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नैनीताल पर मंडराता खतरा

नैनीताल उत्तराखण्ड का एक रमणीय पर्यटन स्थल है, जो 1939 मीटर की ऊँचाई पर बसा है

नैनीताल पर मंडराता खतरा
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- डॉ. ओ.पी. जोशी

पेयजल का प्रमुख स्त्रोत रही नैनी झील पर भी खतरे बताये जा रहे हैं। वर्षाकाल में आसपास की पहाड़ियों से आयी मिट्टी तथा छोटे-छोटे भूस्खलन से आये मलबे से यह उथली हो रही है एवं प्रदूषण भी बढ़ रहा है। वर्ष 2017 में पानी के अतिदोहन से झील में पानी का स्तर 17-18 फीट नीचे चला गया था। भूस्खलन से आये मलबे से यदि झील को कोई नुकसान पहुंचता है तो इसका पानी 45 किलोमीटर दूर बसे हल्द्वानी तक बाढ़ ला सकता है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार नैनी झील से 400 मीटर दूर एक भूमिगत झील भी बन गयी है जो 200 मीटर लम्बी एवं 5 मीटर गहरी है।

नैनीताल उत्तराखण्ड का एक रमणीय पर्यटन स्थल है, जो 1939 मीटर की ऊँचाई पर बसा है। यहां की नैनी झील के चारों ओर फैली पहाड़ियों के कारण यह एक कटोरेनुमा शहर है। इस सुंदर शहर की खोज कुछ अंग्रेजों ने 1839 में की थी जब वे किसी कार्य से घूमते हुए यहाँ पहुंचे थे। वर्ष 1841 में बेंटन तथा बेरन नामक दो अंग्रेजों ने इसे बसाने का कार्य प्रारंभ किया एवं 1842 में यहां 10 मकान स्थानीय सामग्री से बनाये। यहां के प्राकृतिक सौंदर्य से आकर्षित हो अंग्रेज यहां धीरे-धीरे बसने लगे एवं 1901 तक यहा की आबादी 7500 के लगभग हो गयी। वर्तमान में इसकी आबादी 80 हजार के आसपास है एवं इतने ही पर्यटक यहां गर्मी के मौसम में प्रति सप्ताह आते हैं।

प्रसिद्ध भू-विज्ञानी प्रो. सीसी पंत के अनुसार नैनीताल शहर की भौगोलिक स्थिति यहां के अन्य शहरों से अलग है। शहर के बीच से गुजरने वाले एक प्रमुख 'भ्रंश' (फाल्ट) के साथ छोटे-छोटे अन्य 'भ्रंश' होने से यह शहर भूगर्भ के लिहाज से काफी संवेदनशील है। भूकम्प को लेकर बनाये गये 'जोन 04' में यह आता है। भूगर्भीय गतिविधियों से यहां भूकम्प के झटके एवं पहाड़ियों पर भूस्खलन होता रहता है।

यहां की पहाड़ियों पर भूस्खलन 1867 से ही हो रहा है। इसके बाद 1880, 1886, 1924, 1962 और 1970 में भी भूस्खलन हुए। यह भी पाया गया कि यहां 1962 के बाद भूस्खलन की रफ्तार बढ़ी। कहीं यह भी उल्लेखित है कि 1880 की किसी भूकम्पीय गतिविधि से मल्लीताल झील मैदान में तब्दील हुई थी। 'धारण क्षमता' (कैरींग केपेसिटी) से ज्यादा निर्माण कार्य, वन-विनाश, खनन कार्य, कमजोर जल-मल प्रणाली आदि वजहों से वर्तमान में शहर के तीनों ओर की पहाड़ियां भूस्खलन से दरक रही हैं, जिससे शहर खतरे में है।

वर्ष 1900 में जब यहां की 'धारण क्षमता' जानने की मांग उठी थी तब अध्ययन के आधार पर इसे 5000 की आबादी के लायक बताया था। कई प्रकरणों में सुप्रीमकोर्ट तथा राज्य की हाईकोर्ट ने झील के चारों तरफ पहाड़ियों की कमजोर ढलानों पर निर्माण कार्य प्रतिबंधित करने को कहा था। कुमाऊ विश्वविद्यालय ने अपने एक अध्ययन में 2016 में बताया था कि वर्ष 2005 से 2015 के मध्य प्रतिबंधित क्षेत्रों में 50 प्रतिशत निर्माण कार्य ज्यादा हुए हैं। राज्य के हाईकोर्ट ने 2017 में नागपुर के 'राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी संस्थान' (नीरी) को यहां की 'धारण क्षमता' का फिर से अध्ययन करने हेतु कहा था।

वर्ष 2023 में मालरोड, टीफीन टॉप व व्यूपाइन्ट तथा आल्मा पहाड़ी पर हुए भूस्खलन की घटनाएं चेतावनी देती हैं कि नैनीताल भी जोशीमठ की राह पर अग्रसर है। यहां की प्रसिद्ध मालरोड पर फरवरी 23 में लंबी दरार देखी गयी थी। वर्ष 2004 एवं 2018 में लोअर मालरोड का बड़ा हिस्सा भूस्खलन के कारण टूटकर झील में समा गया था। आईआईटी एवं अन्य संस्थानों के अनुसार मालरोड के क्षेत्र में भूमि के नीचे कठोर चट्टानें (हार्ड रॉक्स) नहीं होने से भूस्खलन होता रहता है। पिछले वर्ष मई माह में टीफीन टॉप तथा व्यूपाइन्ट के आसपास की पहाड़ियों पर दरारें आने से पर्यटकों की आवाजाही रोक दी गयी थी।

सितंबर में आल्मा पहाड़ी के दरकनें से चार मकान ढ़ह गये थे एवं इससे घबराकर स्थानीय प्रशासन ने 250 अन्य मकान तुरंत खाली करवा लिये थे। यह पहाड़ी झील के ऊपर बांयी तरफ सीधी खड़ी होने एवं नीचे से भुरभुरी होने के कारण ज्यादा संवेदनशील बताई गई है। प्रशासन के ध्यान नहीं देने से पिछले 25-30 वर्षों में यहां काफी निर्माण कार्य हुए हैं और यहां अभी 10 हजार के लगभग लोग रह रहे हैं।

इस पहाड़ी पर अंग्रेजों के शासनकाल में 1880 में भारी भूस्खलन होने से 150 के लगभग लोग मारे गये थे जिनमें 42-43 अंग्रेज भी थे। भूस्खलन के 150 वर्ष पुराने इतिहास वाली बलिया नाला पहाड़ी भी दरक रही है। पिछले कुछ वर्षों से यहां भूस्खलन की रफ्तार बढ़ी है जो शहर तथा झील दोनों के लिए खतरनाक है। इस पहाड़ी की तलहटी से होकर झील का अतिरिक्त पानी ज्योलीकोट की ओर जाता है। वर्ष 2018 में इस पहाड़ी पर भूस्खलन के बाद यहां की कृष्णपुरा बस्ती के हजारों लोगों का सड़क से सम्पर्क टूट गया था।

कुमाऊं विश्वविद्यालय के अध्ययन के अनुसार नैना-पीक की पहाड़ी पर दक्षिण-पश्चिम की तरफ 65 मीटर लम्बी 1.5 मीटर चौड़ी तथा 2.5 मीटर गहरी दरारें देखी गयी हैं। मार्च 1987 तथा जुलाई 1988 में इस पहाड़ी पर हुए भूस्खलन से 500 परिवार प्रभावित हुए थे। इस पहाड़ी पर हो रहे भूस्खलन का विस्तृत अध्ययन कर भूवैज्ञानिक डॉ. केएस वाल्दिया ने सुरक्षा हेतु छ: उपाय बताये थे जिन पर कोई काम नहीं हुआ।

पेयजल का प्रमुख स्त्रोत रही नैनी झील पर भी खतरे बताये जा रहे हैं। वर्षाकाल में आसपास की पहाड़ियों से आयी मिट्टी तथा छोटे-छोटे भूस्खलन से आये मलबे से यह उथली हो रही है एवं प्रदूषण भी बढ़ रहा है। वर्ष 2017 में पानी के अतिदोहन से झील में पानी का स्तर 17-18 फीट नीचे चला गया था। भूस्खलन से आये मलबे से यदि झील को कोई नुकसान पहुंचता है तो इसका पानी 45 किलोमीटर दूर बसे हल्द्वानी तक बाढ़ ला सकता है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार नैनी झील से 400 मीटर दूर एक भूमिगत झील भी बन गयी है जो 200 मीटर लम्बी एवं 5 मीटर गहरी है। इस झील में हो रही भूगर्भीय हलचल भी आसपास की पहाड़ियों को प्रभावित कर रही है। अब नैनीताल सहित अन्य पहाड़ी पर्यटन स्थानों पर उनकी 'धारण क्षमता' के अनुसार विकास जरुरी हो गया है अन्यथा खतरे फैलते ही रहेंगे।
(स्वतंत्र लेखक हैं तथा पर्यावरण के मुद्दों पर लिखते हैं)


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