचान बना चुकी प्रो0 चावला का कहना है कि सच तो यह है कि इस जाल में फंसाने के लिए अधिकतर देश के नेता, बुद्धिजीवी और सरकारें ही जिम्मेवार हैं। पूरे देश में विशेषकर उत्तर भारत में पान बेचने वाला, मिठाई बेचने वालों, जूते बेचने वाला भी अपनी दुकान का नाम अंग्रेजी में लिखता है क्योंकि सरकारें हिंदुस्तानी भाषाओं को पूरी तरह नकार चुकी हैं। अमीरों के बच्चे उन संस्थाओं में पढ़ते हैं जहां अंग्रेजी बोलना आवश्यक है और हिंदी-पंजाबी बोलने पर दंड भी मिलता है।

उन्होंने कहा कि जितनी नई आवासीय बस्तियां बनाई जा रही हैं शायद ही कहीं हिंदुस्तानी भाषा में किसी का नामपट लगा हो। हिंदी पंजाबी के नाम पर जनता को लड़वााने वाले नेता बहुत बड़ी संख्या में हस्ताक्षर भी अंग्रेजी में करते हैं और सरकारी संस्थानों के नाम भी कभी गमाडा, कहीं इसरो, कहीं एसजीआरडी रखे जाते हैं। अब तो भगत सिंह के नाम पर शहर को भी एसबीएस कहा जाता है भगत सिंह ढूंढना पड़ता है।

उन्होंने पंजाब और भारत की सरकार से आग्रह किया है कि देश को यह संदेश दें कि अतिथि गृहों, होटलों, रेस्टोरेंटों और रिहायशी काॅलोनियों के नाम भारतीय भाषाओं में रखें। आज की हालत तो यह है कि यदि मैकाॅले और डायर कहीं कब्र से उठकर हिंदुस्तान में आ जाएं तो वे पहचान ही नहीं पाएंगे कि जिस हिंदुस्तान से उन्हें निकाला गया था वहां पर उन्हीं की भाषा और संस्कृति का राज है।

अफसोस तो यह है कि स्वतंत्र भारत में अभी हम अंग्रेजों के नाम पर बनी सड़कों को भी अपना नाम नहीं दे सके।



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