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कांग्रेस महाधिवेशन : सफलता को मतों में बदलने की चुनौती

26 फरवरी को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बेहद कामयाबी के साथ सम्पन्न हुआ कांग्रेस का महाधिवेशन न केवल पार्टी के लिये वरन उन सभी लोगों के लिये आशा की किरण बनकर आया है

कांग्रेस महाधिवेशन : सफलता को मतों में बदलने की चुनौती
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- डॉ. दीपक पाचपोर

नीतीश कुमार ने एक जनसभा में बाकायदे कांग्रेस को विपक्षी एकता का नेतृत्व करने का आह्वान भी कर दिया। अब तो यही देखे जाने का इंतज़ार है कि कांग्रेस अकेली लड़ेगी या गठबन्धन के साथ? गठबन्धन में कौन होगा और कौन नहीं, यह भी अभी तक पूरी तरह से साफ नहीं है। फिर भी यह सवाल तो बना रहेगा कि क्या कांग्रेस या उसके नेतृत्व में बनने वाला विपक्षी मोर्चा महाधिवेशन की (यात्रा की भी) सफलताओं को वोटों में बदलने की सामूहिक ताकत व हुनर रखता है?

26 फरवरी को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बेहद कामयाबी के साथ सम्पन्न हुआ कांग्रेस का महाधिवेशन न केवल पार्टी के लिये वरन उन सभी लोगों के लिये आशा की किरण बनकर आया है जो देश की बदहाली और भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार की बढ़ती निरंकुशता से चिंतित हैं। महाधिवेशन राहुल गांधी की करीब चार हजार किलोमीटर लम्बी ऐतिहासिक और अत्यंत सफल पद यात्रा के बाद हुआ है। 'भारत जोड़ो यात्रा' की कामयाबी से स्वाभाविक रूप से पार्टी का नेतृत्व व काडर उत्साहित होकर अपने-अपने क्षेत्रों में लौट गया है। यह भी देखना होगा कि विपक्षी एकता का नेतृत्व करने की कांग्रेस से जो अपेक्षा की जा रही है, वह देश की सबसे पुरानी पार्टी पूरा कर पाती है या नहीं। इसके साथ ही असली सवाल तो यह है कि इस साल हो रहे विधानसभाओं और अगले साल होने जा रहे लोकसभा के चुनावों में पार्टी इस महाधिवेशन की सफलता को मतों में तब्दील कर पाती है या नहीं।

उल्लेखनीय है कि इस महाधिवेशन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, केन्द्र में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति कांग्रेस की जो आक्रामकता बढ़ी हुई दिखी उसका प्रदर्शन वैसे तो राहुल काफी पहले से कर रहे हैं परन्तु वह परवान चढ़ी थी उनकी पद यात्रा के दौरान। 12 राज्यों को होकर गुजरी उनकी इस यात्रा में राहुल ने कई जगहों पर प्रेस कांफ्रेंस कीं और अनेक जनसभाएं लीं। सभी में उन्होंने मोदी सरकार की असफलता का विस्तृत खाका खींचते हुए देश में बढ़ रही गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा व स्वास्थ्य की समस्याएं, कुछ कारोबारियों व उद्योगपतियों को बढ़ावा देने पर उनकी जमकर खिंचाई की थी।

उन्होंने बार-बार बतलाया कि सरकार सभी मोर्चों पर असफल हुई है। राहुल की यात्रा को हर जगह पर जबर्दस्त प्रतिसाद मिला था क्योंकि असंख्य लोग उनके पीछे चल पड़े थे। जिन मामलों को राहुल ने उठाया था, उन्हीं के इर्द-गिर्द महाधिवेशन का एजेंडा घूमा है। इसमें पारित सभी राजनैतिक, आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर पारित प्रस्तावों के शब्द व भावनाएं वैसी ही थीं, जो राहुल अपनी यात्रा के दौरान व्यक्त करते आ रहे थे।

इस अधिवेशन की एक और बड़ी उपलब्धि है पार्टी का पूर्णत: एकजुट होना। दल की आंतरिक समस्याएं समाप्त होती दिख रही हैं। कांग्रेस की निराशा व नाकामियों के दौर में पार्टी में बड़े नेताओं के बने जी-23 का भी इस पर कोई असर नहीं रहा और न ही उसका उल्लेख ही हुआ। कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद जैसे लोग तो पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं, कल तक नेतृत्व को गरियाने वाले संदीप दीक्षित घूम-घूमकर छोटे-बड़े चैनलों को पॉजिटिव बाइट्स देते नज़र आ रहे थे ताकि फिर से अपनी जगह बना सकें। असंतुष्ट खेमे के एक और सदस्य आनंद शर्मा कहीं दिखे भी नहीं।

कुल जमा कह सकते हैं कि जी-23 धराशायी हो गया और परिवारवाद, वंशवाद का उल्लेख करने का काम अब केवल मोदी के पास रह गया है जिन्होंने कर्नाटक की एक सभा में इस बात पर दुख जताया कि यह पार्टी केवल एक परिवार के रिमोट कंट्रोल पर चलती है इसलिये बुजुर्ग नेता मल्लिकार्जुन खड़गे (अध्यक्ष) को धूप में छतरी तक नही दी गई। बकौल मोदी, छतरी पर हक सिर्फ एक परिवार (आशय गांधी खानदान) के सदस्यों का है। उनकी बात का कोई असर नहीं हुआ क्योंकि इस पूरे महाधिवेशन में खड़गे का पार्टी पर नियंत्रण साफ दिख रहा था और राहुल स्वयं को उनका कार्यकर्ता बतला रहे थे। उलटे, मोदी उनकी कथित बेइज्जती के कारण हंसी के पात्र बन गये हैं। लोग जान गये हैं कि यह उनकी निराशा व बौखलाहट है।

वैसे भाजपा की खिसियाहट का पता तभी चल गया था जब कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता पवन खेड़ा को 23 फरवरी को उस वक्त गिरफ्तार कर लिया गया था, जब वे महाधिवेशन के लिये रायपुर की प्लाइट पर सवार हो चुके थे। एक दिन पूर्व मोदी के पिता का नाम उन्होंने 'दामोदरदास' के बदले 'गौतमदास' ले लिया था। इसके खिलाफ असम में उनके खिलाफ एफआईआर लिखा दी गई थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट से उन्हें तत्काल जमानत भी मिल गई थी। इतना ही नहीं, रायपुर में कांग्रेस व उसकी प्रदेश सरकार के नजदीकी लोगों पर प्रवर्तन निदेशालय द्वारा छापे भी पड़वाये गये। हालांकि इससे पार्टी का मनोबल व साहस नहीं टूटा तथा आयोजन अंतत: सफल ही रहा।

सम्भवत: भाजपा की यह निराशा और भी बढ़ सकती है क्योंकि कांग्रेस अब 'हाथ से जोड़ो हाथ' और पूर्व से पश्चिम की यात्रा निकाल रही है- 'भारत जोड़ो यात्रा-2'। पहली यात्रा व महाधिवेशन की सफलता से इसके पहले की ही तरह कामयाब होने के अनुमान हैं। चूंकि यात्रा ने राहुल की भाजपा-संघ द्वारा बनाई गई नकारात्मक छवि को ध्वस्त कर दिया है तथा वे एक संजीदा, समझदार, परिपक्व और संवेदनशील राजनेता के रूप में उभरे हैं, इसलिये इसे भाजपा के लिये खतरे की घंटी माना जा रहा है। यही कारण है कि यात्रा की समाप्ति के बाद उनसे आशा की जा रही है कि वे विपक्षी एकता के काम को आगे बढ़ाएं। लोग यह मान रहे हैं कि कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता हो नहीं सकती और उसी के तहत गठबन्धन सम्भव है।

त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड के हुए चुनावों के परिणाम गुरुवार (दो मार्च) को आएंगे। उत्तर पूर्व के नतीजे क्या आते हैं, यह कहना मुश्किल है परन्तु जानकार लोगों का मानना है कि ये राज्य अक्सर केन्द्र की सरकार जिस पार्टी की हो, उसी के साथ जाना पसंद करते हैं। इसका कारण है कि विकास के लिये संघर्षरत ये सात बहनें (सभी उत्तर पूर्वी) पूरी तरह से केन्द्र की वित्तीय मदद पर आश्रित होती हैं। संसाधनों के अभाव के चलते उनकी स्वयं की बहुत कम आय का होना इसका प्रमुख कारण है।

सम्भवत: इसीलिये कांग्रेस ने इन राज्यों के विधानसभा चुनावों पर बहुत ध्यान नहीं दिया। हालांकि रणनीतिक तरीके से ऐसा करना उचित नहीं रहा। चाहे इन राज्यों में लोकसभा की कम ही सीटें हों; लेकिन जब संघर्ष कांटे का हो तो एक-एक स्थान के लिये जान लड़ानी होगी। किसी भी राजनैतिक पार्टी के लिये ऐसी उपेक्षा उसके खिलाफ जा सकती है- वोटों के लिहाज से और जनता की उसके प्रति मानसिकता के दृष्टिकोण से भी। इस वर्ष 6 और राज्यों के (जम्मू-कश्मीर के हुए तो 7) विधानसभा चुनाव भी होने हैं। इन्हें सभी दलों के लिये लोकसभा-2024 की अंतिम रिहर्सल के रूप में देखा जा रहा है। कांग्रेस को छत्तीसगढ़ व राजस्थान में फिर सत्ता में लौटने और मध्यप्रदेश व कर्नाटक में सरकारें बनाने की बड़ी उम्मीद है। अधिवेशन में बड़े नेताओं से लेकर दूसरी व तीसरी पंक्तियों के नेताओं को भी इस बात का भरोसा है जिसके कारण वे उत्साहित दिखाई दिये।

कांग्रेस के सामने 2024 के चुनाव में जाने को लेकर अभी कई सुविधाएं हैं, तो दूसरी ओर यह भी सच है कि वह अकेले भाजपा को हराने की हालत में नहीं है। उसे गठबन्धन में जाना ही होगा। यह अच्छी बात है कि कुछ दिनों पहले ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक जनसभा में बाकायदे कांग्रेस को विपक्षी एकता का नेतृत्व करने का आह्वान भी कर दिया। अब तो यही देखे जाने का इंतज़ार है कि कांग्रेस अकेली लड़ेगी या गठबन्धन के साथ? गठबन्धन में कौन होगा और कौन नहीं, यह भी अभी तक पूरी तरह से साफ नहीं है। फिर भी यह सवाल तो बना रहेगा कि क्या कांग्रेस या उसके नेतृत्व में बनने वाला विपक्षी मोर्चा महाधिवेशन की (यात्रा की भी) सफलताओं को वोटों में बदलने की सामूहिक ताकत व हुनर रखता है? इसके लिये कांग्रेस को तुरन्त कदम उठाने होंगे क्योंकि कांग्रेस के पास समय बहुत कम बचा है। उसकी मुख्य चुनौती यही है कि महाधिवेशन की कामयाबी को अपने पक्ष के मतपत्रों में कैसे बदला जाये।

(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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