बाबूजी,ललित भैया और मैं
शायद 1970-71 की बात होगी। बाबूजी भारत-सोवियत मैत्री संघ (इस्कस) के प्रादेशिक प्रमुख थे

- गिरिजाशंकर
शायद 1970-71 की बात होगी। बाबूजी भारत-सोवियत मैत्री संघ (इस्कस) के प्रादेशिक प्रमुख थे। रायपुर के कॉफ़ी हाउस में इसी संस्था की बैठक थी, जिसमें मैं भी शामिल था। बैठक के बाद बाबूजी ने मुझसे कहा कि इस बैठक की एक खबर बना लो। बाबूजी ने यह मुझे काम क्यों सौंपा, पता नहीं क्योंकि मेरा पत्रकारिता से कोई नाता नहीं था। बहरहाल शाम को मैं ख़बर बनाकर उन्हें दिखाने देशबन्धु अख़बार - जिसके वे प्रधान संपादक थे, के दफ़्तर में गया। उन्होंने वह ख़बर पढ़ी और किसी को बुलाकर उसे अखबार में छपने भेज दिया। अगले दिन दो कालम में वह खबर छपी थी। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था कि मेरी लिखी खबर को बाबूजी ने बिना किसी संशोधन के पसंद किया और वह अख़बार में छप भी गई। मेरे पत्रकार बनने का इसे श्री गणेश कह सकते हैं।
तब ललित भैया हॉल में बैठते थे। बाबूजी के केबिन में उसके बाद मेरा निर्बाध आना जाना होने लगा। 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सीपीआई के बीच समझौता हुआ जिसके तहत रायपुर विधानसभा सीट कम्युनिस्ट पार्टी के सुधीर मुखर्जी के लिये कांग्रेस ने छोड़ दी थी और चुनाव में सहयोग भी कर रही थी। बाबूजी यानी मायाराम सुरजन का कांग्रेस व कम्युनिस्ट दोनों ही पार्टियों में अत्यधिक सम्मान था। लिहाजा इस चुनाव के वे एक तरह से समन्वयक थे। कम्युनिस्ट पार्टी में होने के कारण इस चुनाव के सिलसिले में मेरा बाबूजी के पास आना जाना और बढ़ गया। तब मुझे बाबूजी के क्रोध का कोई अनुमान नहीं था। हालांकि मुझे उनकी डांट जीवन में कभी नहीं झेलना पड़ी, जबकि उनके गुस्से की चर्चा मैं हर जगह सुनता रहता था।
काम के स्तर पर बाबूजी और ललित भैया के बीच कुछ असहमतियां रहती थी और मैं दोनों के बीच में सेतु का काम करता था, बावजूद इसके कि बाबूजी की निगाह में मैं ”ललित का आदमी“ था, बाबूजी के सुबह उठने से लेकर रात सोने तक मैं पूरे वक़्त उनके साथ रहता। आप सोच रहे होंगे कि मुझे ललित भैया पर लिखना है और मैं बाबूजी की बातें कर रहा हूँ। बाबूजी की बात तो करना ही था क्योंकि उनके बिना न मैं, और न ललित भैया कुछ थे। बहरहाल विधानसभा चुनाव के बाद बाबूजी का रायपुर रहना कम होने लगा और हॉल में बैठने वाले ललित भैया उनकी केबिन में बैठने लगे। ललित भैया से अधिक संपर्क नहीं होने के बाद भी बाबूजी की तरह कब उनसे मेरी निकटता हो गई, मुझे याद नहीं। हाँ, बाबूजी की तरह उनके पास मेरा आना जाना बढ़ता रहा और मैं उनके कुछ अधिक करीब होता चला गया।
इधर मेरी नौकरी जीवन बीमा में लग गई थी और मैं थियेटर में सक्रिय हो गया था। प्रख्यात नाटककार मोहन राकेश की स्मृति में नाट्य समारोह हमने आयोजित किया गया। तब तक ललित भैया से इतनी निकटता हो गई थी कि वे मेरे मार्गदर्शक से अभिभावक हो गए थे। दिसंबर की ठंड में एक दिन मैं और मेरा एक साथी सुबह 7 बजे समारोह की तैयारी में निकल रहे थे और उससे पहले ललित भैया से मिलने गए। यह मेरा लगभग रोज़ का सिलसिला बन गया था। हम लोग बातें कर रहे थे, तभी माया भाभी अंदर गई और अपने कमरे से एक शॉल लाकर मुझे ओढ़ाया और कहा कि इतनी ठंडी में बिना गरम कपड़े के तुम जा रहे हो। ऐसा दुलार तो मैंने अपने जीवन में पहली बार पाया था।
ललित भैया हमारे नाटकों में नियमित रूप से आते रहे। हालांकि तब उनका सार्वजनिक जीवन देशबंधु तक ही सीमित था। नाटक हो या न हो, मैं रोज ही शाम को ललित भैया के पास जाने लगा और उनके चेम्बर मैं बैठने लगा। बाबूजी या ललित भैया के चेम्बर में इस तरह जाना और वहां बैठना किसी के लिये भी आसान नहीं था। मैं तो अपनी नासमझी में ऐसा करता रहा और बाबूजी और भैया - दोनों ने मेरी नासमझी को मेरे अधिकार में बदल दिया। उनके द्वारा दिये गये इसी स्नेह भरे अधिकार के चलते मैं जीवन बीमा निगम की स्थायी सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर देशबन्धु में आ गया।
तब देशबन्धु नहरपारा में स्थित एक गोदामनुमा इमारत से निकलता था, जिसका का पूरा ढांचा लकड़ी का था। भौतिक साधनों के लिहाज से देशबन्धु उतना समृद्ध नहीं था, लेकिन बौद्धिक व पत्रकारिता के स्तर पर तब भी पूरे देश में देशबन्धु की अलग प्रतिष्ठा थी। बाबूजी यानी मायाराम सुरजन जी की जो प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि पत्रकारिता जगत में रही, वह बहुत कम पत्रकारों को हासिल हो पाती है। इस सम्मान और प्रतिष्ठा को ललित भैया ने न केवल कायम रखा बल्कि उसे और विस्तार दिया। बाबूजी और भैया के अलावा देशबन्धु में रामाश्रय उपाध्याय - जो पंडित जी के नाम से जाने जाते थे, राजनारायण मिश्र, सत्येन्द्र गुमाश्ता जैसे पत्रकार स्थायी स्तंभ थे जिनका अपना-अपना आभामंडल थे। इनके नियमित स्तंभों को पढ़ने व पसंद करने वाला अनेक व्यापक पाठक समूह हुआ करते थे।
ऐसे अति विशिष्ट और प्रतिभावान पत्रकारों के सानिध्य में अपनी पत्रकारिता शुरू करने का मौका ललित भैया ने मुझे दिया था जो किसी भी सुरक्षित, स्थायी और सरकारी नौकरी की तुलना में मुझे बेहतर लगा था। हालांकि उस समय की मेरी पारिवारिक और आर्थिक स्थिति ऐसा निर्णय लेने की इजाज़त नहीं देती थी। फिर भी ललित भइया और माया भाभी के स्नेह ने ऐसी ताकत मुझमें भर दी थी कि मैं दुस्साहिक निर्णय लेते हुए पत्रकारिता जैसे असुरक्षित पेशे में आ गया।
तब संपादक और रिपोर्टर के बीच जीवंत रिश्ता होता था। किसी और अखबार का तो पता नहीं लेकिन देशबन्धु में ललित भइया के साथ एक-एक खबरों को लेकर लगातार विमर्श होता। इस विमर्श में पत्रकारिता की जो सीख ललित भैया से मिली, वह किसी पत्रकारिता संस्थान व स्कूल में भी पाने की कल्पना नहीं की जा सकती। ख़बर कैसे और कहां से निकलती है, उसे कैसे डेवलप किया जाये, किन-किन कोणों से उसकी पड़ताल होनी है, उसकी भाषा क्या हो से लेकर खबर का सामाजिक सरोकार का ज्ञान ललित भैया से हर पल मिलता रहता।
पत्रकारिता के संस्कार उन्हें बाबूजी से विरासत में मिले थे। बाबूजी की तरह उन्होंने कभी फील्ड में जाकर रिपोर्टिंग की हो, ऐसा मुझे याद नहीं है, लेकिन फील्ड में रिपोर्टिंग कैसे की जाती है - इसके वे अपने आप में स्कूल थे। उनका पत्रकारिता का ज्ञान और उसकी व्यवहारिक समझ किसी को भी चमत्कृत कर देने वाला होता। फिर उनकी जानकारियों का कोष इतना समृद्ध था कि हर घटना का पूरा विवरण उन्हें कंठस्थ याद रहता। खासकर विश्व परिदृश्य का इतना ज्ञान उनको था कि वे इनसाइक्लोपीडिया लगते थे। आजकल जिस तरह हम लोग छोटी-मोटी जानकारियों के लिए गूगल बाबा की शरण में जाते रहते हैं, मैंने ललित भइया को कभी किसी संदर्भ ग्रंथ का सहारा लेते नहीं देखा, सब कुछ मय तारीख के उनकी स्मृति में समाया रहता।
उनकी याददाश्त का यह कमाल हर रोज तब देखने को मिलता जब संपादकीय लिखना होता था। हर घटना की पूरी पृष्ठभूमि और वर्तमान परिदृश्य वे धाराप्रवाह बोलते जाते और हम लोग, मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहते। उसमें जो जितना सीख सके, यह उस पर निर्भर करता था। दरअसल यही हमारी संपादकीय बैठक होती थी। संपादकीय तो पंडित जी लिखते थे, लेकिन उस पर चर्चा पूरी संपादकीय टीम करती थी।
प्रेस या पत्रकार की स्वतंत्रता क्या होती है, यह देशबन्धु में देखा जा सकता था। ख़बरों के स्तर पर, पेज ले-आउट के स्तर पर, खबरों की प्रस्तुति के स्तर पर पूरी छूट थी। बल्कि नये-नये प्रयोग के लिये ललित भैया स्वयं प्रोत्साहित करते थे। दिल्ली में पेज ले-आउट का एक माह का कोर्स था। भैया ने जब मुझे वहां जाने को कहा तो मेरा सवाल था कि रिपोर्टर का ले-आउट से क्या लेना-देना, तो उन्होंने कहा कि रिपोर्टर को यह समझ भी होनी चाहिए कि पेज पर उस ख़बर को कैसे प्रस्तुत किया जाए। पत्रकारिता का देश में कहीं भी आयोजित होने वाला कोई भी प्रशिक्षण कार्यक्रम हो, ललित भैया हम लोगों को अख़बार के खर्च पर वहां भेजते थे।
तब ग्रामीण पत्रकारिता जैसी कोई विधा विकसित नहीं हुई थी। इस विधा को ललित भैया ने पूरे देश की पत्रकारिता में स्थापित किया। बस्तर के आदिवासी जीवन की रिपोर्टिंग पर मुझे स्टेट्समेन का राष्ट्रीय ग्रामीण पत्रकारिता पुरस्कार मिला। लगभग एक दशक तक यह पुरस्कार हर वर्ष देशबन्धु के रिपोर्टरों को मिलता रहा। फांसी की आंखों देखी रिपोर्टिंग करने का दुर्लभ अवसर ललित भइया के प्रोत्साहन और सीख के चलते हमें मिल सका।
ख़बर कैसे निकलती है, इसका एक उदाहरण देना जरूरी है। एक दिन देशबन्धु में 'संपादक के नाम पत्र' स्तंभ में चार-पांच लाइन की एक चिट्ठी छपी थी कि रायगढ़ ज़िले के लुड़ेग में दो आने में टोकरा भर टमाटर बिक रहा है। इस पत्र पर उनकी नजर पड़ी और इस खबर के लिये मुझे रायगढ़ जिले के दुर्गम आदिवासी इलाके में भेज दिया, जहां तक पहुंचने के लिये आवागमन के साधन तक सुलभ नहीं थे। वहां मैंने देखा कि एक रुपये में 10-15 किलो टमाटर उड़ीसा, बिहार, बंगाल आदि के व्यापारी खरीद कर ट्रकों में भरकर ले जा रहे हैं। लौटकर मैंनेरिपोर्ट तैयार की ओर जब वह प्रकाशित हुई तो पूरे देश में तहलका मच गया। तब देशबन्धु की विश्वसनीयता का आलम यह था कि ख़बर पढ़कर अगले दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह उस गांव पहुंच गए और टमाटर की उचित कीमत दिलाने व साॅस- केचप फैक्ट्री खोलने की घोषणा की। यह और बात है उस घटना को बीते 4 दशक हो गए लेकिन कुछ नहीं खुला।
खबरों को लेकर बाबूजी से जुड़ी एक घटना का जिक्र समीचीन होगा। 1977 के लोकसभा चुनाव हो रहे थे। चुनाव प्रचार के दौरान आधी रात को दो दलों के कार्यकर्ताओं के बीच पथराव और चाकूबाजी की घटना हो गई। हम लोग नाइट ड्यूटी में थे। मुझे देशबन्धु में पूर्णकालिक हुए एक ही साल हुआ था। इस खबर को किस तरह दिया जाए, मुझे समझ में नहीं आ रहा था। मैंने बाबूजी को फोन लगाया। वे नींद से उठकर रात एक बजे प्रेस आये और पूरी खबर उन्होंने खुद बनाई। ऐसा कोई अखबार मालिक नहीं खांटी पत्रकार ही कर सकता था। बाबूजी और ललित भैया को हमने ऐसे ही खांटी पत्रकार और संपादक के रूप में देखा और उनसे पत्रकारिता सीखी।
बाबूजी और ललित भैया देशबन्धु के मालिक भी थे लेकिन उनकी पत्रकारिता पर उनका मालिक होना कभी हावी नहीं हुआ। दल्ली राजहरा में निजी ठेकेदारों के खिलाफ शंकर गुहा नियोगी का आंदोलन चल रहा था। फील्ड में जाकर मैंने रिपोर्ट तैयार की। उस खबर को रुकवाने के लिये कुछ ठेकेदार बाबूजी के पास पहुंचे और एक बड़ी राशि देशबन्धु की आजीवन सदस्यता के लिये देने की पेशकश की। उन दिनों छपाई की नई मशीन खरीदने के लिये बाबूजी खुद गांव-गांव शहर जाकर आजीवन सदस्य बनाने में लगे हुए थे। उस दौर में भी उन्होंने ठेकेदार की पेशकश ठुकरा दी और अगले दिन पूरे पेज पर शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई।
एक और वाकया, प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह अपने एक महत्वाकांक्षी राजनीतिक कार्यक्रम में सोनाखान आ रहे थे। मैंने वहां के आदिवासियों की दुर्दशा पर रिपोर्ट तैयार की थी। बाबूजी का अर्जुन सिंह बहुत आदर करते थे तथा दोनों के बीच बहुत घनिष्ठ संबंध थे। चूंकि वह स्टोरी अर्जुनसिंह को आहत करने वाली थी, इसलिये मुझे लगा था कि यह रोक दी जायेगी। ललित भैया ने कॉपी देखी और उसे और धारदार बनवाया। वह स्टोरी उसी दिन पहले पेज पर छपी जिस दिन मुख्यमंत्री आने वाले थे। पत्रकारिता का यह साहस देश की पत्रकारिता में दुर्लभ था और यही साहस बाबूजी और ललित भैया ने हम लोगों में पैदा किया।
देशबन्धु अपने साप्ताहिक साहित्यिक अंक के लिये जाना जाता था। ललित भैया स्वयं कवि थे, लेकिन इन अंकों के संपादन में वे छत्तीसगढ़ अंचल के वरिष्ठ रचनाकारों को जोड़ते।देशबन्धु का होली, दीपावली अंक का प्रकाशन संग्रहणीय होने के साथ-साथ किसी उत्सव से कम नहीं होता था। शहर व अंचल के दर्जनों साहित्यकार व बुद्धिजीवी देशबन्धु कार्यालय में एकत्र होते और मिलकर अंक की तैयारियां करते। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता जिसमें सबका एक साथ भोजन करना व गप्पें लगाना शामिल रहता। कवि और लेखकों की एक पूरी पीढ़ी तैयार करने में ललित भइया और देशबन्धु का महत्वपूर्ण योगदान रहा। प्रगतिशील लेखक संघ तथा मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अगुवाई करते हुए उन्होंने पूरे छत्तीसगढ़ के गांव-गांव तक साहित्यिक चेतना पैदा करने का ऐतिहासिक काम किया। उनकी यह भूमिका बाबूजी की परंपरा का विस्तार था।
किसी संस्थान को परिवार कैसे बनाया जाता है, यह ललित भैया के प्रबंधन का अद्भुत गुण था। संपादकीय व प्रबंधन विभाग से इतर, कंपोजिंग, प्रिंटिंग तथा अन्य यूनिटों में काम करने वाले कर्मचारियों के स्कूली बच्चों की यूनिफार्म, किताब, कापी आदि की व्यवस्था वे स्वयं करते थे। (तब सरकारें यह काम नहीं करती थी) इतना ही नहीं उन बच्चों की प्रगति रिपोर्ट खुद देखते और जो बच्चा पढ़ाई में कमजोर होता, उसके लिये अतिरिक्त पढ़ाई की व्यवस्था करवाते तथा उन सभी बच्चों की आगे की पढ़ाई सुनिश्चित करते थे। शराब या किसी भी नशे से उन्हें नफ़रत थी। वे कोशिश करते कि देशबन्धु में काम करने वाले ऐसे व्यसनों से दूर रहें। फिर भी जो ऐसा नहीं कर पाते थे, उनका वेतन उनको न देकर उनके घर भिजवाया करते थे। गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस आदि में जब अखबार की छुट्टियां होती, उस दिन पूरे प्रेस के सभी कर्मचारियों को सपरिवार पिकनिक पर ले जाते ताकि सभी पारिवारिक रूप से जुड़ जाएं। यह परंपरा देशबन्धु की विशिष्ट पहचान बन गई थी।
पत्रकारिता के शुरूआती दौर में बिगड़ने और बहकने के नाना प्रकार के ख़तरे हर पत्रकार के सामने होते हैं। ऐसे दौर में इस ख़तरे से हमेशा बचे रहना मुझे बाबूजी और ललित भैया ने सिखाया और यही सीख ही मेरी ताकत रही है।


