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कांग्रेस को व्यावहारिक होने की जरूरत

रायपुर में हुए कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी दोनों के भाषण जबरदस्त रहे

कांग्रेस को व्यावहारिक होने की जरूरत
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रायपुर में हुए कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी दोनों के भाषण जबरदस्त रहे। क्योंकि इन भाषणों में आम लोगों की बात थी। बीते 8-10 बरसों में जो राजनैतिक भाषण सुनने मिलते रहे हैं, उनमें मैं यानी अहं इतना हावी नजर आता है, मानो जो कुछ भी कार्य सत्ता में रहकर किए गए हैं, वो जिम्मेदारी नहीं अहसान की तरह किए गए। मैंने ये किया, मेरी सरकार ऐसी, मैं ऐसा हूं, मुझे ये कहा, ऐसे ही पदबंधों से भाषण भरे रहते हैं।

चाहे संसद हो या चुनावी सभाएं, हर जगह यह मैं ही हावी दिखा है। हम की बात करना नेता भूलते जा रहे हैं। ऐसे में जब प्रियंका गांधी ने अधिवेशन के मंच से कांग्रेस के उन कार्यकर्ताओं का नाम लिया, जो भारत जोड़ो यात्रा में तिरंगा थामे चले या फिर टिकट न मिलने पर भी उत्साहपूर्वक कांग्रेस का प्रचार किया और काम करते-करते ही दुनिया को अलविदा कह दिया, तो यह उन दिवंगत कार्यकर्ताओं के लिए बड़ी श्रद्धांजलि है। साथ ही उन लाखों अनाम कार्यकर्ताओं के लिए संदेश भी है कि कांग्रेस के लिए उनका योगदान अनदेखा नहीं रहेगा।

आखिर कोई भी संगठन केवल बड़े नेताओं से नहीं बनता, संगठन की नींव उसके समर्पित कार्यकर्ता ही होते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शुरु से ऐसे कार्यकर्ताओं को तैयार किया और अब भाजपा सफलता की फसल ऐसे कार्यकर्ताओं के भरोसे ही काट रही है। कांग्रेस में यह एक बड़ी कमी थी, जिसे दूर करने का काम अब शायद शुरु हो गया है।

प्रियंका गांधी ने देश की मौजूदा परिस्थिति में बदलाव लाने की जरूरत बतलाई और इसके साथ ही इस बात पर जोर दिया कि अब कांग्रेस को गांव-गांव तक जाकर मजबूत बनाना है। राहुल गांधी के भाषण में स्वाभाविक तौर पर भारत जोड़ो यात्रा का जिक्र था। उनकी और उनके साथ चलने वाले भारत यात्रियों की अथक मेहनत के कारण ही 4 हजार किमी तक पैदल यात्रा करने का असंभव लगने वाला काम संभव हो पाया। भारत जोड़ो यात्रा के समापन पर श्रीनगर में राहुल गांधी ने जो भाषण दिया था, उसने बहुत से लोगों को भावुक कर दिया था। इसमें राहुल गांधी ने अपने पिता और दादी के बलिदानों का बड़ा मार्मिक वर्णन किया था। अपने दर्द के साथ उन्होंने उन तमाम कश्मीरियों और सुरक्षा बलों के परिवारों का दर्द साझा किया था, जिन्हें आकस्मिक मौत की खबर सुननी पड़ती है। रायपुर अधिवेशन में उन्होंने इस बात को साझा किया कि कैसे भारत जोड़ो यात्रा के कारण उन्हें हिंदुस्तान के लोगों का अनकहा दर्द समझ में आने लगा। एक राजनेता और आम जनता के बीच जब दर्द का यह रिश्ता कायम होता है, तो वहां लोकतंत्र की जीत होती है।

लेकिन सत्ता की राजनीति में जीत के लिए भावुकता के साथ व्यावहारिक पक्ष भी अहम होता है। गांधी परिवार का योगदान और बलिदान स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही चस्पां है। घर के अनेक सदस्यों का जेल जाना, सुख-सुविधाओं का त्याग करना, और आतंकवाद से लड़ते हुए शहादत देना, दुनिया में बहुत कम ऐसे परिवार होंगे, जिन्होंने देश के लिए इतनी कुर्बानियां दीं। लेकिन इसी हिंदुस्तान में गांधी-नेहरू परिवार के लिए कितनी नफरत फैलाई गई, ये सब जानते हैं। भाजपा के कई नेता अब भी इसी नफरत के दर्शन अपने भाषण में कराते हैं। जब प्रधानमंत्री संसद में नेहरू सरनेम न लगाने का सवाल उठाते हैं, तो उसके पीछे भी यही भावना काम करती है। इस नफरत का नुकसान कांग्रेस को सत्ता से हटकर चुकाना पड़ा है। और अब जबकि देश में 2024 के चुनाव की तैयारी हो रही है, जब विधानसभा चुनावों में जीत या हार को 2024 के सेमीफाइनल की तरह प्रस्तुत कर जनमानस को प्रभावित किया जाएगा, तब कांग्रेस के लिए यही बेहतर है कि वह भावनाओं के साथ व्यावहारिक फैसले ले।

अधिवेशन के दूसरे दिन कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बड़े नपे-तुले ढंग से अपनी बात रखी। वे हमेशा ही ऐसा प्रशंसनीय संतुलन दिखाती रही हैं। उन्होंने अपने भाषण में संकेत दिए कि बतौर अध्यक्ष उन्होंने अपनी पारी पूरी की और अब नये नेतृत्व के हाथ में पार्टी की कमान है। लेकिन उनकी बात को उनके राजनीति से संन्यास की तरह प्रचारित कर दिया गया। हालांकि जल्द ही इसका खुलासा भी आ गया कि सोनिया गांधी अभी सक्रिय राजनीति नहीं छोड़ रही हैं। लेकिन यह समझना कठिन नहीं है कि राजनीति में उनकी उपस्थिति मात्र ही उनके विरोधियों को कितना परेशान कर देती है।

सोनिया गांधी अगला चुनाव भी लड़ेंगी, इस बात की संभावनाएं अभी बनी हुई हैं। लेकिन अगले साल होने वाला आम चुनाव कांग्रेस नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व में लड़ेगी, जबकि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी कांग्रेस के महत्वपूर्ण स्तंभों की तरह उनके साथ रहेंगे, फिलहाल यही तस्वीर बन रही है। अब ये त्रिभुज कांग्रेस में जीत के कोण की संभावनाएं कैसे बनाता, गठबंधन के कितने समीकरणों को सही-सही बिठा पाता है, ये कांग्रेस की व्यावहारिक सोच से तय होगा।

रायपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने यह तो स्पष्ट कर दिया कि वह विपक्षी एकता के लिए तैयार है, और तीसरे मोर्चे से होने वाले नुकसान का आकलन भी हो गया है। मगर क्या अभी कांग्रेस ने कोई ऐसी रणनीति बनाई है कि तीसरा मोर्चा न बने और तीसरे मोर्चे में शामिल होने वाले दलों के साथ कांग्रेस का तालमेल बन जाए। क्योंकि केसीआर, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव ऐसे तमाम नेताओं की महत्वाकांक्षाएं भाजपा की जीत के लिए जमीन तैयार करेंगी। महाराष्ट्र के साथी उद्धव ठाकरे अगर अरविंद केजरीवाल के बगल में बैठे दिखाई दिए, तो यह भी कांग्रेस के लिए अच्छा संकेत नहीं है। दक्षिण में डीएमके और जेडीएस जैसे दलों का साथ कांग्रेस को मिला है, लेकिन वाम दलों और कांग्रेस के बीच रिश्तों में स्पष्टता जरूरी है। नीतीश कुमार ने विपक्ष के नेतृत्व के लिए कांग्रेस का आह्वान किया है। लालू प्रसाद यादव, शरद पवार भी यही चाहते हैं। कांग्रेस भी हामी भर रही है। लेकिन अब केवल बातों से काम नहीं चलेगा, यूपीए 3 का गठन कर चुनाव की तैयारियों में भिड़ना होगा।

रायपुर अधिवेशन का आयोजन सफल रहा, लेकिन इसके उद्देश्यों की सफलता 2024 में ही साबित होगी। कांग्रेस अब भावनाओं से ऊपर उठकर व्यावहारिक बने, यही वक्त की मांग है।


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