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क्या आप भी मुंह में जुबान रखते हैं

अमेरिका में किसी अश्वेत प्रदर्शनकारी की मौत पर बयान देने में ऐसे लोग भी आगे रहे हैं और दुनिया भर के दबाव का असर भी दिखा

क्या आप भी मुंह में जुबान रखते हैं
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- अरविन्द मोहन

अमेरिका में किसी अश्वेत प्रदर्शनकारी की मौत पर बयान देने में ऐसे लोग भी आगे रहे हैं और दुनिया भर के दबाव का असर भी दिखा। असल में समाज में ऐसे बुद्धजीवियों और सार्वजनिक हस्तियों का मौजूद होना ऐसे ही अवसरों पर लाभकारी लगता है जब अन्याय के ऐसे मामलों को आगे बढ़ाने के लिए ज्यादा सार्वजनिक दबाव की जरूरत महसूस होती है।

भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह के खिलाफ पहलवानों का मोर्चा लगा हुआ है और उनके मुंह खोलने का फर्क भी दिखाई देने लगा है। लेकिन जितने नतीजे और प्रतिक्रियाओं की उम्मीद सामान्यत: ऐसे मामलों में की जाती है वैसा अभी तक नहीं दिखा है। प्रधानमंत्री समेत पूरे सरकारी पक्ष ने चुप्पी साध ली है। जबकि दबाव से या सरकार की नजरों में चढ़ने की महत्वाकांक्षा से पी.टी. उषा जैसे कुछ लोगों ने बलात्कार का आरोप लगाने वाली लड़कियों और उनके पक्ष में आन्दोलनरत पहलवानों पर ही दोषारोपण किए हैं। जब सरकारी पक्ष का व्यवहार ऐसा हो तो यह स्वाभाविक भी है। लेकिन इस चक्कर में पी.टी. उषा, बबीता फोगाट और योगेश्वर दत्त जैसे लोगों की खूब लानत-मलानत भी हुई है। उसी तेजी से सोशल मीडिया में यह मांग भी उठ रही है कि सचिन तेंडुलकर, विराट कोहली और महेंद्र सिंह धोनी जैसी बड़ी हस्तियों को उसे तरह इन पीड़ित पहलवानों के पक्ष में बयान और समर्थन देना चाहिए जैसे नीरज चोपड़ा और अभिनव बिन्द्रा वगैरह ने दिया है। क्रिकेट और कांग्रेस के विवादास्पद खिलाड़ी नवजोत सिंह सिद्धू तो बाकायदा धरने पर भी बैठे। बल्कि उन जैसों के समर्थन से यह आंदोलन मजबूत हुआ है या कमजोर यह विवाद है। उस पर राजनैतिक होने का आरोप भी सरकार और भाजपा के लोग लगा रहे हैं।

इसी हिसाब से सचिन या गावस्कर, धोनी या विराट कोहली जैसों के मुंह खोलने का ज्यादा महत्व है। अमेरिका में किसी अश्वेत प्रदर्शनकारी की मौत पर बयान देने में ऐसे लोग भी आगे रहे हैं और दुनिया भर के दबाव का असर भी दिखा। असल में समाज में ऐसे बुद्धजीवियों और सार्वजनिक हस्तियों का मौजूद होना ऐसे ही अवसरों पर लाभकारी लगता है जब अन्याय के ऐसे मामलों को आगे बढ़ाने के लिए ज्यादा सार्वजनिक दबाव की जरूरत महसूस होती है। और जाहिर तौर पर कोई भी व्यक्ति हर मामले में सही और गलत समझने का कौशल और फिर उसी के अनुसार हिम्मत से अपनी राय रखने का गुण जन्म से लेकर नहीं आता जैसी प्रतिभा उसे खेल, साहित्य, कला या सामाजिक-राजनैतिक कामों में आगे बढ़ाती है। लेकिन इन मामलों में भी उसे अपनी समझ और हिम्मत से सही-गलत करने का गुण ही आगे बढ़ाता है। अगर वह सत्ता के लिए ऐसा करता है तो नेता बनाता है वरना महात्मा और आदरणीय बन जाता है। कहना न होगा कि अपने समाज में सत्ता पाने वाले की तुलना में सत्ता छोड़ने वाले का ज्यादा सम्मान होता है। आजादी की लड़ाई और उसके बाद से यह फर्क भी दिखाई देता है और ऐसे लोग भी। उस हिसाब से इधर देश की राजधानी में एक बड़ा समूह बन गया था जो बड़े मसलों पर एकजुट समर्थन या विरोध से अपना योगदान भी देता था।

सचिन और अन्य लोगों से ऐसी उम्मीद करना बेवजह भी नहीं है। उन्होंने क्रिकेट को जितना दिया समाज ने उनको उससे ज्यादा ही लौटाया है वरना दूसरे खेलों और खिलाड़ियों का हाल छुपा नहीं है। यह बात गावस्कर, रवि शास्त्री, महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली जैसे सभी पर लागू होती है। और सार्वजनिक मान-सम्मान का ही नतीजा था कि सचिन को भारत रत्न या इन खिलाड़ियों को पद्म पुरस्कारों से ही नहीं राज्य सभा की सदस्यता और जाने किस-किस नाम वाले सम्मानों से सम्मानित किया गया। जाहिर तौर पर सचिन ने न राज्य सभा तक पहुंचने का कोई जतन किया न उस सदस्यता से देश, समाज की कोई सेवा की। ऐसी हस्तियों से यह उम्मीद की भी नहीं जाती। लेकिन हर सम्मान के साथ आपकी सामाजिक जवाबदेही भी बढ़ती जाती है। और इसमें समाज या जीवन के उस क्षेत्र में होने वाली घटनाओं के प्रति आपके हां-ना का महत्व भी शामिल है। आपके अपने काम से, अपनी प्रतिभा से और इन सामाजिक सम्मानों से आपका कद जितना बढ़ता जाता है आपकी जवाबदेही उतनी बढ़ती जाती है। इसलिए कोई सचिन, कोहली और माही से हिंडनबर्ग मामले पर बोलने की उम्मीद नहीं करता है लेकिन खेल से जुड़े मामले पर तो करता ही है।

सरकार का रुख भी बड़े लोगों को चुप कराता है। अमिताभ बच्चन इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। असल में सबका काम सरकार से पड़ता है और सेलिब्रिटी हों तो और। बीस तरह के मामलों में सरकार मदद करती है या नजर फेर लेती है। पर बाजार भी चुप्पी की बड़ी वजह है। बाजार को सरकार से भी ज्यादा धंधे की जरूरत होती है और खिलाड़ी सरकार की तुलना में बाजार से ज्यादा कुछ पाते हैं (बाजार दर्शकों और खेल प्रेमियों के मार्फत उससे ज्यादा कमाई कर लेता है)। सचिन को क्रिकेट छोड़े जमाना हो गया लेकिन अभी भी उन्हें अपोलो टायर्स, आईटीसी सेवलान, जियो सिनेमा, फेडरल लाइफ इंश्योरेंस जैसी 15 कंपनियों का विज्ञापन करने का मोटा पैसा मिलता है। बाजार के जानकार लोगों का मानना है कि उनकी ब्रांड वैल्यू 7.36 करोड़ डालर है। वे एक विज्ञापन के लिए साल का सात से आठ करोड़ रुपया पाते हैं। गावस्कर और शास्त्री जैसे लोग सीधे विज्ञापनों से काम उस क्रिकेट बोर्ड या स्टार स्पोर्ट्स जैसी प्रसारण कंपनियों से मोटा पैसा पाते हैं जो सिर्फ बाजार के भरोसे फल-फूल रहे हैं। विराट और माही तो अभी बाजार के दुलारे क्रिकेटर्स में है।

सो इन सबसे यह उम्मीद करना कि वे किसी सार्वजनिक मसले पर या किसी खेल या खिलाड़ियों के मसले पर मुंह खोलकर अपना पक्ष स्पष्ट करेंगे कुछ ज्यादा ही बड़ी उम्मीद करना होगा। कई बार आमिर खान ऐसा स्टैंड लेते दिखते थे। अब वे भी 'मन की बात' का झुनझुना बजाते नजर आए। हमारी सार्वजनिक हस्तियों और स्टार खिलाड़ियों/अभिनेताओं द्वारा ऐसा आचरण करना कोई सपने वाली बात नहीं है। यह हकीकत रही है। लेकिन यह भी हकीकत है कि जिस सिविल सोसाइटी आंदोलन को हड़पकर अरविन्द केजरीवाल ऐंड कंपनी दिल्ली की सत्ता पर काबिज है, और जिसका सहारा पाकर(खासकर यूपी सरकार के भ्रष्टाचार का विरोध) नरेंद्र मोदी केंद्र की सत्ता में हैं। ऐसे आंदोलन, बयान या हस्तक्षेप राजनैतिक सत्ता पाने के लिए नहीं हों सकते। लेकिन सत्ता से नाराजगी के अवसरों पर सिर्फ उसकी या बाजार की नाराजगी के चलते चुप्पी साधना भी उचित नहीं है।


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