कमजोर होती याददाश्त के खतरे
देश के कई सरकारी और निजी स्कूलों में गायत्री मंत्र बच्चों से पढ़वाया जाता है

- सर्वमित्रा सुरजन
देश के कई सरकारी और निजी स्कूलों में गायत्री मंत्र बच्चों से पढ़वाया जाता है। कई जगहों पर बोर्ड परीक्षाओं के पहले हवन तक होते हैं। लेकिन तब कोई सवाल नहीं उठते, क्योंकि बहुसंख्यकों का धर्म होने के कारण हिंदुओं के तौर-तरीकों को सहज स्वीकार्य मान लिया गया है। जिन लोगों ने हिंदू छात्रों के नमाज पढ़ने पर आपत्ति की, ऐसे ही लोगों को अस्पताल या मॉल या स्टेशन पर नमाज पढ़ते लोगों से भी आपत्ति होती है।
पिछले 9-10 सालों में हिंदुस्तानियों की याददाश्त काफी कमजोर हो गई है। इसकी क्या वैज्ञानिक, राजनैतिक और सामाजिक वजहें हैं, इनके कारणों की पड़ताल गंभीरता से करना चाहिए। क्योंकि याददाश्त कमजोर होने का खामियाजा पूरे देश को उठाना पड़ रहा है। अभी विदेश मंत्री एस.जयशंकर से अमेरिका में एक कार्यक्रम में मोदी सरकार में भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर सवाल उठाया गया था। जिसके जवाब में उन्होंने सवाल पूछने वाले से ही मांग कर दी कि मुझे भेदभाव दिखाओ। फिर जयशंकर ने अपने टालमटोल वाले जवाब में कहा कि निष्पक्ष और सुशासन या समाज के संतुलन की कसौटी क्या है? सुविधाओं, लाभों, पहुंच, और अधिकारों के मामले में आप भेदभाव करते हैं या नहीं, यही कसौटी होती है और दुनिया के हर समाज में, किसी न किसी आधार पर, कुछ न कुछ भेदभाव होता ही है।
हमारे विदेश मंत्री ज्ञानी व्यक्ति हैं, उनकी स्मरण शक्ति भी प्रखर ही होगी। लेकिन वो इस सितंबर को ही संसद के भीतर बसपा सांसद दानिश अली के लिए कहे गए अपशब्दों को कैसे भूल गए। क्या इसलिए कि संसद की मर्यादा तोड़ने और अपने विरोधी सांसद को अपशब्द कहने का काम भाजपा के सांसद ने किया। विदेश मंत्री यह भी भूल गए कि इस देश में किस तरह बाकायदा धर्मसंसदें आयोजित कर अल्पसंख्यकों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए समाज को उकसाया जाता रहा है। मणिपुर में हिंसा का तांडव पिछले पांच महीनों से जारी है, एस. जयशंकर इसे भी सुविधापूर्वक भूल गए। आखिर मणिपुर में अशांति पनपने की सबसे बड़ी वजह भेदभाव का डर ही तो रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मणिपुर को भूले ही हुए हैं। वे देश के कई राज्यों में जा रहे हैं, खासकर चुनावी राज्यों में उनकी आमदरफ्त बढ़ गई है। लेकिन मणिपुर जाने का रास्ता उन्हें याद ही नहीं आ रहा। श्री मोदी से भी अमेरिका यात्रा के वक्त हुई प्रेस कांफ्रेंस में अल्पसंख्यकों से भेदभाव का सवाल वॉल स्ट्रीट जर्नल की पत्रकार सबरीना ने पूछा था। और तब भी इसी तरह का गोलमोल जवाब श्री मोदी ने दिया था। उन्होंने कहा था कि मुझे वास्तव में आश्चर्य होता है जब लोग ऐसा कहते हैं।
भारत तो लोकतंत्र है ही। लोकतंत्र हमारी रगों में है। हम लोकतंत्र जीते हैं। हमारे पूर्वजों ने इस बात को शब्दों में ढाला है। ये हमारा संविधान है। हमारी सरकार लोकतंत्र के मूल्यों को ध्यान में रखकर बनाए गए संविधान पर ही चलती है। सवाल हुआ था धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव पर और सवाल को भुलाते हुए श्री मोदी संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देने लगे। अब ऐसा किया ही था तो कुछ समय तो उस बात पर टिके रहते। जून में दिए गए इस जवाब के तीन ही महीने बाद संसद के भीतर उनकी पार्टी के एक सांसद ने दूसरी पार्टी के सांसद को अपशब्द कहे और तब प्रधानमंत्री को न संविधान याद आया, न लोकतंत्र। उन्होंने इस घटना पर आज तक कुछ नहीं कहा, जबकि पीड़ित सांसद दानिश अली ने उन्हें खत लिखकर कहा भी कि आपकी चुप्पी को दुनिया देख रही है। लेकिन सत्ता मद में शायद मोदीजी को दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा भी याद नहीं रही है।
श्री मोदी और उनके विदेश मंत्री श्री जयशंकर ने जिस तरह अमेरिका जाकर धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव की बात को नकार दिया है, यह उनकी कमजोर होती स्मरण शक्ति की निशानी है या फिर राजनैतिक मजबूरी, इस बारे में वही बेहतर बता सकते हैं। अभी श्री मोदी राजस्थान चुनाव प्रचार के लिए चित्तौड़गढ़ गए तो वहां उन्हें उदयपुर में नफरत का शिकार बने दर्जी कन्हैयालाल की याद आ गई। लेकिन उन्हें इसी राजस्थान में ऐसी ही बेरहमी से मारे गए मजदूर मो. अफराजुल की याद नहीं आई। उन्हें पिछले 9 सालों में इसी तरह की नफरत का शिकार बने और निर्दोष लोग याद नहीं आए। बात करनी ही थी, तो प्रधानमंत्री ऐसी हरेक हत्या पर अफसोस जताते, लेकिन उन्होंने यहां चुनावी हिसाब से घटना को याद किया। याददाश्त का कमजोर पड़ना बुरा है, लेकिन सुविधा के हिसाब के कुछ बातों का याद आना और कुछ का भूल जाना और भी बुरा है।
प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री एस.जयशंकर से अगर भविष्य में फिर अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव पर सवाल किया जाए, तो उनके लिए एक प्रसंग गुजरात से उपस्थित हुआ है। जहां एक स्कूल में हिंदू छात्रों को नमाज पढ़ाने के आरोप पर दक्षिणपंथी लोगों ने प्रदर्शन किया और इसमें एक शिक्षक की पिटाई भी कर दी। अहमदाबाद के कैरोलेक्स फ्यूचर स्कूल में 29 सितंबर की ये घटना बताई जा रही है, जिस पर सरकार ने जांच के आदेश दे दिए हैं। स्कूल प्रशासन ने इस घटना पर माफी तो मांग ही ली है, साथ ही बताया है कि किसी भी छात्र को नमाज पढ़ने के लिए जबरदस्ती नहीं की गई थी।
बल्कि इस कार्यक्रम का उद्देश्य छात्रों को विभिन्न धर्मों की प्रथाओं से अवगत कराना था। इस कार्यक्रम का एक वीडियो भी फेसबुक पर डाला गया था, जिस में बच्चे लब पे आती है दुआ, गाते हुए दिखते हैं। इकबाल की इस मशहूर प्रार्थना को करवाने पर बरेली के एक सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षक को निलंबित कर दिया गया था। अब इसी प्रार्थना और नमाज पढ़ने पर गुजरात में दक्षिणपंथियों को तो कानून हाथ में लेने का मौका मिल गया। गौर से देखा जाए तो ऐसे कार्यक्रम में कुछ भी गैरकानूनी नहीं है, क्योंकि सर्वधर्म सद्भाव तो इस देश की नींव में रहा है और स्कूल इसे ही मजबूत कर रहा था। देश के कई सरकारी और निजी स्कूलों में गायत्री मंत्र बच्चों से पढ़वाया जाता है।
कई जगहों पर बोर्ड परीक्षाओं के पहले हवन तक होते हैं। लेकिन तब कोई सवाल नहीं उठते, क्योंकि बहुसंख्यकों का धर्म होने के कारण हिंदुओं के तौर-तरीकों को सहज स्वीकार्य मान लिया गया है। जिन लोगों ने हिंदू छात्रों के नमाज पढ़ने पर आपत्ति की, ऐसे ही लोगों को अस्पताल या मॉल या स्टेशन पर नमाज पढ़ते लोगों से भी आपत्ति होती है। मगर पूरी सड़क घेर कर दुर्गा या गणेश के पंडाल लगाए जाएं, दिन-रात कानफोड़ू संगीत बजाया जाए, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट या बीच चौराहे पर घेरा बनाकर गरबा किया जाए, तब किसी को आपत्ति नहीं होती। गुजरात के शिक्षा मंत्री प्रफुल्ल पनशेरिया ने कहा है कि ऐसा प्रतीत होता है कि स्कूल में ऐसे कार्यक्रम आयोजित कर कुछ लोग राज्य का शांतिपूर्ण माहौल खराब करना चाहते हैं।
मंत्री महोदय की राय में शांतिपूर्ण माहौल की परिभाषा क्या है और नमाज कैसे पढ़ी जाती है, इसे सिखाने पर माहौल कैसे खराब होता है, ये समझना कठिन नहीं है। शायद शिक्षा मंत्री की याददाश्त से बिलकिस बानो प्रकरण मिट चुका है। जहां बलात्कार और हत्या के दोषियों की रिहाई होती है और फिर तिलक लगाकर उनका स्वागत किया जाता है। उन्हें संस्कारी बताया जाता है। ऐसे संस्कारी लोगों से माहौल खराब होता है या दूसरे धर्म के तौर-तरीकों को सीखने से, यह सवाल अगर याद रह जाए, तो भाजपा सरकार के मंत्रियों को इसका जवाब ढूंढने की कोशिश करना चाहिए।
देश में याददाश्त कमजोर करने में बड़ी भूमिका मुख्यधारा का मीडिया भी निभा रहा है। जो हर दिन सुबह-शाम नए-नए पैंतरों में लिपटी खबरों का धमाका करता है। एक खबर को लोग याद रखें या उस पर चर्चा करें, उससे पहले कोई नयी खबर आ जाती है। अगर खबर सत्ताविरोधी हुई, तब तो उसे भुलाने के लिए एलियंस या अवतारी पुरुषों को दिखाने से बी मीडिया परहेज नहीं करता। इस मीडिया की फिक्र यही है कि जनता को भूले से भी सरकार की कोई कमजोरी, कोई पुराना वादा, कोई गलती याद न रहे। केवल ये याद रहे कि असली आजादी 2014 के बाद मिली और देश का विकास 2047 तक हो जाएगा। भुलाने और भुलावे के इस खेल में अपनी याददाश्त कैसे दुरुस्त रखना है, ये जनता खुद तय करे।


