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दुख का कारण बन रहा उपभोक्तावाद

पिछले कुछ सालों में कितना कुछ बदल गया है। अखबार के इश्तिहार से लेकर इंसान के व्यवहार तक,चुनाव के प्रचार से भगवान के दरबार तक

दुख का कारण बन रहा उपभोक्तावाद
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- दयानंद सीमा मिश्र

इसका असर देखिए! जिसके पास रीढ़ नहीं है वह भी महंगी पलंग और मैट्रेस ढूंढ रहा है। घड़ी पहले समय बताती थी अब औकात बताती है। धर्म के सर्वेसर्वा भी अंधकार का भय दिखाकर टॉर्च बेचने के फ़िराक में है। पैसे से पाप को पवित्र करने की परंपरा चल पड़ी है। स्कूल से लेकर अस्पताल तक सब कुछ फाइव स्टार। अब अगर मुर्दा भी उठकर अपने लिए कोई ब्रांडेड कफन मांग ले तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि उपभोक्तावादी
दुनिया में सब संभव है।

पिछले कुछ सालों में कितना कुछ बदल गया है। अखबार के इश्तिहार से लेकर इंसान के व्यवहार तक,चुनाव के प्रचार से भगवान के दरबार तक। सब कुछ एकदम रंगीन, इतना रंगीन कि मनुष्य इसके रंगत से वंचित न रहे। ताज्जुब कि ये सारे बदलाव मानव जीवन के उन्नत कि बुनियाद पर स्वीकार की गई है। जिसने एक नई जीवन शैली 'उपभोक्तावाद' को जन्म दिया है।

'उपभोक्ता' होना कहीं से अनुचित नहीं है लेकिन जैसे ही इसमें 'वाद' जुड़ता है। यह 'उपभोक्तावाद' नामक तंत्र लोभ,भय और नफ़रत के द्वारा संचालित होने लगता है।
उपभोक्तावाद की प्रवृत्ति मदारी की होती है। जहाँ कुछ पूंजीपति, बड़े समूह को अपने अनुसार नचाते हैं। वास्तव में उपनिवेशवाद से उद्योगवाद तक की यात्रा में एक समानता है 'सामंतवाद' की।

जिसके जरिए मनुष्य को ग़ुलाम बनाए रखने की गहरी साजिश जान पड़ती है, क्योंकि हम वही कर रहे हैं जो कुछ चंद पूंजी वाले चाहते हैं।
अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा कि 'मनुष्य वह कर सकता है जो वह चाहता है पर वह यह चाह नहीं सकता कि क्या चाहे!' आज आपके 'चाहने' पर कुछ पूंजीवादी लोगों का नियंत्रण है।

भौतिकवाद का स्वभाव अधिक वस्तुओं के स्वामी होने पर अधिक सुख जैसा है। अब भला सुख से कोई क्यों विमुख रहना चाहेगा? लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि सुख के लिए पूरे संसार पर अपनी मनमानी चलाना जरूरी है? सुख की शर्त ऐसी नहीं हो सकती। हाँ लोभ की ऐसी शर्त अवश्य है कि सभी वस्तुओं पर अपना अधिकार हो। मानव जीवन की दो प्रमुख बातें है। एक 'आवश्यकता' जो पूर्ण होने पर 'सुख' की अनुभूति देती है, दूसरा 'वासना' जो 'लोलुपता' को आकर्षित करती है। जीवन की वास्तविक आवश्यकता रोटी,कपड़ा,मकान,स्वस्थ शरीर और प्रेम यहीं है। इससे आगे जो कुछ भी है वह वासना है अर्थात अहंकार,महत्वाकांक्षा,पाखंड।

इसका असर देखिए! जिसके पास रीढ़ नहीं है वह भी महंगी पलंग और मैट्रेस ढूंढ रहा है। घड़ी पहले समय बताती थी अब औकात बताती है। धर्म के सर्वेसर्वा भी अंधकार का भय दिखाकर टॉर्च बेचने के फ़िराक में है। पैसे से पाप को पवित्र करने की परंपरा चल पड़ी है। स्कूल से लेकर अस्पताल तक सब कुछ फाइव स्टार। अब अगर मुर्दा भी उठकर अपने लिए कोई ब्रांडेड कफन मांग ले तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि उपभोक्तावादी दुनिया में सब संभव है।

फणीश्वरनाथ रेणु ने कहा कि 'जाति दो ही है एक गरीब और दूसरा अमीर' और यह सच भी है। भौतिकवादी दुनिया में चंद पूंजीपतियों को छोड़कर सब गरीब है लेकिन कोई मनाने को तैयार नहीं और अच्छी बात ये है कि सरकार और पूंजीपति भी यही चाहते हैं कि आप बनावटी विलासिता के मेटावर्स में स्वघोषित राजा बने रहें।
दरअसल उपभोक्तावाद की जिस अंधी दौड़ में आप दौड़ रहे है या प्रेरित हो रहें है। उसका कोई एंडिंग पॉइन्ट नहीं है। अगर आप जीत भी गए तो कुछ हासिल नहीं होगा क्योंकि इस दौड़ का विजेता पहले से निर्धारित है।

प्रश्न यह उठता है कि उपभोक्तावाद से समस्या क्या है? वैसे तो इस दौर की अधिकाधिक समस्याओं की जननी ही उपभोक्तावाद है। फिर भी इसका सीधा प्रभाव पर्यावरणीय स्थिरता पर पड़ता है। इच्छा को पूरा करने के लिए न केवल प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास हो रहा है बल्कि इसका दुष्परिणाम भी हमारे के सामने है। आज हमारे बीच एक ऐसा अभिजात वर्ग बनकर तैयार हुआ है। जो दावा करता है कि पैसे से सब कुछ संभव है। प्रेम,करुणा,दया यहाँ तक कि इंसानी शरीर भी इसके लिए वस्तु है। मैं इससे बहुत ज्यादा अचंभित नहीं हूं क्योंकि जिस समाज में प्रतिष्ठा का आधार ही भौतिक सुख मांग लिया गया हो, जहाँ स्वभाव की नहीं प्रभाव की पूजा होती हो,संस्कार नहीं अहंकार का गुणगान होता हो, चरित्र का नहीं पूंजी की स्तुति होती हो वहाँ क्या ही उम्मीद की जा सकती है।

बाजार की संस्कृति के सामने परिवार व स्कूल जैसे संस्थाओं के मूल्य कमजोर पड़ रहे है। परिणाम स्वरूप लगाव,भावना,संयम,अनुशासन,परंपरा,सहानुभूति और प्रेम जैसे शब्द हमारे स्वस्थ समाजीकरण के पृष्ठभूमि से गायब हो रहा है।

पिछले दिनों एसोचैम के सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन ने देश के तीन हजार कामकाजी माता-पिता पर एक अध्ययन कराया था। इसमें पता चला कि कामकाजी माता-पिता के पास अपने बच्चों के साथ समय गुजारने के लिए केवल बीस मिनट का समय रह गया है। निश्चित ही पूँजीवादी दुनिया के लिए अच्छी खबर हो सकती है लेकिन आपके बच्चों और सभ्य समाज के विकास के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा?

इस जीवन शैली ने एक ओर अमीर व्यक्ति के भीतर की क्रूरता जगाई तो दूसरे ओर गरीबी के अभाव ने अंदर की विद्रोह को हवा दी। सच यह है कि इस प्रतिशोध में दोनों जल रहे हैं। एक वैभव के ढोंग को बरकरार रखने के लिए और दूसरा वैभव के पाखंड को प्राप्त करने के लिए।

जबतक किसी भी समाज के विकास का मापदंड इकोनॉमिक ग्रोथ और जीडीपी के आंकड़े रहेंगे तबतक न्यूनतमवाद का सिद्धांत, पर्यावरणीय चेनता और मानवीय मूल्य सिफ़र् भ्रम फैलाने वाले झूट ही साबित होंगे।

अंतत: इस जीवन शैली के विस्तार से सामाजिक सरोकार कमजोर पड़ रहे है। सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो रहा है, मर्यादाएं टूट रहीं है,नैतिक मापदंड ढीले पड़ रहे है। भोग की इच्छाएं आसमान छू रही हैं, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहीं है यह गंभीर चिंता का विषय है।

गांधी जी ने कहा था कि स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाज़े-खिड़की खुले रखे पर अपनी बुनियाद पर क़ायम रहें।


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