लोकतंत्र के साथ मज़ाक तो अर्से से हो रहा है, मी लॉर्ड!
वर्तमान चीफ जस्टिस को देश में लोकतंत्र व न्याय के दृष्टिकोण से आशा की अंतिम किरण के रूप में देखा जा रहा है

- डॉ. दीपक पाचपोर
वर्तमान चीफ जस्टिस को देश में लोकतंत्र व न्याय के दृष्टिकोण से आशा की अंतिम किरण के रूप में देखा जा रहा है। फिर भी कई बार ऐसे फैसले आते हैं, या फिर अपेक्षित निर्णय नहीं आते, कि उससे हैरत तो होती ही है, निराशा भी कम नहीं होती। न्यायपालिका से जनता की आशाओं का पूरा न होने से बढ़कर लोकतंत्र व कानून का दूसरा कोई बड़ा मज़ाक नहीं हो सकता; और वह अक्सर होता रहता है।
हाल ही में चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में जिस प्रकार से पीठासीन अधिकारी ने कांग्रेस एवं आम आदमी पार्टी के 8 वोटों को साफ जान पड़ती दुर्भावना तथा षड़यंत्रपूर्वक रद्द करते हुए भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार को विजयी घोषित किया, उससे सियासी तूफान तो पहले से ही उठा हुआ था, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि, 'यह लोकतंत्र के साथ मज़ाक है। लोकतंत्र की हत्या है।' दरअसल यह मामला आप के मेयर पद के उम्मीदवार रहे कुलदीप कुमार द्वारा उच्चतम न्यायालय ले जाया गया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पार्दीवाला एवं जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने सुनवाई के दौरान वकील अभिषेक मनु संघवी द्वारा पेश किया गया वह वीडियो देखा जिसमें पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह 8 बार अपना पेन इधर-उधर घुमाते दिखाई दे रहे हैं। इतने ही वोट अवैध बतलाकर निरस्त कर दिये गये जबकि चंडीगढ़ नगर निगम में कांग्रेस-आप के पास 20 एवं भाजपा के पास 16 वोट हैं। इतने वोट रद्द कराकर भाजपा उम्मीदवार को विजयी घोषित कराना सारी कहानी को साफ-साफ बयां करता है।
इस वीडियो को देखकर नाराज़ न्यायाधीशों ने अनेक प्रकार की सख्त टिप्पणियां की हैं और कई तरह के निर्देश भी दिये हैं। पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट को न्याय करने में असफल करार देते हुए कहा कि निर्वाचन प्रक्रिया का पूरा रिकार्ड सुरक्षित रूप से हाईकोर्ट के पास जमा कराया जाये। सुको ने नगर निगम की सभी अगली कार्रवाइयों पर रोक भी लगा दी है। शीर्ष कोर्ट ने सरकारी वकील को कहा है कि वे 'पीठासीन अधिकारी को बतलाएं कि उन्हें न्यायालय देख रहा है।' अगली सुनवाई में उन्हें स्वयं सुप्रीम कोर्ट में उपस्थित रहने के निर्देश भी दिये गये हैं, जो कि 12 फरवरी को निर्धारित की गयी है। देखना तो यह है कि सर्वोच्च अदालत ने जितनी सख्त टिप्पणी की है, सज़ा भी उतनी ही सख्त होने जा रही है या फिर किसी न किसी आधार पर अपराध की गम्भीरता को कमतर मानते हुए चंडीगढ़ मेयर चुनाव के पीठासीन अधिकारी की सज़ा को भी नरम सी, हल्की-फुल्की, चेतावनी जैसा कुछ जारी कर दिया जायेगा अथवा फिर माफी ही दे दी जायेगी?
सवाल तो यह है कि कोर्ट-कचहरी की एक मुकम्मल व्यवस्था के रहते हुए एक अधिकारी नियमों की ऐसी धज्जियां उड़ाने की हिम्मत कर कैसे सकता है? जाहिर है, जो जिम्मेदार पद पर बैठा है, वह कानूनी प्रावधानों को जानता ही होगा। आखिरकार नियमों से तो वह कतई अनभिज्ञ नहीं होगा। असली में वह चारों ओर देख रहा है कि सभी तरह के नियमों व कानूनों को तोड़ने वाली राजनीतिक शक्तियां विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, स्वायत्त संस्थाओं एवं संवैधानिक संस्थानों पर इस कदर हावी हैं कि इन सभी का काम केवल सत्ता एवं सत्तारुढ़ भाजपा की हां में हां मिलाना रह गया है। अब तो ऐसा कोई भी मंच नहीं रह गया है जहां लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाने वाले तत्व धमाल न मचा रहे हों।
संसद में न केवल महिला पहलवानों के उत्पीड़न के आरोपी शान से बैठते हैं बल्कि सत्ताधारी दल के एक सदस्य अल्पसंख्यक विपक्षी सदस्य को संप्रदाय से जुड़ी भद्दी व असंसदीय गालियां देते हैं। उसी सदन में वे लोग भी मंत्री बनकर बैठे हुए हैं जिनका बेटा सरेआम अपने वाहन से आंदोलन कर रहे किसानों को कुचल देता है। एक राज्य में कद्दावर नेता के पुत्र अधिकारी को बीच सड़क पर बैट से भरपूर मारते हैं और कोई कार्रवाई तक नहीं होती। दंगों व सामूहिक बलात्कार के आरोपियों की सज़ा अच्छे चाल-चलन के आधार पर माफ कर दी जाती है तो वहीं बलात्कार-हत्या का आरोपी एक कथित संत हर दो-चार माह में पैरोल पर निकल आता है और अपने आश्रम में कुछ समय बिताकर जेल लौट जाता है।
पिछले कुछ दिनों से लोकतंत्र की हत्या और उसके साथ मखौल कुछ ज्यादा ही बढ़ चला है, इतना कि सारा देश ही उसका आनंद उठा रहा है। न्यायपालिका को तेजी से कार्यपालिका स्थानापन्न कर रही है और सज़ा दिलाने के लिये आरोपियों को न्यायाधीश के सम्मुख खड़ा करने के बजाये खुद ही बुलडोज़र चला रही है। सुको को इस बात पर भी गुस्सा नहीं आता कि उसकी जगह विध्वंसक मशीनों ने ले रखी है। आरोपी के साथ पूरे परिवार को बेघर करने के पीछे कौन सा कानून व तर्क काम करता है और कार्यपालिका कब से न्यायपालिका की जिम्मेदारियां निभाने लग गया है, यह सभी जानते हैं।
यह देखकर अब न्यायपालिका ने हैरत में पड़ना बन्द कर दिया है कि किसी का भी अवैध निर्माण किसी राज्य सरकार व प्रशासन को तभी क्यों दिखलाई पड़ता है जब उसे पता चलता है कि आरोपी अल्पसंख्यक है अथवा किसी गैर भाजपायी दल से उसका सम्बन्ध है। लोकतंत्र के साथ मज़ाक तो तब भी हुआ था जब हेट स्पीच करने वाले एक केन्द्रीय मंत्री व सांसद को यह कहकर बरी कर दिया गया था कि 'बयान मुस्कुराकर दिया गया है, लिहाज़ा वह अपराध की श्रेणी में नहीं आता।' उससे बड़ा मज़ाक तो तब भी होते हैं जब सत्ता दल से जुड़े लोगों के चुनावी भाषणों के खिलाफ की गयी शिकायतों को निर्वाचन आयोग तब तक नहीं सुनता जब तक कि चुनाव लगभग पूरे नहीं हो जाते, जबकि विपक्षी दलों के नेताओं के बयानों को शीघ्रता से संज्ञान में लिया जाता है।
देश में लोकतंत्र की हत्याओं की वेरायटी और उसके साथ होने वाले मज़ाकों की रेंज असीम है। राज्यपालों का ही देखें तो उनके द्वारा विवेकाधिकार के मनमाने उपयोग के खिलाफ कई तरह की शिकायतें पहुंचती हैं परन्तु फैसले वे ही आते हैं जो भाजपा की सुविधा वाले होते हैं। न जाने कितने ही पत्रकार, लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता, विपक्षी दलों के नेता जेलों में डाल दिये गये हैं, पर उनके फैसले तो दूर, उन्हें जमानत देने में में भी न्यायालय घबराती है। वह केवल तारीखें देती है। अब तो जनता को साफ संदेश जा चुका है कि खुद न्यायपालिका घबराई हुई सी प्रतीत होती है। ज़ाहिर है कि कुछ समय पहले इसी घबराई हुई कोर्ट के चार जस्टिसों ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस कर बतलाया था कि खास तरह के मामले एक जस्टिस विशेष की अदालत में ही जाते हैं। उनमें से एक जस्टिस बाद में मुख्य न्यायाधीश बनते हैं, एक खास फैसला सुनाते हैं और रिटायर होने के बाद सीधे राज्यसभा में जा बैठते हैं। यह न्यायपालिका द्वारा खुद के साथ किया हुआ मज़ाक है कि अब विरोधी दलों के नेताओं के विरूद्ध प्रवर्तन निदेशालय के ज्यादातर मामले एक ही जस्टिस के सामने प्रस्तुत होते हैं जिनका सम्बन्ध गुजरात से है। वह महिला जस्टिस प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान वहां जिम्मेदार पद पर थीं। इस मज़ाक की भी इन दिनों काफी चर्चा है।
बेशक, वर्तमान चीफ जस्टिस को देश में लोकतंत्र व न्याय के दृष्टिकोण से आशा की अंतिम किरण के रूप में देखा जा रहा है। फिर भी कई बार ऐसे फैसले आते हैं, या फिर अपेक्षित निर्णय नहीं आते, कि उससे हैरत तो होती ही है, निराशा भी कम नहीं होती। न्यायपालिका से जनता की आशाओं का पूरा न होने से बढ़कर लोकतंत्र व कानून का दूसरा कोई बड़ा मज़ाक नहीं हो सकता; और वह अक्सर होता रहता है। लोगों को उम्मीद है कि यदि लोकतांत्रिक प्रणाली के सभी अंग, संस्थाएं व संगठन लोकविरोधी हो जायें तो भी कम से कम न्यायपालिका नामक मशाल नागरिकों को अंधकार में रास्ता दिखाती मिलेगी। हाल में कई ऐसे मौके आये हैं जब देश में कानून को सत्ता की शह पर बेखौफ़ ठेंगा दिखाया गया लेकिन अपराधियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो पाई। उम्मीद है, मी लॉर्ड कि चंडीगढ़ मामले में ऐसा नहीं होगा!
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


