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बिहार से सबक लेकर एसआईआर प्रक्रिया में क्या सुधारात्मक बदलाव किए गए, जेआईएच का चुनाव आयोग से सवाल

चुनाव आयोग द्वारा 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की घोषणा पर जमात-ए-इस्लामी हिंद (जेआईएच) ने गंभीर चिंता व्यक्त की है

बिहार से सबक लेकर एसआईआर प्रक्रिया में क्या सुधारात्मक बदलाव किए गए, जेआईएच का चुनाव आयोग से सवाल
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नई दिल्ली। चुनाव आयोग द्वारा 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की घोषणा पर जमात-ए-इस्लामी हिंद (जेआईएच) ने गंभीर चिंता व्यक्त की है।

संगठन के उपाध्यक्ष मलिक मोतसिम खान ने चुनाव आयोग से इस पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता, निष्पक्षता और समावेशिता सुनिश्चित करने की अपील की है, ताकि मतदाताओं के नामों को बड़ी संख्या में हटाए जाने जैसी स्थिति दोबारा न उत्पन्न हो।

मलिक मोतसिम खान ने कहा कि बिहार में हाल ही में संपन्न एसआईआर प्रक्रिया गंभीर अनियमितताओं और पारदर्शिता की कमी से प्रभावित रही। उन्होंने बताया कि “शुरुआती मसौदा सूची से लगभग 65 लाख नाम हटा दिए गए थे, जो अब तक की सबसे बड़ी संख्या थी। संशोधन के बाद भी 47 लाख मतदाता सूची से बाहर रह गए।”

उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया ने नागरिकों पर प्रमाण प्रस्तुत करने का बोझ डाल दिया, जिससे यह एक तरह का “अर्ध-नागरिकता सत्यापन अभियान” बन गया। उन्होंने चेतावनी दी कि बिना सुधार किए यदि यही प्रक्रिया देशभर में लागू की गई, तो यह लोकतांत्रिक अखंडता के लिए गंभीर खतरा साबित हो सकती है।

मलिक मोतसिम खान ने चुनाव आयोग से कई अहम सवाल पूछे। उन्होंने कहा कि सबसे पहले यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि बिहार के अनुभव से क्या सबक सीखे गए हैं और वहां हुई गंभीर त्रुटियों को दोबारा न दोहराने के लिए एसआईआर की प्रक्रिया में क्या सुधारात्मक बदलाव किए गए हैं। उन्होंने इस बात पर भी सवाल उठाया कि इतनी बड़ी और संवेदनशील कवायद के लिए केवल एक महीने की समय-सीमा क्यों तय की गई है। खान ने कहा कि इतनी कम अवधि में मतदाताओं की सही पहचान और नामों के सत्यापन का कार्य निष्पक्षता से पूरा कर पाना कठिन होगा।

उन्होंने सवाल किया कि 2002-2003 को कटऑफ वर्ष के रूप में बनाए रखने का क्या आधार है, जबकि उस अवधि में नागरिकता सत्यापन की कोई प्रक्रिया नहीं हुई थी। उन्होंने इस संदर्भ में आशंका जताई कि कहीं यह प्रक्रिया “अवैध विदेशियों की पहचान” जैसे अप्रकट उद्देश्य को पूरा करने का माध्यम तो नहीं बन रही है। खान ने कहा कि इन सभी सवालों के जवाब देना चुनाव आयोग की लोकतांत्रिक जवाबदेही का हिस्सा है और इन पर पारदर्शी स्पष्टीकरण दिए बिना इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना उचित नहीं होगा।

मलिक मोतसिम खान ने यह भी पूछा कि जब सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड को नागरिकता प्रमाण के रूप में खारिज किया है, तो अन्य गैर-नागरिकता दस्तावेजों को स्वीकार क्यों किया जा रहा है? उन्होंने यह भी जानना चाहा कि 2002/2003 के मतदाता रोल में शामिल लोगों को छूट देने का असली मानक क्या है।

उन्होंने घर-घर सत्यापन प्रक्रिया पर भी संदेह जताया और पूछा कि क्या इस चरण में नए मतदाताओं को जोड़ा जाएगा और आयोग यह कैसे सुनिश्चित करेगा कि हर फॉर्म के लिए पावती रसीद दी जाए।

खान ने अधिकारियों या बीएलओ द्वारा बिना सहमति के फॉर्म भरने की खबरों का भी उल्लेख किया और पूछा कि इस तरह की जालसाजी रोकने के लिए क्या सुरक्षा उपाय किए गए हैं।

जेआईएच उपाध्यक्ष ने बिहार एसआईआर में महिला मतदाताओं की संख्या में आई गिरावट का हवाला देते हुए कहा कि आयोग को यह स्पष्ट करना चाहिए कि इस बार ऐसे नतीजों से बचने के लिए कौन से सुधारात्मक कदम उठाए गए हैं।

उन्होंने प्रवासी श्रमिकों के बहिष्करण पर भी चिंता जताई, जिन्हें गतिशीलता और दस्तावेजों की कमी के कारण अक्सर सूची से बाहर कर दिया जाता है।

खान ने यह भी पूछा कि क्या सूची से नाम हटाने से पहले मतदाताओं को पूर्व सूचना और सुनवाई का अवसर मिलेगा या फिर उन्हें “नए मतदाता” के रूप में पुनः आवेदन करने को मजबूर किया जाएगा।

उन्होंने यह भी स्पष्टता मांगी कि पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, मनरेगा जॉब कार्ड, राशन कार्ड और बैंक पासबुक जैसे पहचान दस्तावेजों को अनुमोदित सूची से क्यों हटा दिया गया है, जबकि अन्य चुनावी प्रक्रियाओं में इन्हें स्वीकार किया जाता है।

मलिक मोतसिम खान ने कहा कि चुनाव आयोग को यह बताना चाहिए कि क्या उसने एक प्रभावी डी-डुप्लीकेशन सिस्टम लागू किया है और क्या मशीन-पठनीय मसौदा व अंतिम मतदाता सूची सार्वजनिक जांच के लिए जारी की जाएगी। उन्होंने कहा कि मतदाताओं का विश्वास बनाए रखने और त्रुटियों या हेरफेर से बचने के लिए यह बेहद जरूरी है।

खान ने स्पष्ट कहा, “मतदाता सूची का संशोधन नागरिकता सत्यापन अभियान नहीं बनना चाहिए। मतदान का अधिकार भारत के प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है और इसे नौकरशाही प्रक्रियाओं से बाधित नहीं किया जाना चाहिए।”

उन्होंने चुनाव आयोग से आग्रह किया कि इन सभी मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से स्पष्टता दी जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी नागरिक को दस्तावेजों की कमी या प्रशासनिक त्रुटियों के कारण मताधिकार से वंचित न होना पड़े।


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