आम चुनाव की ओर बढ़ता देश
संसद का शनिवार को अंतिम सत्र समाप्त हो गया। इसके साथ ही देश अब अगली लोकसभा के लिये आम चुनाव की ओर बढ़ चला है

संसद का शनिवार को अंतिम सत्र समाप्त हो गया। इसके साथ ही देश अब अगली लोकसभा के लिये आम चुनाव की ओर बढ़ चला है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार का दूसरा कार्यकाल पहले (2014-19) के मुकाबले कहीं अधिक कसैली यादें छोड़ गया है। 17वीं लोकसभा के सत्रावसान की बेला में सदन के नेता होने के नाते श्री मोदी से स्वाभाविकत: यही उम्मीद थी कि वे एक सकारात्मक नोट के साथ पक्ष-विपक्ष के सदस्यों से विदा होते, लेकिन जाते हुए उन्होंने अपनी सरकार की प्रमुख उपलब्धियों के रूप में तीन तलाक एवं कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाये जाने का उल्लेख कर साफ कर दिया कि वे धु्रवीकरण का एजेंडा लेकर ही तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के लिये जनता का समर्थन मांगने जा रहे हैं।
अंतिम सत्र के आखिरी दो दिनों में संसद में संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा (यूपीए) सरकार के 2004 से 2014 तक चले डॉ. मनमोहन सिंह के दो कार्यकाल के कामकाज को लेकर श्वेत पत्र लाकर उन्होंने और भाजपा ने संकेत दे दिये हैं कि कांग्रेस के प्रति नफरत व झूठ अब भी उनके सर्वाधिक भरोसेमंद हथियार हैं। देखना होगा कि सितम्बर, 2022 से कांग्रेस एवं उसका साथ पाकर मजबूत होता संयुक्त प्रतिपक्ष इंडिया, भाजपा को तीसरी बार केन्द्र की सत्ता पाने से रोक पाता है या नहीं। हालांकि अबकी स्थिति न 2014 जैसी है, और न ही 2019 वाली। अब तो भाजपा के सामने चुनौती है कि वह किसी प्रकार से कांग्रेस के नेतृत्व में बने इंडिया गठबन्धन को रोके।
सामान्य तौर पर तो किसी भी चुनाव के पहले सरकार के कामकाज का आकलन होता है और उसके आधार पर सत्ताधारी दल जनता की अदालत में उपस्थित होता है। इसी के बरक्स विरोधी दल सरकार की नीतियों व कार्यक्रमों की नाकामियों को उजागर करते हैं। दोनों ओर की बातें सुन-समझकर मतदाता अपना फैसला मतपेटियों के माध्यम से सुनाते हैं। यही स्वस्थ लोकतंत्र में सरकारें चुनने या हटाने का तरीका होता है, परन्तु मोदी सरकार के कार्यकाल में वह परम्परा जाती रही। विपक्ष की ओर से या देश-दुनिया के किसी भी मंच से सरकार से पूछे गये सवालों का जिम्मेदारीपूर्ण ढंग से जवाब देने सा समय चला गया।
प्रधानमंत्री ने 10 वर्षों में कोई भी विधिवत प्रेस कांफ्रेंस नहीं ली- दोनों ही कार्यकालों में। सैकड़ों तरह के मुद्दे उठे और चले गये लेकिन अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को 'मौनमोहन' कहने वाले नरेन्द्र मोदी स्वयं चुप्पी साधे रहे। अत्यधिक दबाव में जो दो-तीन मर्तबा उन्होंने कहा, वह लोग उंगलियों पर गिन सकते हैं।
करोड़ों की लागत से और एक व्यवस्थित प्रचार तंत्र के जरिये खुद की 'महामानव' की छवि गढ़कर केन्द्र की सत्ता हासिल करने वाले श्री मोदी के 10 वर्ष का हर क्षण स्वयं के महिमा मंडन और विपक्ष को अपमानित करते हुए गुजरा। विधायिका, कार्यपालिका एवं बड़े पैमाने पर न्यायपालिका के साथ सारी संवैधानिक संस्थाओं, जांच एजेंसियों तथा मीडिया को अपनी मुठ्ठी में जकड़कर नरेन्द्र मोदी दूसरा कार्यकाल समाप्त होते-होते इतने शक्तिमान हो गये हैं कि अब काडर आधारित पार्टी कहलाने वाली भाजपा व उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक उनकी जेब में हैं। संसदीय शिष्टाचार को ठेंगा दिखाते हुए संसद के दोनों सदनों यानी लोकसभा व राज्यसभा के क्रमश: अध्यक्ष व सभापति तो छोड़िये, राष्ट्रपति से भी वे ऊपर हैं। भारत को 'लोकतंत्र की जननी' एवं 'लोकतंत्र देश की रगों में' होने का दावा करने वाले नरेन्द्र मोदी ने देश की सम्पूर्ण संसदीय प्रणाली एवं लोकतांत्रिक मूल्यों व प्रणाली को ध्वस्त कर दिया है।
श्वेत पत्र के मुकाबले कांग्रेस द्वारा लाये गये ब्लैक पेपर में मोदी सरकार के दो कार्यकाल का जो कच्चा-चिठ्ठा पेश किया गया है, वह यह बताने के लिये पर्याप्त है कि कैसे उन्होंने विपक्ष मुक्त भारत बनाने के लिये इस दौरान प्रतिपक्ष के 400 से अधिक विधायकों को अपने दल में मिलाया। इतना ही नहीं, केन्द्रीय जांच एजेंसियों के बल पर कई राज्यों की चुनी हुई सरकारें गिराईं एवं मतदाताओं के फैसलों का अपमान कर जोड़-तोड़ व धन बल से और डरा-धमकाकर भाजपा की सरकारें बनवाईं। इसके लिये उन्होंने हर तरह के अनैतिक तरीकों का सहारा लिया। हाल में बिहार में हुआ सत्ता परिवर्तन और झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार गिराने की कोशिश, चंडीगढ़ मेयर चुनाव जीतने के पीठासीन अधिकारी के माध्यम से शर्मनाक उपक्रम, देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न का सियासी मकसदों से वितरण आदि तो हाल की घटनाएं हैं। उनके कार्यकाल में जितना पीछे जाते जाएं, एक से बढ़कर एक दृष्टांत उपलब्ध हैं।
सवाल यह है कि बहुत उम्मीद न होने के बावजूद जिस प्रकार 2019 में नरेन्द्र मोदी पुलवामा एवं बालाकोट की दुहाई देकर लोकसभा का चुनाव जीत गये थे, क्या इस बार भी वैसा होगा। इसका अनुमान लगाने के पहले अब लोग इस बात की समीक्षा करने लगे हैं कि पिछली बार नरेन्द्र मोदी के समक्ष विपक्षी दलों का संयुक्त प्रतिरोध नहीं था- इस बार है। फिर, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक व तेलंगाना में कांग्रेस ने जो विधानसभा चुनाव जीते हैं, उसके बल पर और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व राष्ट्रीय लोक दल के जयंत चौधरी के गठबन्धन से छिटक जाने से बावजूद भाजपा के सामने चुनौती बहुत कड़ी है। राममंदिर का मुद्दा फायदेमंद नहीं निकला, जैसी कि उम्मीद थी।
गौतम अदानी को मदद देने से श्री मोदी की ईमानदारी की पोल पहले ही खुल गई है, अब राहुल गांधी ने साबित कर दिया है कि नरेन्द्र मोदी न गरीब हैं, न ही ओबीसी। कांग्रेस बढ़े हुए मनोबल के साथ और नरेन्द्र मोदी खंडित छवि लेकर इस चुनाव में जा रहे हैं। ऐसे में देखना होगा कि 2024 के मध्य में भारतीय राजनीति का सूरज किस दिशा से उगता है।


