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चौथे चरण के मतदान के बाद मोदी के भविष्य की चर्चा

मोदी जी की संगठन पर पकड़ का यह आलम है कि इस बात की भी बहसें चल पड़ी हैं कि भाजपा को उनके बाद कौन सम्हालेगा

चौथे चरण के मतदान के बाद मोदी के भविष्य की चर्चा
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- डॉ. दीपक पाचपोर

मोदी जी की संगठन पर पकड़ का यह आलम है कि इस बात की भी बहसें चल पड़ी हैं कि भाजपा को उनके बाद कौन सम्हालेगा। यदि यह सवाल खड़ा हो रहा है तो यह भी एक तरह से लोगों के सामने सम्भावना है कि देश को तथा संगठन को देर-सबेर इस सवाल से जूझना होगा। क्या ऐसा 4 जून के बाद होगा? लोकतंत्र में कुछ भी असम्भव नहीं है; और लोकतंत्र को किसी एक व्यक्ति पर जाकर ठहरना भी नहीं चाहिये।

जैसा कि अनुमान था, लोकसभा चुनाव के लिये सोमवार को हुए मतदान का चौथा चरण भी भारतीय जनता पार्टी के लिये वैसा ही साबित होने जा रहा है जिस प्रकार से पहले के तीन चरण (19 व 26 अप्रैल तथा 7 मई) गये हैं- निराशा भरे। राजनीतिक विश्लेषक और तमाम तरह के सर्वे एक स्वर में कह रहे हैं कि इस बार कम मतदान सत्तारुढ़ भाजपा के लिये खतरे की घंटी है। गर्मी को मतदान केन्द्रों में छाये सन्नाटे का चाहे कारण बतलाया जा रहा हो लेकिन केवल तेज गर्मी इसका एकमात्र कारण नहीं हो सकती। जो भी हो, कम मतदान किसे जीत दिलाता है या किसे पराजय, इसका पता तो 4 जून को ही लग पायेगा, लेकिन अब मीडिया में, खासकर समांतर यानी सोशल मीडिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भविष्य पर चर्चाएं शुरू हो चुकी हैं, जो तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने को व्याकुल हैं। यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि लोकतंत्र में न तो नतीजों को लेकर कोई निश्ंिचत हो सकता है और न ही कोई दावा कर सकता है कि परिणाम ऐसे या वैसे ही होंगे। कोई इतने पार या उतने पार का नारा दे रहा है तो वह लोगों को प्रभावित करने यानी अपने पक्ष में हवा बनाने की कोशिश कर रहा है। चार चरणों में भाजपा का जो हश्र होता हुआ दिखाई दे रहा है, उसके बाद तो इस बात को पक्के तौर पर मान लिया गया है कि इस पार-उस पार का नारा हवा-हवाई ही है।

बहरहाल, विकल्प की बात न केवल देश का नेतृत्व करने के लिये चल पड़ी है बल्कि मोदी की पार्टी के भीतर भी इस लिहाज से हो रही है कि उनके बाद संगठन किसके बल पर चलेगी। मोदी के 10 वर्षों के कामकाज की गुणवत्ता को अगर एक ओर रख दें, तो भी इसमें कोई शक नहीं कि मोदी ने भाजपा को दो-दो शानदार जीतें दिलाई हैं- 2014 व 2019 में; तथा उसे बुलन्दियों तक पहुंचाया है। चुनिंदा अपवादों को छोड़कर अब तक किसी भी प्रधानमंत्री ने ऐसी कामयाबी नहीं दिलाई थी। मोदी चाहे पार्टी अध्यक्ष न हों, लेकिन वे ही एक तरह से सर्वेसर्वा रहे हैं। इसलिये यह मजेदार बात है कि अगर देश में उनके मुकाबले पीएम का चेहरा तलाशने वाले लोगों के विचारों को जानने की कोशिशें हो रही हैं, तो सर्वेक्षण एजेंसियां या विश्लेषक जानना चाहते हैं कि मोदी के बाद इस पद पर कितने लोग किसे देखना चाहते हैं। यह अलग बात है कि अब तक तो वे ही कमोवेश आगे चल रहे हैं। हालांकि कई बार कांग्रेस के राहुल गांधी भी प्रमुख पसंद बनते जा रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठ खड़ा होना बताता है कि देश को यह बात समझ में आ गई है कि ऐसी नौबत आ सकती है कि इस सर्वोच्च पद के लिये कोई और चेहरा ढूंढना पड़ सकता है।

मोदी जी की संगठन पर पकड़ का यह आलम है कि इस बात की भी बहसें चल पड़ी हैं कि भाजपा को उनके बाद कौन सम्हालेगा। यदि यह सवाल खड़ा हो रहा है तो यह भी एक तरह से लोगों के सामने सम्भावना है कि देश को तथा संगठन को देर-सबेर इस सवाल से जूझना होगा। क्या ऐसा 4 जून के बाद होगा? लोकतंत्र में कुछ भी असम्भव नहीं है; और लोकतंत्र को किसी एक व्यक्ति पर जाकर ठहरना भी नहीं चाहिये। जीवंत समाज और स्पंदित लोकतंत्र की यही निशानी होती है कि विकल्प की तलाश कभी खत्म नहीं होती और हर घड़ी बेहतर व्यक्ति, बेहतर संगठन, बेहतर सरकार तथा बेहतर व्यवस्था का विकल्प ढूंढा जाता है। यह एक सतत प्रक्रिया है। वैसे चार चरणों के मतदान के बाद अगर इस बात की चर्चा होने लगी है तो कहा जा सकता है कि कुछ अप्रत्याशित हो सकता है। वैसे भी कई लोग कथित रूप से 'चौंकाने वाले नतीजों' का अनुमान व्यक्त कर रहे हैं। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अपने बल पर 370 तथा अपने गठबन्धन नेशनल डेमोक्रेटिक एलाएंस के बूते 400 से ज्यादा सीटें पाने का जो लक्ष्य रखा है, वह अगर मिल जाता है (जो कि मुमकिन नहीं बताया जा रहा) तब तो कोई बात नहीं, लेकिन ऐसा न होने पर कई तरह अनुमान लगाये जा रहे हैं। यदि त्रिशंकु लोकसभा बनती है तो मोदी के रहते और माइनस मोदी लाभ-हानि पर विचार होगा। बहुत सम्भव है कि मोदी के फिर से पीएम बनने की स्थिति में एनडीए के कुछ सहयोगी भाजपा को सरकार बनाने में मदद से इंकार कर दें। ऐसा होता है तो एनडीए का नेतृत्व कौन करेगा- केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी या राजनाथ सिंह या फिर कोई और?

भाजपा के आंतरिक नेतृत्व की बात करें तो इस बाबत सवाल भारत में नहीं बल्कि विदेशों में भी उठने लगे हैं। अनेक देश यह जानने को उत्सुक हैं कि मोदी के बाद भाजपा का क्या होगा। भाजपा में बाहरी लोगों की दिलचस्पी का कारण यह हो सकता है कि उसकी ख्याति विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में है। साथ ही, उसकी दक्षिणपंथी विचारधारा के चलते लोगों की यह उत्सुकता रहनी स्वाभाविक है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के इस बेहद अहम चुनाव में किसकी जीत होती है- कट्टर विचारों की या उदारता की? भाजपा से राज्य सभा के सदस्य रहे स्वपन दासगुप्ता ने हाल ही में एक ट्विट कर बताया है कि उनके पास एक आस्ट्रेलियाई पत्रकार का फोन आया था जो उनसे 'मोदी के बाद की भाजपा' विषय पर साक्षात्कार करना चाहता है। हालांकि दासगुप्ता ने इंटरव्यू देने से मना कर दिया लेकिन इससे ज्ञात होता है कि भारत के चुनावों में लोकतांत्रिक रूप से विकसित देशों की कितनी दिलचस्पी है।

यह सवाल एक और तरीके से सामने आ गया है। शराब घोटाले के आरोप में तिहाड़ जेल की न्यायिक हिरासत से जमानत पर छूटे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह कहकर सभी को चौंका दिया है कि च्च्नरेन्द्र मोदी तीसरी बार सरकार अपने लिये नहीं बल्कि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के लिये वोट मांग रहे हैं क्योंकि उन्हीं के बनाये नियम के अनुसार 'डेढ़ साल के बाद 75 वर्ष की आयु पूरी करने के बाद मोदी रिटायर होकर वैसे ही मार्गदर्शक मंडल में चले जायेंगे जिस प्रकार से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुमित्रा महाजन, यशवंत सिन्हा आदि को भेज दिया गया है।' हालांकि अमित शाह ने इस बात पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि 'पार्टी संविधान में ऐसा कोई नियम नहीं है। यह बात मोदी के लिये लागू नहीं होगी।' इसका सीधा सा अर्थ यह है कि मोदी के पीएम पद तक पहुंचने का रास्ता बनाने के लिये इन बड़े नेताओं की बलि ली गई जिनका पार्टी के निर्माण से लेकर विकास में बड़ा योगदान था।

अब तीन चरणों का मतदान शेष है। लोकसभा की 379 सीटों पर मतदान हो चुका है। अब बची 164 सीटें। कहा तो यहां तक जाता है कि भाजपा को जो नुकसान होना है वह इन चार चरणों में हो चुका है। जिन सीटों पर मतदान बचा है, उनमें भाजपा के लिये किसी बड़े चमत्कार की आशा नहीं रह गई है। हो चुके नुकसान की भरपाई भी अब असम्भव बतलाई जा रही है। इन 10 वर्षों के दौरान सारे चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़े गये हैं तो उनके विकल्प की तलाश लाजिमी है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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