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नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में टीम इंडिया और खेल भावना की हार

रविवार 19 नवंबर 2023 का दिन भारत के लिए ऐतिहासिक हो सकता था

नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में टीम इंडिया और खेल भावना की हार
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रविवार 19 नवंबर 2023 का दिन भारत के लिए ऐतिहासिक हो सकता था। 1983 और 2011 की तरह टीम इंडिया क्रिकेट विश्वकप तीसरी बार जीत सकती थी। लेकिन खेल है तो हार-जीत लगी रहती है। और इस बार टीम इंडिया सभी मैचों में अपराजेय रहने के बावजूद फाइनल का मुकाबला हार गई। इसका मतलब यही है कि भारतीय टीम मजबूत है, उसके पास बेहतरीन खिलाड़ी हैं, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पास अकूत धन-संपत्ति है, जिससे वो सभी तरह की सुविधाएं और साधन खिलाड़ियों को मुहैया करा सकती है। यह सब होने के बावजूद भारतीय टीम ठीक-ठाक स्कोर बनाकर भी हार गई, तो इस हार को गरिमा के साथ स्वीकार करने में ही क्रिकेट की शोभा है, जिसे भद्रजनों का खेल भी कहा जाता है। लेकिन अफसोस कि इस बार क्रिकेट विश्वकप की मेजबानी करते हुए भारत में न केवल भारतीय टीम हारी, बल्कि खेल भावना भी नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में बुरी तरह मात खाती नजर आई।

दरअसल खेल भावना की हार की पटकथा तो उसी दिन से लिखनी शुरु हो गई थी, जब सरदार पटेल के नाम पर बने स्टेडियम को मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर किया गया। इतने बड़े देश में कई और नए स्टेडियम बनाए जा सकते हैं और इनमें से किसी का भी नाम प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर हो सकता था, लेकिन तुच्छ राजनैतिक सोच के कारण नाम बदलने का जो सिलसिला शुरु हुआ है, उसका एक और उदाहरण नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में देखने मिला। 1 लाख 32 हजार लोगों को बिठाने की क्षमता वाले स्टेडियम का जब फिर से उद्घाटन हुआ था, तो यहां कोई खेल प्रतियोगिता आयोजित न होकर नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम किया गया। खेल और राजनीति के घालमेल का यह मोदीयुगीन उदाहरण था। इसके बाद ऐसी कई और मिसालें देखने मिली हैं।

महिला पहलवानों ने अपने साथ हुए यौन शोषण की न केवल शिकायत की, बल्कि इसके लिए अदालत तक से गुहार लगा दी, जंतर-मंतर पर लंबा धरना-प्रदर्शन किया। लेकिन जिस ब्रजभूषण शरण सिंह पर मुख्यत: आरोप हैं, वो आज भी संसद में मौजूद है और पीड़ित खिलाड़ी इंसाफ की बाट जोह रहे हैं। इन खिलाड़ियों के समर्थन में संसद में ही मौजूद नामचीन खिलाड़ी पी टी उषा ने कोई आवाज नहीं उठाई, उल्टा उन्हें नसीहत दे दी। लेकिन भारत को पहला विश्वकप दिलाने वाले कपिल देव ने महिला खिलाड़ियों के हक में आवाज उठाई थी, तो वे इस बार नरेन्द्र मोदी स्टेडियम नहीं पहुंच पाए। कपिल देव ने मीडिया से बात करते हुए बताया कि वे तो चाहते थे कि उनके साथ पहली बार विश्वकप उठाने वाली पूरी टीम फाइनल मुकाबला देखने पहुंचती, लेकिन बीसीसीआई शायद इतने जरूरी कामों में व्यस्त है कि उन्हें फाइनल मुकाबला देखने के लिए आमंत्रित ही नहीं किया गया। वैसे ये देखना रोचक है कि कपिल देव के किरदार को सिनेमा में उतारने वाले रणवीर सिंह अपनी पत्नी दीपिका पादुकोण के साथ नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में मौजूद थे। फिल्मी, उद्योग और आध्यात्मिक व्यापार से जुड़े कई नामी लोग स्टेडियम में टीम इंडिया का हौसला बढ़ाने के लिए मौजूद थे।

भारत रत्न सचिन तेंदुलकर और जग्गी वासुदेव अगल-बगल ही बैठे थे और उन दोनों को आपस में बात करते हुए देखा गया। हालांकि सचिन के आखिर विश्वकप में उन्हें जीत का तोहफा देने वाले कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी भी इस फाइनल मुकाबले में नहीं रहे। शायद बीसीसीआई के लिए क्रिकेट के अहम हस्ताक्षरों से कहीं जरूरी उन लोगों की मौजूदगी थी, जिनके कारण यह खेल सोने का अंडा देने वाली मुर्गी की तरह बना हुआ है। खेल भावना में हार का यह एक और उदाहरण है।

विश्वकप मुकाबले में भारत की जीत की उम्मीदें लगाए दर्शकों को काफी मायूसी हुई और यह जायज भी है। लेकिन इसके लिए बहुत से लोगों ने, जिनमें कई राजनेता भी शामिल हैं, नरेन्द्र मोदी को जिम्मेदार ठहराना शुरु कर दिया। अगर इस हार का ठीकरा मोदी सरकार की खेल नीति की वजह से फोड़ा जाता, तब भी बात समझ में आती। मगर कई लोगों ने नरेन्द्र मोदी के लिए पनौती शब्द का इस्तेमाल किया, सोशल मीडिया पर भी यह शब्द ट्रेंड करने लगा। यह सरासर खेल भावना के विरुद्ध बात है। खेल से तो शारीरिक और मानसिक तंदरुस्ती अच्छी होती है, इसमें अंधविश्वास जैसी बीमारी की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी शिकायत का कारण हो सकती है, क्योंकि जब देश में मणिपुर की गंभीर समस्या है, जब उत्तरकाशी की सुरंग में आठ दिनों से मजदूर फंसे हुए हैं, ऐसे संकटों के बीच प्रधानमंत्री मोदी खेल का आनंद लेने के लिए पहुंचे, यह सही बात नहीं है।

श्री मोदी से इस बात की भी शिकायत की जा सकती है कि उनके शासन में देश ये कैसे मुकाम पर आ पहुंचा है, जहां धर्म और राष्ट्रवाद के उन्माद में हम मेहमाननवाजी और सामान्य शिष्टाचार भी भूलते जा रहे हैं। इसी स्टेडियम में पिछले महीने पाकिस्तान के साथ हुए मुकाबले में दर्शकों ने जय श्री राम के नारे लगाकर भारत की अतिथि परंपरा को ठेस पहुंचाई थी। उसके बाद रविवार को आस्ट्रेलियाई टीम के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया गया। उनकी जीत और अच्छे प्रदर्शन पर वाहवाही की जगह सन्नाटा पसरा रहा। लाख की क्षमता वाले स्टेडियम में जब विजेता टीम विश्वकप उठा रही थी तो उसकी हौसलाअफजाई के लिए उंगलियों पर गिने जाने लायक दर्शक मौजूद थे, खुद प्रधानमंत्री आस्ट्रेलियाई कप्तान पैट कमिंस को मंच पर ट्राफी के साथ अकेले छोड़कर चले गए। श्री मोदी के गृहराज्य और उनके नाम पर बने स्टेडियम में विजेता टीम के साथ यह अफसोसनाक व्यवहार हुआ, इसकी शिकायत होनी चाहिए। पनौती जैसे शब्दों के साथ विरोध करने वाले अपने पक्ष को ही कमजोर कर रहे हैं।

आखिरी बात, नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में भारत विश्वकप जीतता तो भाजपा इसे भी चुनावी मुद्दे की तरह इस्तेमाल करती। एक टीवी चैनल ने तो शीर्षक ही लगा दिया था कि मोदी पहुंचे स्टेडियम, अब भारत की जीत पक्की। मोदी राजनीति के धुऱंधर खिलाड़ी हो सकते हैं, लेकिन क्या बचपन से उन्होंने क्रिकेट की दीक्षा भी ली है, इस तथ्य का खुलासा होना अभी बाकी है। बहरहाल, आस्ट्रेलिया की लगातार छठवीं जीत और भारतीय टीम की हार के बीच भारत में खेल भावना क्यों हारती जा रही है, इसकी समीक्षा जरूरी है। आस्ट्रेलिया के अखबार तो हमारे इस रवैये की समीक्षा कर ही रहे हैं।


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