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जनगणना को वोट-गणना में मत बदलिए

तेईस मई को गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में बने जनगणना भवन का उद्घाटन किया तो जनगणना के महत्व को लेकर भी काफी अच्छी-अच्छी बातें की

जनगणना को वोट-गणना में मत बदलिए
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- अरविन्द मोहन

सरकार के डरने और जनगणना रोकने का एक और कारण जातिगत जनगणना की मांग हो सकती है। लगभग पूरे विपक्ष ने ही नहीं नवीन पटनायक जैसे 'न्यूट्रल' नेता ने भी इसकी पहल की है। खुद भाजपा को भी बिहार की हवा देखते हुए वहां जातिवार जनगणना का समर्थन करना पड़ा लेकिन वह इसके खिलाफ है। ऐसे लोग काम नहीं हैं जिनको लगता है कि इस बार का चुनाव मण्डल बनाम कमंडल हो सकता है।

तेईस मई को गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में बने जनगणना भवन का उद्घाटन किया तो जनगणना के महत्व को लेकर भी काफी अच्छी-अच्छी बातें की। उसे विकास योजनाओं का आधार बताया और यह भी कहा कि इस बार की जनगणना में कई नई जानकारियां भी जुटाई जाएंगी जो आर्थिक योजनाओं और सरकार के संचालन में महत्वपूर्ण होंगी। उन्होंने कहा तो और भी बहुत कुछ लेकिन सिर्फ यह नहीं बताया कि अगली जनगणना कब होगी। यह सवाल सबके मन में है क्योंकि जनगणना का साल 2021 ही था और दो साल से ज्यादा की देरी होने पर भी कुछ भी साफ नहीं है कि अगली जनगणना कब होगी। पिछले डेढ़ सौ साल से जनगणना आम तौर पर फरवरी में हुआ करती थी-दोनों विश्व-युद्धों के दौरान भी इसे नहीं रोका गया था। सरकार ने सिर्फ एक बार बताया है कि कोरोना के कारण इसे रोका गया था। अब मई के बाद की जानकारी के लिए अगर आप नेट सर्च करते हैं तो आपको जनगणना के नाम पर सिर्फ जातिवार जनगणना की खबरें ही दिखेंगी। इस बीच संयुक्त राष्ट्र जनगणना कोष ने जरूर यह अनुमान जारी करके हंगामा मचाया है कि इस साल मध्य में भारत दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा और हमारी आबादी 142 करोड़ से ऊपर होगी।

सरकार की तरफ से कोरोना को कारण बताया गया लेकिन 2019 तक तो कोरोना कहीं न था और तब तक जनगणना की शुरुआत हो जानी चाहिए थी। बीते हर अवसर पर जनगणना का काम इतना पहले तो शुरू हो ही जाता था। और जिस तरह जनगणना में शामिल जानकारियों की संख्या बढ़ती जा रही है, जनगणना का फार्म बड़ा हो रहा है, उसे भरवाना ज्यादा समय ले रहा है और उसके आंकड़ों का मिलान और विश्लेषण ज्यादा व्यक्त की मांग करते हैं। अमित शाह भी अगर नए तरह की जानकारियों की बात करते हैं तो समय ज्यादा ही लगेगा। इसलिए होना यही चाहिए था कि वक्त पर शुरुआत जरूर हो जानी चाहिए थी। आम तौर पर जनगणना की तैयारी और शुरुआती काम दो-तीन साल पहले शुरू हो जाता था जिसमें कैजुअल कर्मचारियों की भर्ती भी शामिल था। इस बार वह भी कहीं नहीं दिखा। पर जैसे सरकार किसी बहाने का इंतजार कर रही थी। कोरोना ने वह अवसर दे दिया।

अमित शाह ने भी अगर समय की घोषणा नहीं की तो इसका कारण फरवरी और जनगणना का रिश्ता है। चुनाव वैसे तो 2024 के मई में हैं लेकिन वे पहले भी हो सकते हैं। इसलिए अभी जनगणना की तारीख घोषित करना जोखिम का काम है। इस चक्कर में साल भर की और देर हो सकती है। यह बताने में भी कोई हर्ज नहीं है कि दुनिया में भारत के जिन आंकड़ों पर सबसे ज्यादा भरोसा किया जाता है उसमें जनगणना के आंकड़े भी शामिल हैं। अंग्रेजी राज में बनी यह व्यवस्था अपनी निरन्तरता के लिए भी भरोसेमंद बनी हुई है।

ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि यह सरकार भरोसेमंद आंकड़ों से डरी हुई सरकार है। इसने जीडीपी की गणना में छेड़छाड़ कराने से लेकर सारे आंकड़ों को अविश्वसनीय बना दिया है या सांख्यिकी के कुल काम को ही बेकार कर दिया है। जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (जिसके आकड़े भी दुनिया के लिए विश्वसनीय हैं) के राष्ट्रीय उपभोक्ता सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि 2012 की तुलना में 2018 में आम लोगों के उपभोग के स्तर में काफी गिरावट आई है तब सरकार ने इस सर्वे के आंकड़े को जारी नहीं होने दिया। जब ये आंकड़े लीक होकर मीडिया में आ गए तक कुछ समय बाद सरकार ने इन्हें चुपचाप जारी करा दिया। लेकिन हर पांच साल पर होने वाले ऐसे सर्वेक्षण का क्रम रोक दिया गया। अब ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं हो रहा है। ऐसा ही बेरोजगारी संबंधी एनएसएस के आंकड़ों के साथ भी हुआ। जब उसके सर्वेक्षण में बेरोजगारी की दर रिकार्ड छह फीसदी पहुंची बताई गई तो सरकार ने आंकड़ों को रोक लिया जबकि मुख्य आर्थिक सलाहकार इन्हें जारी करने की वकालत करते रहे, फिर जब चुनाव पास आया तब सरकार ने धीरे से इन्हीं आंकड़ों को जारी कर दिया। हर आंकड़े से डरने वाली सरकार जनगणना के आंकड़ों से भी डरे यह स्वाभाविक लगता है।

जनगणना दो चरणों की चीज है-पहले में घर-गणना होती है- बाजापता निशान और नंबर डालकर घर गिने जाते हैं और फिर हर घरवासी का और उसके बाद फुटपाथ पर रहने वालों की गिनती होती है। इससे भूल-चूक का अंदेशा कम हो जाता है। जानकार लोग मानते हैं कि इस बार की जनगणना रोकना कोरोना की जगह राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और सीएए जैसे विवादास्पद प्रावधानों की उलझन के चलते हुआ है। हम जानते हैं कि शाहीन बाग का और उसकी देखादेखी देश भर में जगह-जगह चल रहे आंदोलन से नागरिकता के उलझे सवाल पर सरकारी नजरिए का दोष जाहिर हुआ लेकिन यह भी हुआ कि इस आंदोलन ने भाजपा को हिन्दू-मुसलमान ध्रुवीकरण कराने में मदद की। अब सरकार जनगणना के मत्थे ऐसा ध्रुवीकरण और राजनीतिकरण नहीं चाहती क्योंकि नागरिकता रजिस्टर वाले प्रावधान से एक सामान्य जनगणनाकर्मी भी किसी व्यक्ति, परिवार, मुहल्ले और बस्ती को रजिस्टर से बाहर कर सकता है। नागरिकता का फैसला होने तक उनका भविष्य आधार में लटका होगा। यह एक बड़ा हंगामा पैदा करेगा जिसे संभालना आसान न होगा। यह भी हुआ कि जैसे ही सरकार ने जनगणना के साथ जनसांख्यिकी रजिस्टर और नागरिकता रजिस्टर वाली बात उठाई अनेक राज्यों ने विरोध कर दिया। सरकार इससे भी डर गई।

सरकार के डरने और जनगणना रोकने का एक और कारण जातिगत जनगणना की मांग हो सकती है। लगभग पूरे विपक्ष ने ही नहीं नवीन पटनायक जैसे 'न्यूट्रल' नेता ने भी इसकी पहल की है। खुद भाजपा को भी बिहार की हवा देखते हुए वहां जातिवार जनगणना का समर्थन करना पड़ा लेकिन वह इसके खिलाफ है। ऐसे लोग काम नहीं हैं जिनको लगता है कि इस बार का चुनाव मण्डल बनाम कमंडल हो सकता है जबकि भाजपा जातिगत पहचान उभरने को अपनी राजनीति के खिलाफ मानती है। अब जो बात पिछड़े नेता सिर्फ पिछड़ों के लिए कह रहे हैं उसे पूरे देश और हर तरह के आंकड़ों के संदर्भ में भी सोचा जाना चाहिए क्योंकि जनगणना के आंकड़े नीतियों और योजनाओं को तय करने का आधार बनाते हैं। और अब दस साल में जितनी तेजी से जिंदगी बदल रही है उसका हिसाब रखना बहुत जरूरी है। और सरकार अगर जनगणना रोक रही है या देर कर रही है तो साफ है कि उसकी प्राथमिकताएं ऐसी नहीं हैं। उसने जनगणना को हिन्दू/मुसलमान और नागरिकता देने न देने का सवाल बनाकर अपना राजनैतिक दांव चल दिया है।


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