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एक जोड़ी जूते के नीचे दबा दबदबा

जूतों और मनुष्य समाज का साथ नया नहीं है-होने को तो जब से आदिमानव ने चलना सीखा होगा तभी से पंजों के निचले हिस्से के बचाव के लिए पांवों के नीचे जन्नत का कोई न कोई उपाय आजमाया होगा

एक जोड़ी जूते के नीचे दबा दबदबा
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- बादल सरोज

ओलम्पिक मैडल जीतकर आने वाली अब तक की अकेली महिला कुश्ती खिलाड़ी साक्षी मलिक ने भारत की महिला खिलाडिय़ों की प्रतिनिधि के रूप में टेबल पर रखे अपने जूतों के बिम्ब से तेल और पानी में भीगे जूतों की मार को असरदार बताने वाले मुहावरे को नया रूप दे दिया और बता दिया कि उनसे भी ज्यादा ताकतवर मारकता आंसुओं से भीगे जूतों में होती है। यह भी दिखा दिया कि कुछ जूते हजार जूतों के बराबर होते हैं।

जूतों और मनुष्य समाज का साथ नया नहीं है-होने को तो जब से आदिमानव ने चलना सीखा होगा तभी से पंजों के निचले हिस्से के बचाव के लिए पांवों के नीचे जन्नत का कोई न कोई उपाय आजमाया होगा। मानव इतिहास के खोजियों की मानें तो सबसे पुराने जूते कोई पांच से साढ़े पांच हजार साल पहले के मिले हैं। चमड़े के जूते करीब साढ़े तीन हजार साल पहले चलन में आये; हालांकि सैंडल्स जैसा कुछ पहने जाने का रिवाज तो और भी पहले लगभग 8 से 9 हजार साल पहले ही आरम्भ होने के प्रमाण मिले हैं ।

धरती के इस हिस्से में भले आर्यों के साथ नहीं आये, मगर लगता है यहां आकर उन्हें उसका महत्व पता चला और करीब-करीब वैदिक काल से ही कहीं पादुका, कहीं खड़ाऊ के रूप में मिलने लगे थे; बाद में मोजरी, खुस्सा, नागरा, पनहा से होते हुए चप्पल, जूते और जूती तक आ गए । अलबत्ता चमड़े के जूतों के मामले में ऊंच-नीच होती रही- शुरू में आये फिर धर्म-ए- शाकाहारी हुआ तो उन्हें धारण करना बंद कर दिया गया, मगर बाद में फिर आ गए।

जरूरत के अलावा इन्हें शान का भी प्रतीक माना गया- इस कदर कि बिना जूते बाहर निकलने की तौहीन से बचने के लिए जूते पहनते और उनके फीते बांधते में हुई देरी के चलते अवध के नवाब वाजिदअली शाह मारे भी गए। हालांकि बिना जूतों के नंगे पांव जाना स्वागत सत्कार के प्रोटोकॉल का सर्वोच्च रूप भी माना गया। बहरहाल पांवों को चलने में सहूलियत देने वाले जूते धीरे-धीरे इतने चलायमान हो गए कि खुद चलने लगे और चलते-चलते साहित्य और वर्तनी में आ पहुंचे। भारतीय समाज में जहां 'हमारे पांव-पांव उनके पांव चरण' का विभाजन ही विधान रहा वहां पाव नंगे ही रहे, पादुकाएं सिर्फ चरण कमलों के हिस्से में आईं ; और यह अतीत की बात नहीं है, देश के बड़े हिस्से में आज की ही बात है।

आज भी जिनके पांव, पांव हैं वे अगर चरणकमलधारियों के सामने से गुजरते हैं तो जूते उतारकर ही गुजरते हैं; कई बार तो अपने ही जूते सर पर धर कर ही गुजर पाते हैं। अभी इसी महीने तामिलनाडु के तिरुपुर में दलितों को जूते चप्पल पहनने से रोककर जाने का मामला सामने आया है, बुन्देलखण्ड और चम्बल के कुछ इलाकों में यह रोज की बात है। यही वजह रही कि शुरुआती सामाजिक प्रतिरोध आंदोलनों में जूते पहनकर निकलना भी एक बड़ी विरोध कार्रवाई की तरह इस्तेमाल किया गया। जूतों से मारा गया तो प्रतिरोध में जूते उछाले भी गये हैं। जूतों ने अगर राज किया है तो राज करने वाले जुतियाये भी गए हैं।

जूतों का आविष्कार करने वाले शायद ही जानते होंगे कि उनके मनुष्य की चाल और उसके चलन को आसान बनाने के लिए बनाए गए ये उपकरण आगे जाकर बहुविध और बहुआयामी हो जायेंगे। हाल के दौर में सबसे मशहूर रहा ईराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी का 10 नम्बर का जूता- जिसे उसने 15 वर्ष पहले 14 दिसंबर 2008 को बग़दाद में तब के अमरीकी राष्ट्रपति बुश जूनियर पर उछाला था। अल हदाद नाम की कम्पनी का मॉडल नम्बर 271 जूता इस कदर मशहूर हुआ कि इसका नाम ही बुश का जूता पड़ गया। पादुकाओं के अस्त्र बनने की इस घटना ने बाद में इतनी ख्याति प्राप्त कर ली कि अधिकांश नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के दफ्तरों के बाहर बाकायदा बोर्ड्स लगाए जाने लगे कि जूते बाहर उतारकर ही अन्दर आयें। मगर जूते तो बने ही चलने के लिए थे, उन्हें कोई बोर्ड या सूचना क्या ख़ाक रोक पाती!

जूतों पर विशद विमर्श इसलिए है क्योंकि पिछले सप्ताह से चरणकमलों और पादुकाओं वाले देश में एक खिलाडिऩ के जूते चर्चा का विषय बने हुए हैं। मरहूम अकबर इलाहाबादी साहब के एक लोकप्रिय शेर को मौजूं बनाने के लिए थोड़ा बदल कर कहें तो; 'जाल शकुनि ने बिछाया, साक्षी ने जूता रखा / शकुनि का पांसा रह गया, साक्षी का जूता चल गया।' ओलम्पिक मैडल जीतकर आने वाली अब तक की अकेली महिला कुश्ती खिलाड़ी साक्षी मलिक ने भारत की महिला खिलाडिय़ों की प्रतिनिधि के रूप में टेबल पर रखे अपने जूतों के बिम्ब से तेल और पानी में भीगे जूतों की मार को असरदार बताने वाले मुहावरे को नया रूप दे दिया और बता दिया कि उनसे भी ज्यादा ताकतवर मारकता आंसुओं से भीगे जूतों में होती है। यह भी दिखा दिया कि कुछ जूते हजार जूतों के बराबर होते हैं।

जो हुआ उसे अब सारा देश जानता है और वह यह है कि यौन उत्पीड़क भाजपाई सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह की अध्यक्षता वाली भारतीय कुश्ती संघ की मान्यता जब अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक एसोसिएशन ने समाप्त कर दी, दुनिया के कुश्ती महासंघ ने भी उसके लिए सारे दरवाजे बंद कर दिए तब इस आरोपी का इस्तीफा और नया चुनाव कराना मजबूरी हो गया था। कथित रूप से 'कराये गए' इन नए चुनावों में यौन उत्पीड़क भाजपाई ब्रजभूषण शरण सिंह का खडाऊ-उठाऊ संजय सिंह अपने पूरे पैनल के साथ न सिर्फ 'जीत कर' आ गया बल्कि उसके जीतते ही अहंकारी निर्लज्जता के साथ खुद यौन आरोपी गा-बजाकर महिला खिलाडिय़ों को धमकाने लगा।

11 महीने से अपने आत्मसम्मान और आने यौन उत्पीडऩ के मामलों में न्याय पाने की लड़ाई लड़ रही महिला खिलाडिय़ों और बाकी पहलवानों के लिए यह जीत और उसके बाद की यह बेहूदगी बर्दाश्त की सारी हदों को पार करने वाली थी। उनकी प्रतिनिधि के रूप में साक्षी मलिक, बजरंग पूनिया और विनेश फोगाट के साथ प्रेस क्लब में आयीं और पत्रकारों के बीच महज 1 मिनट 9 सेकंड में अपनी हताशा जताकर आंसुओं के बीच अपने जूते टेबल पर रखकर खेल छोडऩे का ऐलान कर दिया। खिलाडिय़ों की इस कार्रवाई ने पूरे देश को हिला दिया। लोगों की प्रतिक्रिया इतनी जबरदस्त थी कि तीन दिन के बाद अचानक खेल मंत्रालय ने इस 'नवनिर्वाचित' कुश्ती संघ को निलंबित करने का ऐलान कर दिया।

कुछ भले मानुष इसके साथ दिए उस नत्थी बयान को सच मानने के मुगालते में हैं जिसमें चुनाव गलत तरीके से होने, नयी समिति का काम पुराने पदाधिकारियों के नियंत्रण वाले परिसर से चलने और बिना किसी पूर्व तैयारी के 15 और 20 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों और लड़कों की राष्ट्रीय चैंपियनशिप का आयोजन ब्रजभूषण शरण सिंह के घर नंदिनी नगर गोंडा में करने की घोषणा को आधार बताया गया है।

मगर ऐसा है नहीं- यदि ऐसा होता तो निलंबन के लिए छुट्टी का दिन रविवार नहीं चुना जाता। ऐसा होता तो साक्षी मलिक के जूते रख देने के बाद संघी आईटी सैल और गोदी मीडिया उसके खिलाफ जहरीली मुहिम छेडऩे के काम में नहीं लगता। आहत खिलाडिय़ों के जाट समुदाय से होने के चलते जाटों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई है। इसकी कीमत कुछ महीनों बाद होने वाले लोकसभा और हरियाणा विधानसभा के चुनाव में चुकानी पड़ सकती है। इसलिए यह डैमेज कण्ट्रोल की हताश कोशिश है। यह भी कहा जा रहा है कि साक्षी के खेल छोडऩे के ऐलान के बाद बजरंग पूनिया और वीरेंदर सिंह द्वारा अपनी-अपनी पदमश्री वापस करने और विनेश फोगाट द्वारा अपना खेल रत्न और अर्जुन अवार्ड लौटाने से सरकार को लगा कि कहीं यह सिलसिला तूल न पकड़ ले और रायता इतना ज्यादा न बगर जाए कि समेटते न बने। जूता सम्मान को पादुका पूजन भी कहा जाता है और इसका एक आयाम और है और वह यह कि 'पड़त पड़त पादुकाओं से पड़मत होत सुजान' की स्थिति भी आ जाती है। जूते खाने वाले उसके निशाने से बचने के लिए पल भर के लिए झुकना भी सीख जाते हैं।

देश के ज्यादातर लोग मानते हैं कि जो दिखावा हुआ है वह एक झांसा है- असली तमाशा अभी बाकी है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हुए किसान आंदोलन के साथ उत्तरप्रदेश के चुनाव के पहले यही तरीका आजमाया गया था; उनके साथ किये गए वायदों पर अमल आज तक नहीं हुआ। उसी काठ की हांडी को फिर चढ़ाया जा रहा है। लोकसभा चुनाव को देखते हुए निलंबन का दिखावा किया जा रहा है। कृपया ध्यान दें, सिर्फ निलंबन हुआ है, इतना सब कहने के बाद भी भंग नहीं किया गया है; एक पतली गली बचा कर रखी गयी है। मगर हुक्मरान भूल रहे हैं कि अब जब जूते निकल ही पड़े हैं तो रुकेंगे थोड़े ही, वे दूर तलक जायेंगे।

(लेखक सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा)


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