मिरज में मौजूद है, सितार को 'जन्म' देने की परंपरा?
दक्षिण महाराष्ट्र के सांगली ज़िले में, कर्नाटक की सीमा के पास स्थित ऐतिहासिक नगर मिरज पहली नज़र में साधारण सा प्रतीत हो सकता है

- नजरुल हक
वैश्विक मान्यता के बावजूद, मिरज के कारीगर आज अनेक चुनौतियों से जूझ रहे हैं। शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं में गिरावट, सस्ते कारखाना-निर्मित वाद्यों की उपलब्धता और संस्थागत सहयोग की कमी इस कला के अस्तित्व को खतरे में डाल रही है। फिर भी यह समुदाय डटा हुआ है। स्थानीय संगठनों और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने इन कारीगरों के काम का दस्तावेज़ीकरण करना शुरू किया है।
दक्षिण महाराष्ट्र के सांगली ज़िले में, कर्नाटक की सीमा के पास स्थित ऐतिहासिक नगर मिरज पहली नज़र में साधारण सा प्रतीत हो सकता है। एक छोटा रेलवे जंक्शन, धूल भरे बाज़ार और शांत आवासीय मोहल्ले- ये सब इस नगर की गहराई और महत्व को तुरंत नहीं दर्शाते, लेकिन पिछले 150 वर्षों से अधिक समय से मिरज भारत के सांस्कृतिक नक्शे पर एक विशिष्ट स्थान रखता है- केवल शास्त्रीय संगीत के एक केंद्र के रूप में ही नहीं, बल्कि एक हस्तनिर्मित परंपरा के हृदय-स्थल के रूप में, जो अब भी दुनिया के बेहतरीन तार-वाद्य यंत्रों का निर्माण करती है।
जब आप उस संकरी गली में प्रवेश करते हैं जिसे पहले 'सितारमेकर गली' के नाम से जाना जाता था—और अब इसे आधिकारिक तौर पर 'फ़रीदसाहब सितारमेकर मार्ग' कहा जाता है—तो आप एक ऐसी दुनिया में पहुंच जाते हैं जहां लकड़ी, धातु और मानवीय स्पर्श मिलकर ऐसी ध्वनियां रचते हैं जो विश्व भर के संगीत सभागारों में गूंजती हैं। यह गली बहुत लंबी नहीं है, मुश्किल से कुछ सौ मीटर की, लेकिन इसका महत्व अत्यधिक है। यहीं पीढ़ियों से कारीगर सितार, तानपुरा, सरोद और वीणा जैसे तार-वाद्य यंत्रों को बनाते आए हैं—ऐसी तकनीकों से जो मौखिक परंपरा से चली आ रही हैं और जिन्हें अभ्यास, अंतर्ज्ञान और भक्ति से परिष्कृत किया गया है।
मिरज के सितार निर्माण केंद्र में बदलने की कहानी 19वीं सदी में शुरू होती है, एक दूरदर्शी कारीगर—फ़रीदसाहब सितारमेकर—के साथ। फ़रीदसाहब का जन्म 1827 में हुआ था। वे शिकलगारों के समुदाय से थे। ये मुस्लिम धातु-शिल्पकारों का एक समुदाय था जो मूलत: 17वीं सदी में बीजापुर के आदिलशाही शासन के दौरान मिरज में आकर बस गया था। ये कुशल कारीगर पारंपरिक हथियारों, जैसे-तलवारें, ढालें और कटार बनाने और मरम्मत करने में विशेषज्ञ थे। पीढ़ियों तक, उनके जीवन की लय थी: हथौड़े की टनटनाहट और लोहे पर पड़ती चोट।
लेकिन 18वीं और 19वीं सदी के आगमन के साथ गहरे परिवर्तन आए। बारूद वाले हथियारों के उदय, भारतीय रियासतों के पतन और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के सुदृढ़ होने के कारण शिकलगारों की पारंपरिक कला अप्रासंगिक हो गई। अब जब युद्धों में तलवारों और भालों की आवश्यकता नहीं रही, तो उनका कौशल भी समाप्ति की कगार पर पहुंच गया। भारत के कई कारीगर समुदायों की तरह, उन्हें भी पुनर्निर्माण या विलुप्ति के बीच चयन करना पड़ा। कई शिकलगारों ने सामान्य बढ़ईगिरी, घरेलू औज़ार बनाने या धातु-सज्जा का काम अपनाया, लेकिन फ़रीदसाहब ने, जो उस समय सांस्कृतिक रूपांतरण के दौर से गुज़र रहे मिरज में रह रहे थे, एक अलग राह देखी।
उसी समय मिरज पर 'पटवर्धन वंश' का शासन था और श्रीमंत बालासाहब पटवर्धन (द्वितीय) को कला का विशेष संरक्षणकर्ता माना जाता था। उन्होंने उत्तर भारत से संगीतज्ञों को मिरज बुलवाया और बसाया, जिससे यह नगर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक केंद्र बन गया। कलाकारों के साथ वाद्ययंत्र भी आए और उनके साथ उनकी मरम्मत, स्वरलयन और अंतत: विशेष निर्माण की ज़रूरतें भी।
फ़रीदसाहब ने तार-वाद्य यंत्रों की मरम्मत से शुरुआत की और उनके निर्माण की बारीकियों को गहराई से समझना शुरू किया। उनमें जन्मजात जिज्ञासा थी, वे टूटे-फूटे पुराने वाद्ययंत्रों को खोलकर उनके ध्वनि-विज्ञान को समझने का प्रयास करते थे। उनके वंशजों के बीच एक चर्चित किस्सा है कि फ़रीदसाहब कई हफ़्तों तक एक सितार के पास सोते रहे, रात के अलग-अलग समय पर उसे थपथपाते रहते, ताकि आर्द्रता और तापमान का उसकी ध्वनि पर कैसा असर पड़ता है, यह जान सकें।
उनकी असली खोज तब हुई जब उन्होंने पाया कि स्थानीय खेतों में उगने वाली लौकी—जिनका उपयोग साधु जलपात्र के रूप में करते थे—ध्वनि अनुनाद (रेजोनेन्स) के लिए आदर्श होती हैं। ये लौकियां या तो स्थानीय खेतों से प्राप्त की जातीं या विशेष रूप से उगाई जातीं। इन लौकियों को धीरे-धीरे सुखाकर और संसाधित कर 'प्राकृ तिक अनुनाद कक्ष' (रेजोनेटर) बनाया जाता था। अपने भाई मोइनुद्दीन की सहायता से फ़रीदसाहब ने हाथ से ही पूरी तरह सितार बनाना शुरू किया—लकड़ी की किस्मों, तारों के तनाव और जावरी (जो वाद्य के स्वरगुण को आकार देती है) के सूक्ष्म संतुलन पर प्रयोग करते हुए।
उनकी साधारण सी कार्यशाला से जो वाद्य निकले, उनमें एक विशिष्ट ध्वनि थी—गंभीर, समृद्ध और गहराई लिए हुए। धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी। जैसे-जैसे मांग बढ़ी, फ़रीदसाहब ने अपने बेटों और शिष्यों को प्रशिक्षण देना शुरू किया। जल्द ही पूरे-के-पूरे परिवार इस कला में लग गए और 'सितारमेकर गली' एक जीवित संग्रहालय बन गई। समय के साथ मिरज उच्च गुणवत्ता वाले तारवाद्यों के पर्याय के रूप में प्रसिद्ध हो गया। भारत और दुनिया भर के संगीतज्ञ मिरज से विशेष आदेश पर वाद्य मंगवाने लगे।
20वीं सदी के मध्य तक मिरज के वाद्यों की ख्याति किंवदंती बन चुकी थी। पंडित रविशंकर—जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिम में लोकप्रिय किया—ने मिरज से सितार बनवाए। उस्ताद विलायत ख़ान ने भी, जिनकी 'विलायतखानी' सितार शैली आज भी वाद्य-निर्माताओं को प्रेरित करती है, मिरज के सितारों को अपनाया। वास्तव में, कुछ मिरज में बने सितारों के नाम ही 'रविशंकर शैली' या 'विलायत ख़ान शैली' रखे गए हैं—ये नाम डिज़ाइन के स्वामित्व की बजाय उन विशिष्ट ध्वनि-गुणों को दर्शाते हैं जिन्हें ये महान संगीतज्ञ पसंद करते थे। एक बार विलायत ख़ान के एक शिष्य ने कहा था, 'मिरज का सितार केवल गाता नहीं है—वह सांस भी लेता है।'
आज भी मिरज के कारीगर किसी स्वचालित मशीनरी का उपयोग नहीं करते। उनके औज़ार सरल हैं—छीनी, रेसर, हस्त-ड्रिल और लकड़ी की क्लैंप। कार्यशाला की प्रक्रिया सहयोगी होती है: हर कारीगर किसी एक हिस्से में विशेषज्ञ होता है—चाहे वह तुम्बा (लौकी) को तराशना हो, डंडी (गर्दन) बनाना हो या फ़्रेट्स को स्वरलय देना हो।
जो बात मिरज को विशिष्ट बनाती है, वह है इसकी कला से निकटता और आत्मीयता। यहां वाद्य तैयार नहीं किए जाते, उन्हें 'जन्म' दिया जाता है—हर संगीतज्ञ की हथेली, शैली और ध्वनि-रुचि के अनुसार विशेष रूप से। एक मिरज का सितार बनकर तैयार होने में कई सप्ताह या महीने लग सकते हैं, यह उसकी जटिलता और कारीगर की व्यस्तता पर निर्भर करता है।
इस शिल्प का अधिकांश ज्ञान आज भी लिखित नहीं है। यह अवलोकन और मौखिक परंपरा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता है, जहां युवा शागिर्द अपने बड़ों की सहायता करते हुए सीखते हैं—लकड़ी की नसों, वार्निश की गाढ़ाई या फ्रेट संरेखण की बारीकियों को आत्मसात करते हुए। एक कारीगर ने कभी कहा था, 'आप केवल सितार बनाना नहीं सीखते—आप उसे जन्म लेने से पहले सुनना सीखते हैं।'
वैश्विक मान्यता के बावजूद, मिरज के कारीगर आज अनेक चुनौतियों से जूझ रहे हैं। शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं में गिरावट, सस्ते कारखाना-निर्मित वाद्यों की उपलब्धता और संस्थागत सहयोग की कमी इस कला के अस्तित्व को खतरे में डाल रही है। फिर भी यह समुदाय डटा हुआ है। स्थानीय संगठनों और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने इन कारीगरों के काम का दस्तावेज़ीकरण करना शुरू किया है, कार्यशालाओं और प्रदर्शनियों का आयोजन भी हो रहा है। आधुनिक शास्त्रीय संगीतज्ञों में हस्तनिर्मित वाद्यों के प्रति जागरूकता भी बढ़ रही है, जिससे संरक्षण का एक धीमा, लेकिन स्थिर पुनरुत्थान हो रहा है।
आज भी जब आप 'फ़रीदसाहब सितारमेकर मार्ग' से गुजरते हैं, तो कार्यशालाओं में गहरी एकाग्रता-भरा सन्नाटा गूंजता है। युवा लड़के अपने पिता और चाचा की सहायता करते हैं—छोटे औज़ार पकड़ाते हुए, फ्रेट काटते या नए तने हुए सितार को सुर में मिलाते हुए। हवा में रोज़वुड के बुरादे और वार्निश की सुगंध है, और कहीं पीछे एक तानपुरा धीरे-धीरे गुनगुना रहा है।
(लेखक आज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में प्राध्यापक हैं।)


