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देसी तेल का खेल

दुनिया में तेल की खोज 1859 में मानी जाती है। भारत में 1967 से ही असम में तेल निकलने लगा था

देसी तेल का खेल
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- अरविन्द मोहन

दुनिया में तेल की खोज 1859 में मानी जाती है। भारत में 1967 से ही असम में तेल निकलने लगा था, अर्थात दस साल के अंदर ही। लेकिन तब से भारत में तेल की खोज और निकासी का काम सामान्य रफ्तार से नहीं हुआ। बाद में इस चीज की जरूरत महसूस होने पर तेल और पेट्रोलियम गैस निगम की स्थापना हुई जो आज सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी है।

खबर दसेक दिन पहले आई थी लेकिन किसी भी अखबार और चैनल पर चर्चा नदारद रही। दस दिन बाद एक अंग्रेजी अखबार ने खबर छापी है तो उसके उसे ऋणात्मक पक्ष की चर्चा नदारद है जो असल में खबर है। और यह पक्ष है कि भारत भले ही मेक इंडिया का शोर मचाए उसकी तेल के मामले में विदेशों पर निर्भरता बढ़ती गई है और वह देसी उत्पादन में पिछड़ता जा रहा है। नब्बे के दशक तक भारत अपनी जरूरत का एक तिहाई पेट्रोलियम देसी स्रोतों से जुटा लेता था जो अब बारह फीसदी से जरा ऊपर रह गया है। इस बीच बाम्बे हाई के तेल और गैस का उत्पादन भी बढ़ा है। पर दो चीजें हुई हैं-एक तो तेल की खपत ज्यादा तेजी से बढ़ी है (इस साल भी करीब दस फीसदी वृद्धि बताई गई है)। दूसरे ऊर्जा के दूसरे स्रोतों की तलाश और उपयोग का काम ढीला छोड़ दिया गया है। भारत ने 2022-23 में कुल 158 अरब डालर का तेल आयात किया जबकि 2021-22 में यह 121 अरब डालर का था। इस अवधि में देसी उत्पादन का हिस्सा 85.5 फीसदी से बढ़ाकर 87.3 फीसदी रह गया है। 2018-19 में यह 83.8 फीसदी था अर्थात पांच सालों में पांच फीसदी की गिरावट आई है जबकि पिछले एक साल में ही लगभग दो फीसदी की कमी हो गई है।

पहले हम सार्वजनिक परिवहन की जगह निजी परिवहन को बढ़ावा देने जैसी नीतिगत कमियों का शोर मचाते थे लेकिन अब तो यही लगता है कि तेल आयात का खेल अर्थव्यवस्था से ज्यादा सरकार को रास आ रहा है और इसमें देश का चाहे जितना धन बाहर जाता हो सरकार अपने लिए कर राजस्व से खजाना भरने का जो रास्ता खोज चुकी है वह उसे लाभदायक लग रहा है। दुनिया में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत गिरने के बावजूद सरकार ने ग्राहकों को वह लाभ नहीं दिया और पंद्रह लाख करोड़ से ज्यादा का कर राजस्व बढ़ा लिया। और इस बार तो एक और खेल हुआ है जिसका ब्यौरा अभी तक बहुत साफ ढंग से उपलब्ध भी नहीं कराया गया है। सरकार ने यूक्रेन युद्ध के चलते संकट में फंसे रूस से रियायती दर पर तेल खरीदना शुरू किया है। ऐसा दुनिया के अनेक ऐसे देशों ने भी किया है जो यक्रेन के पक्ष में खड़े दिखते हैं। इसलिए उस नैतिकता वाले पक्ष को ज्यादा भाव नहीं दिया जा सकता। जिस रफ्तार में रूस हमारा सबसे बड़ा तेल निर्यातक बना है वह चौंकाने वाला है और भले ही दुनिया को यह बताना जरूरी न हों कि संकट के समय रूस किस दर से तेल हमें बेच रहा है। लेकिन इस सस्ते तेल का लाभ तो भारतीय उपभोक्ताओं को मिलना चाहिए।

यह इस मामले का एक पहलू है लेकिन बड़ा नहीं है। दुनिया में तेल की खोज 1859 में मानी जाती है। भारत में 1967 से ही असम में तेल निकलने लगा था, अर्थात दस साल के अंदर ही। लेकिन तब से भारत में तेल की खोज और निकासी का काम सामान्य रफ्तार से नहीं हुआ। बाद में इस चीज की जरूरत महसूस होने पर तेल और पेट्रोलियम गैस निगम की स्थापना हुई जो आज सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी है। शुरू में काम तेजी से हुआ लेकिन नए इलाकों में अपेक्षा से कम लाभ दिखने से यह मंदा पड़ा। धीरे-धीरे सरकारी कंपनियां तेल आयात करके और साफ करके बेचने के खेल में जुड़ गईं जो मुनाफा देता ही देता है। फिर इस काम में निजी क्षेत्र को भी लगाया गया। तब यह माना गया कि सरकारी कंपनी को पीछे करके निजी कंपनियों को आगे किया जा रहा है। उन कंपनियों से उत्पादन के 'बाई बैक' सौदे जिस दर पर हुए उसकी भी चर्चा रही। एक बार तेल की कीमत विदेशी बाजार में ऊपर पहुंचते ही इन कंपनियों को भी ऊंची कीमत पर माल बेचने की इजाजत दे दी गई। बीच में यह शिकायत भी आई कि खुली बिक्री की इजाजत न होने से उन्होंने तेल का उत्पादन कम कर दिया। और जब सरकारों ने तेल की कीमतें बढ़ाने पर अपनी झोली भरनी शुरू कर दी तो यह चर्चा भी गायब हो गई।

इस पूरे झमेले में देसी उत्पादन का मसाला ही कहीं पीछे छूट गया। और अब लगता है कि कुछ सालों में ही हमारा अपना उत्पादन दिखाने या सूंघने भर का रह जाएगा। कोई कह सकता है कि आज खपत ज्यादा तेजी से बढ़ी है। देसी उत्पादन उस रफ्तार से पिछड़ा है। यह बात सही हो सकती है। पर खपत बढ़ने की चिंता हमारे कर्ताधर्ताओं को दिखती नहीं है। वे आपदा में अवसर देखते हुए हर संकट में खजाना भरने में लगे है। निश्चित रूप से खपत बढ़ाने वाली एक चीज सार्वजनिक की जगह निजी परिवहन है। आर्थिक गतिविधियों का बढ़ना एक जायज वजह है। फिर यह भी हुआ है कि देश में तेल उत्पादन की क्षमता तो ज्यादा नहीं बढ़ी, रिफाइनिंग क्षमता ज्यादा तेजी से बढ़ी है। इसलिए पेट्रोलियम आयात के साथ निर्यात भी बढ़ा है। लेकिन यह भी हुआ है कि देश में सबसे ज्यादा कोयला होते हुए भी हम विदेशी कोयले का आयात बढ़ाते जा रहे हैं। इसी तरह के एक सौदे में प्रधानमंत्री ने अपने मित्र गौतम अडानी को आस्ट्रेलिया में एक खदान का सौदा कराने के बाद स्टेट बैंक से हजारों करोड़ का ऋण देने की घोषणा की जिसकी काफी चर्चा होती रही है।

ऐसी चर्चा श्रीलंका में उनको बिजली का ठेका दिलाने की पैरवी की नहीं हुई जबकि इस प्रकरण को सार्वजनिक करने वाले राजनयिक की छुट्टी भी हो गई। और माना जाता है कि अडानी समूह समेत की निजी बिजली कंपनियों से 'बाई-बैक गारंटी' वाला करार होने के चलते (ऐसे काफी सारे करार यूपी शासन के समय के भी हैं) सरकार के हाथ बांध से गए हैं और वह ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को आगे बढ़ाने का काम उस रफ्तार में नहीं कर रही है जैसा कि होना चाहिए। बाई बैक सौदे छह रुपए यूनिट के हैं जबकि आजकल बैटरी की क्वालिटी सुधारने से सोलर बिजली दो से ढाई रुपए यूनिट तक पर बनाने लगी है। अपने यहां सूर्य की रोशनी की उपलब्धता जैसी है उसमें सोलर बिजली हमारे लिए सबसे उपयुक्त है पर जब गले में छह रुपए यूनिट का पत्थर बंधा हों तो इस तरफ ध्यान देना कहां संभव है। और जब तेल आयात सरकार और उसकी कंपनियां ही नहीं उसकी चहेती निजी कंपनियों के लिए भारी लाभ का सौदा है तो वह देसी उत्पादन के लिए प्रयास क्यों करे?


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