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महत्वपूर्ण जम्मू-कश्मीर चुनाव का आगाज़

90 सदस्यीय जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव का महत्व इतना ही नहीं है कि यहां पूरे 10 वर्षों के बाद चुनाव हो रहे हैं

महत्वपूर्ण जम्मू-कश्मीर चुनाव का आगाज़
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90 सदस्यीय जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव का महत्व इतना ही नहीं है कि यहां पूरे 10 वर्षों के बाद चुनाव हो रहे हैं। इसे विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वारा खत्म करने के बाद का यह पहला चुनाव भी है। यहां की कश्मीर घाटी में 47 तथा जम्मू सम्भाग में 43 सीटें हैं। इनमें से 24 सीटों पर पहले चरण में बुधवार को मतदान हुआ। बाकी सीटों पर 25 सितम्बर तथा 1 अक्टूबर को होगा। नतीजे 8 अक्टूबर को आएंगे। 9 सीटें अनुसूचित जातियों तथा 7 सीटें अनु. जनजातियों के लिये आरक्षित हैं। केन्द्र सरकार तथा सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी दावा करती रही है कि 370 के हटने से इस राज्य में शांति कायम हुई है और देश की अखंडता मजबूत हुई है। दूसरी ओर विपक्षी दलों के अनुसार लोगों में विशेष राज्य का दर्जा हटाने से बेहद आक्रोश है। यह चुनाव एक तरह से भाजपा की इस राज्य के प्रति तथा अल्पसंख्यकों को लेकर जो नीति है, उस पर भी सहमति या असहमति की मुहर लगायेगा। इस मायने में यह चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।

यहां कांग्रेस फारुख़ व उमर अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है। महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने हाथ नहीं मिलाया है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वह इंडिया गठबन्धन का हिस्सा है। स्थानीय राजनीति की ज़रूरतों के मुताबिक एनसी एवं पीडीपी ने समझौता तो नहीं किया है लेकिन समझा जाता है कि यदि सरकार बनाने के लिये आवश्यकता पड़ी तो उसका बाहरी समर्थन कांग्रेस-एनसी को मिल सकता है। कयास इसलिये लगाये जा रहे हैं क्योंकि वहां भाजपा की हालत पतली बताई जाती है। चुनाव भी वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण करा रही है। भाजपा से जनता की नाराज़गी की अनेक वजहें हैं। प्रमुख है अनुच्छेद 370 का हटाया जाना। यह आक्रोश केवल मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में नहीं, बल्कि हिन्दू बहुल जम्मू में भी है। अनेक आंतरिक समस्याओं के बाद भी कश्मीर व जम्मू परस्पर आश्रित रहे हैं। विशेषकर, पर्यटन, धार्मिक यात्राओं तथा व्यवसाय के मामलों में। 370 की समाप्ति से दोनों के बीच जो अलगाव पैदा हुआ वह दोनों हिस्सों के लिये नुकसानदेह रहा है।

कश्मीरी पंडितों की वापसी यहां एक प्रमुख मसला रहा है। 90 के दशक में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी गुटों द्वारा हिन्दुओं के खिलाफ हुए अत्याचारों के कारण यहां से बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ गये थे। उन्हें शरणार्थी शिविरों में दिल्ली समेत कुछ शहरों में बसाया गया था। जब तक भाजपा विपक्ष में थी, उसने इस मुद्दे पर बहुत शोर मचाया था तथा इसके जरिये धु्रवीकरण किया था। भाजपा का दावा था कि केन्द्र के प्रशासक की नियुक्ति होने से इन पंडितों की घाटी में वापसी का मार्ग खुलेगा। यह सच है कि कुछ हिन्दू लौटे भी परन्तु फिर से हुई आतंकी घटनाओं ने उन्हें डरा दिया और वे वापस मैदानों में उतर आये। अब भी लौटने वाले पंडितों की संख्या बहुत कम है। केन्द्र ने भी अपने वे सारे अभियान खूंटी में टांग दिये हैं। कश्मीरी पंडितों की वापसी का दावा खोखला साबित हुआ।

यह भी प्रचारित किया गया था कि 370 के कारण ही यहां आतंकवाद हुआ है। इसके हट जाने से आतंकवाद समाप्त हो जायेगा। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अब भी कश्मीर के अलावा पीर पंजाल के दक्षिणी हिस्से में स्थित राजौरी, पूंछ आदि के इलाकों में अनेक आतंकी घटनाएं हुई हैं। बड़ी संख्या में न केवल सेना व सशस्त्र बलों के जवान एवं अधिकारी मारे गये हैं बल्कि बड़ी आतंकी कार्रवाइयां हुई हैं। सेना उनका मुंहतोड़ जवाब दे रही है लेकिन भाजपा सरकार का यह दावा खोखला साबित हुआ कि 370 के हटते ही आतंकवाद की कमर टूट जायेगी। हाल ही में यहां अपनी चुनावी रैली के भाषण में श्री मोदी द्वारा यह कहना भी लोगों को नागवार गुजरा है कि तीन खानदानों ने कश्मीर को बर्बाद कर दिया। उनका आशय नेहरू, शेख अब्दुल्ला तथा मुफ्ती मुहम्मद सईद के खानदानों से था। इसका जवाब देते हुए उमर अब्दुल्ला ने याद दिलाया कि उनकी अपनी एनसी और पीडीपी के साथ भाजपा अलग-अलग मौकों पर सरकारें बना चुकी हैं। उन्होंने तंज कसा कि भाजपा को जब ज़रूरत पड़ती है तब इन खानदानों में उसे अच्छाइयां नज़र आने लगती हैं वरना इन खानदानों में उसे बुराइयां दिखती हैं।

इसके अलावा और भी कई मुद्दे हैं जिन पर कश्मीर को रायशुमारी करनी है। यह कहा गया था कि अनुच्छेद 370 के हटने से यहां उद्योगों तथा व्यवसायों की बहार आ जायेगी। ऐसा कुछ भी होता नहीं दिखा। अलबत्ता लोगों ने यह ज़रूर महसूस किया कि भाजपा के नज़दीकी लोगों की नज़रें यहां की जमीनों पर है, न कि कश्मीरियों से उन्हें लगाव है। इसके बल पर इस राज्य में बड़ी संख्या में रोजगार सृजन का दावा भी किया गया था पर जब यहां उद्योग-धंधे ही नहीं आये तो रोजगार पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता। राज्य के लिये रोजगार अब भी बहुत बड़ी समस्या है। यहां के नागरिकों को वह सब भी याद है कि अनुच्छेद 370 हटाने के दौरान उन्हें किस प्रकार की दुश्वारियों का सामना करना पड़ा था। कई-कई दिनों के कर्फ्यू, इंटरनेटबंदी, पैलेट गन, लोगों को बेकारण थानों में ले जाना, उसी दौरान कोरोना का प्रसार आदि को कश्मीरवासी शायद ही भुला पायें। उधर दूसरी तरफ़ कांग्रेस का यह वादा लोगों को प्रभावित कर रहा है कि वह जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा लौटायेगी जो राहुल गांधी ने उनसे किया है।


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