कला के माध्यम से सच्चे स्वदेशी की खोज
गुजरात के हरिपुरा में 1938 में हुए कांग्रेस अधिवेशन में एक महत्वपूर्ण सत्र में महात्मा गांधी ने चित्रों की प्रदर्शनी को अपनी मंजूरी दी थी

- ज्योति साही
कला का लोकतंत्रीकरण, लोक संस्कृति से आकर्षित होता है जो प्रकृति के चक्रों के नजदीक रहने वालों की वास्तविकताओं के साथ सीधे संपर्क में है। यह एक आधुनिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है जो समकालीन वास्तविकता से प्रेरणा लेता है। इस तरह की कला आज की राजनीतिक चिंताओं से जुड़े लोगों के लिए अधिक सुलभ होने के कारण एक ऊर्जा है जो सामाजिक रूप से व्यस्त दृष्टि का स्रोत है। नंदलाल बोस की कला को इस अर्थ में देखा जा सकता है जिसे आनंद कुमारस्वामी (1877-1947) ने एक 'सच्चा स्वदेशी' कहा था जो एक काल्पनिक अतीत से प्राप्त 'झूठे स्वदेशी' के विपरीत है।
गुजरात के हरिपुरा में 1938 में हुए कांग्रेस अधिवेशन में एक महत्वपूर्ण सत्र में महात्मा गांधी ने चित्रों की प्रदर्शनी को अपनी मंजूरी दी थी। इन चित्रों की प्रदर्शनी अब बेंगलुरु की प्रतिष्ठित नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट में आयोजित की गई है। प्रदर्शनी का उद्घाटन पिछले महीने किया गया था और यह अप्रैल 2024 तक खुली रहेगी। 'हरिपुरा पैनल' नाम से प्रसिद्ध ये चित्र भारतीय चित्रकार और शिक्षक नंदलाल बोस (1882-1966) की कृतियां हैं और इन्हें राष्ट्रीय खजाना माना जाता है। यह प्रदर्शनी हमारी रुचि और विचार-विमर्श, स्वदेशी, राष्ट्रवाद के विचारों और हमारी अपनी जड़ों को फिर से खोजने में सांस्कृतिक विविधता की भूमिका पर नए सिरे से महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं।
इस प्रदर्शनी का अवलोकन करते समय कलाकारों की कल्पना पर स्वतंत्रता संग्राम के राजनीतिक प्रभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। प्रदर्शनी नंदलाल बोस के राष्ट्रवाद की पड़ताल के साथ ही इस तथ्य की भी जांच करती है कि वे भारतीय आधुनिकता के एक विशिष्ट स्रोत का प्रतिनिधित्व करते हैं। क्या नंदलाल बोस की कलात्मक प्रतिभा के भीतर अंतर्निहित आवेग सिर्फ अतीत की ओर लौटना था जो 'स्वदेशी' आंदोलन में उनकी युवा भागीदारी से प्रेरित था? या उनकी कला भारतीय परंपरा में काफी नई है और उन अर्थों में भारतीय संस्कृति में एक आधुनिक दृष्टि का संकेत है?
राष्ट्रवाद के साथ कला का संबंध आधुनिक भारतीय कला की जड़ों से संबंधित बड़े सवाल उठाता है। भारतीय संदर्भ में राष्ट्रवाद, कला और राजनीतिक कल्पनाएं नजदीक से जुड़ी हुई हैं। आधुनिक भारतीय कला की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम से हुई थी। इसने भारतीय रचनात्मकता को सक्रिय किया जो औपनिवेशिक काल के दौरान विदेशियों की सांस्कृतिक निर्भरता से प्रभावित थी। इस प्रयास के पीछे प्रेरक कारण एक प्रामाणिक आत्म-छवि को फिर से खोजना था, एक पहचान जिसे 'स्वदेशी' या 'हमारी अपनी भूमि' कहा जाता था। 'स्वदेशी' का अर्थ आत्मनिर्भरता है जिसमें यह स्वीकार किया जाता है कि प्रत्येक समुदाय अपने जीवन के लिए आवश्यक चीजें प्राकृतिक और सांस्कृतिक वातावरण से प्राप्त करता है। एक तरह से यह किसी संस्कृति की भौगोलिक रूप से निर्धारित अवधारणा है। प्रत्येक प्रामाणिक संस्कृति मानव व्यक्ति और समुदाय के बीच एक संबंध से विकसित होती है और यह भूमि का भौतिक शरीर है जो एक राष्ट्र के लिए पोषक वातावरण प्रदान करता है।
हालांकि 'आत्मनिर्भरता' केवल एक राष्ट्रीय पहचान के बारे में नहीं है। रचनात्मक कला अपने प्राकृतिक वातावरण के लिए संस्कृति के संबंध को संबोधित करती है। संस्कृति सिर्फ आत्मनिर्भरता के माध्यम से विकसित नहीं हो सकती है। विकास, विभिन्न लेकिन पूरक बलों के बीच परस्पर क्रिया से उत्पन्न होता है। एक पेड़ की छवि आकाश और पृथ्वी के बीच की कड़ी का प्रतिनिधित्व करती है। यह 'ऊपर क्या है और नीचे क्या है' के एक साथ आने तथा 'क्या देखा जाता है और क्या छिपा रहता है' का प्रतीक है। एक बीज को अंकुरित होने के लिए पृथ्वी और पानी दोनों की आवश्यकता होती है। एक जीवित पौधा स्वाभाविक रूप से मिट्टी के ऊपर से आने वाले प्रकाश और गर्मी की ओर बढ़ता है। जैविक विकास आंतरिक और बाहरी ऊर्जाओं के एक साथ काम करने का परिणाम है।
इस अर्थ में कुछ भी अपने आप में पर्याप्त नहीं है क्योंकि हर जीवित प्रक्रिया का अर्थ है बाहर की ओर बढ़ना, 'अन्य' की ओर पहुंचना। उसी तरह एक जीवित संस्कृति बाहरी प्रभावों पर प्रतिक्रिया देती है जो स्थानीय संस्कृति के भीतर की क्षमता को बढ़ाती है। पेड़ हमें जीवन की हर शाखा के आंतरिक जुड़ाव की याद दिलाता है। एक पेड़ के फूल और फल एक जीवन शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो उस पेड़ से परे रहने वाले कई अन्य प्राणियों के साथ जुड़े रहते हैं और परस्पर प्रभाव डालते हैं।
नंदलाल बोस अजंता भित्तिचित्रों से प्रभावित थे। उन पर अपने शिक्षक अवनींद्रनाथ टैगोर (1871-1951) का प्रभाव था। इन भित्ति चित्रों में रोजमर्रा की जिंदगी के दृश्य हैं जो दूसरी शताब्दी में बनाए गए थे। हजारों सालों से इन दृश्यों के माध्यम से कई कलाकारों ने कल्पना को आकार दिया है। हालांकि भारतीय कला, जीवन की इस दृष्टि के लिए गहराई से ऋ णी है लेकिन आज कलाकारों के लिए अतीत में लगभग बाईस शताब्दियों से आने वाली कला को दोहराना संभव नहीं है। यद्यपि बोस ने शांतिनिकेतन में अपने छात्रों को कला भवन के आसपास के ग्रामीण इलाकों में रोजमर्रा की जिंदगी का पता लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जो उनके कल्पनाशील विकास के लिए एक स्रोत प्रदान करता था किन्तु उन्होंने कभी भी जोर नहीं दिया कि छात्र पिछली कलात्मक शैलियों की नकल करें। उन्होंने चीन और जापान से आने वाले समकालीन कलाकारों के साथ तकनीक के आदान-प्रदान के जरिए अपनी कला के लिए प्राकृतिक सामग्रियों के उपयोग की बात सीखी। ये विदेशी कलाकार टैगोर के 'विश्व भारती' प्रयोग की सार्वभौमिक दृष्टि से आकर्षित थे।
'हरिपुरा' पैनलों की श्रृंखला ने प्राकृतिक कला सामग्री का उपयोग करते हुए ग्रामीण भारत में देखे जाने वाले रोजमर्रा के जीवन को दर्शाया। सरल और सहज ब्रश स्ट्रोक के साथ चित्रित विषय इन अर्थों में अद्वितीय हैं कि वे भारतीय और सुदूर पूर्वी कला परंपराओं के संयोग से अपनी ताकत प्राप्त करते हैं।
नंदलाल बोस, अबनींद्रनाथ टैगोर के छात्र थे और स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित थे। स्वदेशी आंदोलन 1905 में शुरू हुआ था जब बोस नौजवान थे। बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट शैली, जिसने अतीत में भारतीय कला की उपलब्धियों की ओर लौटने की कोशिश की, उन उत्साही लोगों की याद दिलाती है जिन्होंने औद्योगिक क्रांति के खिलाफ प्रतिक्रिया देने वाले इंग्लैंड के पूर्व-राफेलाइट पुनरुत्थानवादी कला को प्रेरित किया था। जॉन रस्किन (1819-1900) ने एडवर्ड बर्न-जोन्स (1833-1898) और विलियम मॉरिस (1834-1896) के साथ सौंदर्यशास्त्र के लिए एक आकर्षक दृष्टिकोण विकसित किया जिसके बारे में उनका मानना था कि यह गोथिक कला की भावना व्यक्त करता एक खोई हुई औद्योगिक-पूर्व संस्कृति को पुर्नप्राप्त करने तथा प्रकृति के साथ सद्भाव बनाने के लिए पुराने समय में वापस लौटने का प्रयास है। इस रोमांटिक प्रयास की समस्या यह थी कि इसमें ब्रिटिश संस्कृति के वर्तमान और भविष्य के साथ वास्तविक जुड़ाव का अभाव था। बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट, हालांकि एक भारतीय शैली के लिए जमीन तैयार कर रहा था लेकिन उस जोश और सहज ऊर्जा की कमी थी जो नंदलाल बोस की कला में देखी जा सकती है।
बोस का काम उनके समकालीन जैमिनी रॉय की तरह अतीत की नकल से अलग था। जैमिनी रॉय ने भी अबनींद्रनाथ टैगोर से शिक्षा प्राप्त की थी। इन कलाकारों ने समकालीन लोक कला में एक भारतीय पहचान खोजने की कोशिश की। हरिपुरा पैनल जिस तरह से गांव की रोजमर्रा की संस्कृति के जीवन को दिखाते हैं वह जीन-फ्रेंकोइस मिलेट (1814-1875) की कला की याद दिलाता है जिन्होंने अपने समय की पेरिस अकादमिक कला के ऐतिहासिक विषय-वस्तु को तोड़ दिया था। उन्होंने अपनी मूल ग्रामीण संस्कृति को फिर से खोजा, उसे चित्रित किया तथा किसानों की रोजमर्रा की जिंदगी को प्रतिष्ठित किया। वर्तमान स्थिति के लिए इस दृष्टिकोण ने वान गाग की कला को गहराई से प्रभावित किया।
कला का लोकतंत्रीकरण, लोक संस्कृति से आकर्षित होता है जो प्रकृति के चक्रों के नजदीक रहने वालों की वास्तविकताओं के साथ सीधे संपर्क में है। यह एक आधुनिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है जो समकालीन वास्तविकता से प्रेरणा लेता है। इस तरह की कला आज की राजनीतिक चिंताओं से जुड़े लोगों के लिए अधिक सुलभ होने के कारण एक ऊर्जा है जो सामाजिक रूप से व्यस्त दृष्टि का स्रोत है। नंदलाल बोस की कला को इस अर्थ में देखा जा सकता है जिसे आनंद कुमारस्वामी (1877-1947) ने एक 'सच्चा स्वदेशी' कहा था जो एक काल्पनिक अतीत से प्राप्त 'झूठे स्वदेशी' के विपरीत है। यही नंदलाल बोस का महत्व है और यह आज के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वातावरण के लिए गहन संदेश देता है।
(लेखक कला शिक्षक हैं। सिंडिकेट : द बिलियन प्रेस)


