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नदियों के संकट पर गंभीर विश्लेषण

वरिष्ठ लेखक एवं पर्यावरणविद् पंकज चतुर्वेदी की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'मझधार में धार'नदियों की पीड़ा को मार्मिकता और गंभीरता के साथ व्यक्त करती है

नदियों के संकट पर गंभीर विश्लेषण
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- रोहित कौशिक

एक दूसरा पहलू यह भी है कि इस मुद्दे पर काम करने वाले लोग और एनजीओ व्यक्तिगत स्वार्थ से नहीं बच पाते हैं। यह सही है कि आज किसी न किसी रूप से नदियों को बचाने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों में कई लोग काम कर रहे हैं। इनमें से कुछ लोग तो चुपचाप काम कर रहे हैं लेकिन कुछ लोगों में प्रचार की ऐसी भूख है कि उन्होंने अपने काम का एक अलग ही प्रचार तंत्र विकसित कर लिया है।

वरिष्ठ लेखक एवं पर्यावरणविद् पंकज चतुर्वेदी की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'मझधार में धार'नदियों की पीड़ा को मार्मिकता और गंभीरता के साथ व्यक्त करती है। पंकज चतुर्वेदी इस पुस्तक के माध्यम से नदियों की सेहत से जुड़े अनेक सवाल प्रमुखता से उठाते हैं। सरकारी नीतियों पर तो सवाल है हीं, एक बड़ा सवाल यह भी है कि जल और नदियों की पूजा करने वाला समाज ही क्यों नदियों का दुश्मन बन गया ? आज देश की अनेक नदियां प्रदूषण के कारण कराह रही हैं। समाज की उदासीनता के चलते अनेक नदियां दम तोड़ चुकी हैं। जिन नदियों को कभी बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, आज उन्हीं नदियों के प्रति उपेक्षा का भाव है। अनेक नदियां नालों में तब्दील हो चुकी हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि नदियों किनारे रहने वाले लोगों ने ही नदियों का ध्यान नहीं रखा। यही वजह है कि नदियों का जल भी लोगों को बीमारियां और मौत बांटने लगा। नदियों के बचाने के नाम पर काफी धन खर्च किया गया लेेकिन नदियों की सेहत नहीं सुधरी। विकास के नाम पर बनने वाली सरकारी योजनाओं ने भी नदियों को मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

पंकज चतुर्वेदी इस पुस्तक में यह सवाल उठाते हैं कि इस मुद्दे पर बनने वाली सरकारी नीतियों में व्यावहारिकता क्यों नहीं है ? दरअसल सरकारी नीतियों में तो कई स्तरों पर कमी है ही, एक दूसरा पहलू यह भी है कि इस मुद्दे पर काम करने वाले लोग और एनजीओ व्यक्तिगत स्वार्थ से नहीं बच पाते हैं। यह सही है कि आज किसी न किसी रूप से नदियों को बचाने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों में कई लोग काम कर रहे हैं। इनमें से कुछ लोग तो चुपचाप काम कर रहे हैं लेकिन कुछ लोगों में प्रचार की ऐसी भूख है कि उन्होंने अपने काम का एक अलग ही प्रचार तंत्र विकसित कर लिया है।

नदियों को बचाने के नाम पर पुरस्कार प्राप्त करने की ऐसी होड़ हो रही है जो इस मुद्दे की सच्ची भावना के साथ एक तरह का खिलवाड़ ही है। ऐसे लोग अपने नाम से पहले स्वयं ही कई तरह के विशेषण भी लगाने लगे है। सवाल यह है कि नदियों को बचाने के इस तरह के प्रयास कितने कारगर होंगे। हो सकता है कि नदियों को बचाने के ऐसे प्रयासों से कुछ हद तक नदियों को पुनर्जीवन मिल जाए लेकिन ऐसे प्रयास लंबे समय तक नदियों को स्थिति नहीं सुधार सकते। इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि जो लोग व्यक्तिगत या सामाजिक रूप से इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं उनमें प्रचार की भूख न हो, तभी वे इस मुद्दे पर वास्तविक काम कर पाएंगे। दूसरी तरफ इस मुद्दे पर बनने वाली सरकारी योजनाओं में व्यावहारिकता पर ध्यान दिया जाए।

पंकज चतुर्वेदी रेत खनन को नदियों की मौत का एक बड़ा कारण मानते हैं। रेत खनन के कारण आपसी लड़ाई-झगड़े भी खूब होते हैं। अत्यधिक रेत खनन से नदियों का पूरा तंत्र असंतुलित हो जाता है। इससे वहां की जैवविविधता भी खत्म होती है और नदियों का प्रवाह भी बाधित होता है। जब लेखक गंगा के प्रदूषण और गंगा की सफाई के नाम पर होने वाले दावों की पोल खोलता है तो हमारी आंखें खुली रह जाती हैं। गंगा में टेनरियों और नालों का प्रदूषित जल रोकने के लिए स्थापित किए गए ट्रीटमेंट प्लांट का संचालन ठीक तरह से न होने के कारण स्थिति बदतर होती जा रही है।

विडम्बना यह है कि जो लोग गंगा की पूजा कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं, वे ही लोग गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के प्रति गंभीर नहीं है। प्रदूषण के मामले में यमुना का हाल भी गंगा से अलग नहीं है। दिल्ली में तो यमुना की हालत बहुत खराब है। लेखक ने हिंडन और काली नदी के प्रदूषण का भी सटीक विश्लेषण किया है। लखनऊ में गोमती नदी कई कारणों से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। अंधाधुंध जल दोहन और सहयोगी नदियों का संरक्षण न होने के कारण आज इसकी स्थिति बदतर हो गई है। इसी तरह सोन नदी को अपनी सेहत बरकरार रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

रेत उत्खनन और कारखाने की गंदगी के कारण सोन नदी पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। लेखक का मानना है कि अन्य नदियों की तुलना में अभी भी ब्रह्मपुत्र का जल इतना अधिक जहरीला नहीं हुआ है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इस नदी का जल पूरी तरह से साफ है। ब्रह्मपुत्र नदी की एक समस्या इसके बहाव के कारण बढ़ रहा जमीन का कटाव और सालाना बाढ़ है तो दूसरी समस्या इस नदी के किनारे शहरीकरण और कल-कारखानें हैं। इस पुस्तक में लेखक ने मेघालय और अरुणाचल प्रदेश की नदियों की वर्तमान स्थिति का गंभीर विश्लेषण किया है। इसके साथ ही क्षिप्रा, कावेरी, भावनी, अमरावती, तुंगभद्रा, गोदावरी, पेरियार, कृष्णा, हरमू, सुवर्णरेखा, जुमार, पोटपोटो, करम और साहिबी नदियों के संकट पर भी विस्तार से चर्चा की है। नदियों के संकट पर इस श्रमसाध्य अध्ययन के लिए पंकज चतुर्वेदी निश्चित रूप से बधाई के पात्र है।


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