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झारखंड में भी भाजपा से प्रचार में पिछड़ रही है कांग्रेस 

कांग्रेस दिल्ली में 14 तारीख को होने वाली अपनी 'भारत बचाओ' की तैयारियों में भले ही ताकत झोंक रही हो, लेकिन झारखंड विधानसभा चुनाव में उसका रवैया ठीक वैसा ही जैसा कि हरियाणा और महाराष्ट्र में दिखा था

झारखंड में भी भाजपा से प्रचार में पिछड़ रही है कांग्रेस 
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नई दिल्ली। कांग्रेस दिल्ली में 14 तारीख को होने वाली अपनी 'भारत बचाओ' की तैयारियों में भले ही ताकत झोंक रही हो, लेकिन झारखंड विधानसभा चुनाव में उसका रवैया ठीक वैसा ही जैसा कि हरियाणा और महाराष्ट्र में दिखा था। राज्य में पीएम मोदी की 2 रैलियां हो चुकी हैं और गृहमंत्री अमित शाह समेत भाजपा के अन्य नेता वहां सक्रिय नजर आ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की महज एक रैली सिमडेगा में हुई है।

वैसे चर्चा है कि बाकी के चरणों में भी वे कुछ और जनसभाएं करने वाले हैं। पार्टी के कुछ नेताओं का कहना है कि राज्य में पहले चरण की वोटिंग के बाद सत्ता विरोधी लहर साफ नजर आ रही है, लेकिन कांग्रेस नेताओं का यही रवैया रहा तो वह उसका भरपूर फाएदा नहीं उठा सकेगी। ध्यान रहे कि पिछले चुनाव में कांग्रेस महज 6 सीटों पर सिमट गई थी, हालांकि उसकी सहयोगी झामुमो ने 17 जबकि जेवीएम ने 8 सीटों पर जीत हासिल की थी। सूत्रों का कहना है कि यदि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से जोश व सक्रियता दिखाई पड़ती तो स्थानीय कार्यकर्ताओं का भी हौसला बढ़ता।

राहुल की रैली के बाद अब बुधवार को मनीष तिवारी वहां भेजा जा रहा है, जो रांची में सिर्फ प्रेस कांफ्रेंंस करेंगे। पहले पार्टी के केंद्रीय नेता चुनावी तैयारियों और रणनीति में अपनी अहम भूमिका निभाते थे, लेकिन झारखंड के मामले में ऐसा कुछ नहीं नजर आया। एक स्थानीय नेता ने बताया कि राहुल ने 2 तारीख को सिमडेगा में जो भाषण दिया था, उसे कार्यकर्ता सोशल मीडिया मेें पोस्ट कर रहे हैं। उसका कहना है कि चुनाव से ठीक पहले पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अजोय कुमार और प्रदीप बालमुचू समेत कई नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी। ऐसी सूरत में केंद्र के नेताओं को झारखंड पर विशेष ध्यान देना चाहिए था।

इधर पार्टी के एक बड़े नेता ने अनौपचारिक बातचीत के दौरान कहा कि सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान भले ही संभाल ली है, लेकिन सभी लोग यह मान रहे हैं कि यह व्यवस्था कुछ ही दिनों के लिए है। दूसरे राहुल के करीबी केसी वेणुगोपाल संगठन के प्रभारी बना दिए गए हैं, जिनका हिन्दीभाषी राज्यों के नेताओं से तालमेल न के बराबर है। यही कारण है कि पुराने दिग्गज चुनावी रणनीति या पार्टी की अन्य महत्वपूर्ण गतिविधियों में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं।


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