कला में उपभोक्तावाद और गांधी का संदेश
उदार लोकतंत्र में जो लोग सत्ता में रहते हैं वे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए पूंजीवादी उद्योग का इस्तेमाल अपने निहित स्वार्थों के लिए करते हैं

- ज्योति साही
उदार लोकतंत्र में जो लोग सत्ता में रहते हैं वे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए पूंजीवादी उद्योग का इस्तेमाल अपने निहित स्वार्थों के लिए करते हैं। उपभोक्ता विचारधारा उत्पन्न करते समय पारंपरिक संस्कृति को महत्वपूर्ण बनाया जाता है। कला रूपों का उपयोग आम विरासत को वैध बनाने और निजीकरण करने के लिए किया जाता है, चाहे वह जैविक हो या सांस्कृतिक।
हमें इन दिनों बताया गया है कि नई वैश्विक व्यवस्था में भारत की प्रगति बहुत शानदार है। अभी 15 अगस्त को ही भारत ने अपना 77वां स्वतंत्रता दिवस मनाया है। आज के राजनीतिक माहौल में हम शायद ही कभी 1948 में दिए महात्मा गांधी के उस 'सूत्र' को याद करते हैं जो उन्होंने हमें भारत की आबादी के सबसे गरीब और सबसे कम विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के कल्याण की कल्पना करने के लिए यह पूछते हुए दिया था कि 'क्या आप जिस कदम पर विचार कर रहे हैं वह उनके लिए कोई काम आने वाला है?' हमें आज इस सूत्र की पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत है।
भारत को रचनात्मक कल्पना के एक नए संग्रह की आवश्यकता है ताकि यह तय किया जा सके कि जमीन से जुड़े लोगों के रचनात्मक विकास पर सांस्कृतिक हस्तक्षेप का क्या प्रभाव पड़ सकता है। हम खुद को यह भूलने की अनुमति नहीं दे सकते कि जलवायु परिवर्तन के कारण पारिस्थितिक संकट उन लोगों की तुलना में गरीबों को अधिक प्रभावित करेगा जो हमारी आधुनिक दुनिया के उपभोक्ता समाज को आकार दे रहे हैं।
एक कलाकार के रूप में लेखक को विशेष रूप से 'गरीबों की संस्कृति और कला' में रुचि है। लेखक की राय है कि जिसे हम 'लोक कला' कहते हैं, उसके बारे में जो विशिष्ट तथ्य है वह भौतिकवाद से इसकी स्वतंत्रता है। लोक सौंदर्यशास्त्र भौतिक धन से जुड़ा नहीं है।
यह ऐसे समय में जब हम स्वतंत्रता का उत्सव मना रहे हैं, तो यह याद रखना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। किस चीज़ से आजादी? उपनिवेशवाद ने संस्कृति की समृद्धि को न पहचानते हुए उसे गरीब बना दिया, लेकिन औद्योगिकवाद एक अन्य प्रकार की दरिद्रता है जहां अमीर सोचते हैं कि वे गरीबों की संस्कृति का विनियोजन कर संस्कृति को नियंत्रित करते हैं।
'अपने पास कुछ न रखने' यानी अपरिग्रह में एक मूल्य है जो जमीन से जुड़े रहने वालों की विशिष्ट संस्कृति में है, उसके केंद्र में निहित है। यह अपरिग्रह उस प्रकार की अति सूक्ष्मता और सादगी का सार है। यह एक ऐसी संस्कृति की विशेषता है जो चीजों को रखने के बारे में सोचती नहीं है।
वर्धा के समीप सेवाग्राम में 'मध्यवर्ती प्रौद्योगिकी' पर एक बैठक 1978 में आयोजित की गई थी। 'मैसेज ऑफ बापू'ज हट' (बापू की कुटिया का संदेश) विषय पर आयोजित इस गांधीवादी संगोष्ठी का उद्घाटन इवान इलिच ने किया था। लेखक ने एक बार अपने छात्रों को इवान इलिच के विचारों के बारे में बताते हुए पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि इस तरह 'बापू की झोपड़ी' के संदर्भ में दिए गए संदेश को भारतीय संदर्भ में उपयुक्त माना जा सकता है? लेखक को पता था कि उसके कई छात्र एक आधुनिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो इस तरह की झोपड़ी को 'अविकसित' के नजरिए से देखकर अस्वीकार करती है। 'वर्नाकुलर आर्किटेक्चर' को नया स्वरूप देने का प्रयास आउटडेटेड और रोमांटिक माना जाता है जो राजनीतिक आजादी के बाद वैश्विक प्राथमिकताओं के लिए प्रयास कर रहे आधुनिक भारत के लिए अप्रासंगिक है।
कोविड महामारी से बहुत पहले ही आधुनिकता की महामारी ने अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई को और चौड़ा करना शुरू कर दिया था। 'अंबानी सांस्कृतिक केंद्र' का उद्देश्य 'भारतीय कलाओं को संरक्षित और बढ़ावा देना' है जो हाल ही में बेंगलुरु में खोले गए कला और फोटोग्राफी संग्रहालय (म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्रॉफी- एमएपी) से मेल खाता है। इस तरह की पहल आर्थिक रूप से कॉर्पोरेट उद्योग द्वारा समर्थित है। एमएपी में ज्योति भट्ट (जन्म 1934) की प्रदर्शनी उनके काम को प्रदर्शित करती है। गुजरात के गांवों में पारंपरिक सजावट, जमीन पर बनी और उनके साधारण घरों की मिट्टी से ढंकी दीवारों को दिखाते हुए उनके द्वारा खींचे गए फोटो विशेष दिलचस्प हैं जिनमें धरती से जुड़ी ग्रामीण संस्कृति का उत्सव दिखाया गया है। ज्योति भट्ट ने स्थानीय स्तर पर प्राप्त बुनियादी कच्ची सामग्री का उपयोग कर प्रकृति की लय से जुड़े समुदायों के रोजमर्रा के जीवन का दस्तावेजीकरण किया। कृषक समाज ने एक दृश्य भाषा विकसित की है जो प्राकृतिक परिदृश्य के करीब है। इस तरह की संस्कृति को उपभोक्ता उद्योग संस्कृति द्वारा बाधित किया गया है।
भारत की लोक कलाओं के सौंदर्य ने कई आधुनिक भारतीय कलाकारों को एक निहित शब्दावली प्रदान की है जिसकी जड़ें हमारी परंपराओं में हैं और जो समकालीन प्रश्नों को भी संबोधित कर सकती है। इस कला का उद्देश्य जीवन के पूर्व-औद्योगिक तरीके को 'चित्रित' करना नहीं है बल्कि उन लोगों के दैनिक अनुभव को मूर्तरूप देना है जिनका जीवन मौसम के बदलाव के अनुसार होता है। आनंद कुमारस्वामी ने जब सौंदर्यशास्त्र के लिए 'स्वदेशी' दृष्टिकोण की बात की तो इसने 'बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट' के अवनींद्रनाथ टैगोर और जामिनी रॉय जैसे अन्य छात्रों को प्राकृतिक वातावरण के करीब रहने वाली कहानियों और प्रतीकों पर आधारित लोक कल्पना की सराहना करने के लिए प्रेरित किया। इस 'स्वदेशी' कला ने 'कला के लिए कला' की पश्चिमी परिकल्पना से अलग होकर राष्ट्रवादी आंदोलन में एक स्थान ग्रहण किया। 'कला के लिए कला' की पश्चिमी परिकल्पना आधुनिक संस्कृति को विकसित करने की कोशिश करता है। पारिस्थितिकीविदों का मानना है कि जब उपभोक्तावाद द्वारा प्रकृति नष्ट की जा रही है तब हमारे वर्तमान सांस्कृतिक गतिरोध को दूर करने का एकमात्र उपाय 'स्वदेशी' कला है।
उदार लोकतंत्र में जो लोग सत्ता में रहते हैं वे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए पूंजीवादी उद्योग का इस्तेमाल अपने निहित स्वार्थों के लिए करते हैं। उपभोक्ता विचारधारा उत्पन्न करते समय पारंपरिक संस्कृति को महत्वपूर्ण बनाया जाता है। कला रूपों का उपयोग आम विरासत को वैध बनाने और निजीकरण करने के लिए किया जाता है, चाहे वह जैविक हो या सांस्कृतिक। वैश्विक अनुरूपता के जरिए रचनात्मकता को नियंत्रित किया जाता है जो विविधता को कम करता है।
कला समीक्षक संदीप लुइस बताते हैं कि किस तरह आधुनिक भारतीय कला लोक कला की परंपराओं को 'मानव शास्त्र और इतिहास के बीच' के रूप में उपयोग करती है। लुइस चर्चा में इस बात का उल्लेख करते हैं। 1982 में आधुनिक कलाकार जगदीश स्वामीनाथन नवनिर्मित भारत भवन का प्रमुख बन कर भोपाल गए थे। उस समय भारत सरकार ने ग्रामीण उद्योगों के संदर्भ में ग्रामीण और आदिवासी समुदायों की कलात्मक क्षमता को विकसित करने की कोशिश की। बाद में इन समुदायों के हितों को निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया। स्वामीनाथन ने भारत भवन से जुड़े रूपंकर कला संग्रहालय के निदेशक के रूप में कार्य किया। उन्हें युवा गोंड कलाकार जनगढ़ सिंह श्याम को 'ढूंढ निकालने' का श्रेय दिया गया जो पाटनगढ़ के दूरस्थ आदिवासी गांव में काम कर रहे थे। इस बेहद रचनात्मक युवा कलाकार के काम को बेंगलुरु में कला और फोटोग्राफी संग्रहालय सहित दुनिया भर की विभिन्न दीर्घाओं में देखा जा सकता है।
हालांकि एक पूरे समुदाय से उत्पन्न होने वाली रचनात्मक अभिव्यक्ति और कला बाजार द्वारा कला के लिए व्यक्तिवादी कला के व्यवसायीकरण में एक मौलिक अलगाव है। आधुनिक भारतीय कला में लोक संस्कृति के संदिग्ध उपयोग में हम जो देखते हैं वह यह है कि किस तरह से प्रकृति के उत्सव का निजीकरण किया गया है और उसे एक उपभोक्ता वस्तु में बदल दिया गया है जो कला उद्योग का एक हिस्सा बन जाता है।
लोक परंपरा में कला प्रथाएं संस्कृति और प्रकृति, समुदाय और पूरे जीवंत ब्रह्मांड को एक साथ लाने का तरीका थीं। अंत में, जनगढ़ सिंह श्याम द्वारा 38-39 वर्ष की आयु में तोकामाची (जापान) में अपनी जान लेने की त्रासदीपूर्ण मौतों की एक श्रृंखला की परिणति थी जिसकी शुरुआत उस समय हुई जब कला की व्यावसायिक उपयोग करने वाली दुनिया के लिए अपने मूल गोंड गांव को छोड़ दिया, वह 'व्यावसायिक दुनिया' जिसमें 'जंगल के जादू' को भुला दिया गया था।
(लेखक स्वतंत्र कलाकार, लेखक और कला शिक्षक हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)


