अपना घर जलाने के लिए बधाई
लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के फर्क को मिटाते हुए, पत्रकारिता और पक्षकारिता के अंतर को भूलते हुए, अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार और कलम की ताकत के कर्तव्य की बारीकियों को बिसराते हुए, सत्ता की रौशनी की खातिर कुछ लोगों ने स्वतंत्र पत्रकारिता को ही जला दिया

- सर्वमित्रा सुरजन
न्यूज चैनलों में ज्वलंत मुद्दों के नाम पर जो विमर्श कराए जाते हैं, वो अक्सर एकतरफा होते हैं। पहले इसमें थोड़ी बहुत पर्दादारी होती थी, शीर्षक वगैरह पर सोच-विचार किया जाता था। लेकिन जैसे-जैसे पूंजी और सत्ता का प्रभाव बढ़ने लगा, सोचने की परंपरा किनारे कर खुलकर नफरती और सांप्रदायिक विमर्शों को स्थान मिलने लगा। स्थिति इतनी खराब हो गई कि सर्वोच्च अदालत को भी इस रवैये पर टिप्पणियां करनी पड़ीं। लेकिन अखबारों की दशा भी कुछ अलग नहीं है।
अंधेरा मांगने आया था रौशनी की भीक,
हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते।
- नज़ीर बनारसी
लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के फर्क को मिटाते हुए, पत्रकारिता और पक्षकारिता के अंतर को भूलते हुए, अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार और कलम की ताकत के कर्तव्य की बारीकियों को बिसराते हुए, सत्ता की रौशनी की खातिर कुछ लोगों ने स्वतंत्र पत्रकारिता को ही जला दिया। अब उसकी राख में, बची हुई खाक में, अंधेरे में, खबरें अपना रास्ता तलाश रही हैं। उधर झूठी खबरें वैश्विक मानचित्र में भारत का परचम लहरा रही हैं। विश्व आर्थिक मंच की 2024 की वैश्विक खतरों की रिपोर्ट में झूठी खबरों से प्रभावित देशों की सूची जारी की गई है। स्टैटिस्टा नाम की आंकड़े एकत्र करने वाली वेबसाइट के मुताबिक भारत में डिसइन्फॉर्मेशन और मिसइन्फॉर्मेशन दोनों के खतरे सबसे अधिक हैं। इस रिपोर्ट में डिसइन्फॉर्मेशन और मिसइन्फॉर्मेशन दोनों के बीच के अंतर को भी जाहिर किया गया है, क्योंकि अक्सर फेक न्यूज के नाम पर दोनों को एक साथ रख दिया जाता है। लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक डिसइन्फॉर्मेशन तब होती है जब गलत जानकारी लिखने और साझा करने के पीछे का इरादा जनता को गुमराह करना हो और मिसइन्फॉर्मेशन का मतलब है गैरइरादतन गलत या झूठी जानकारी को साझा करना, हालांकि इसका नुकसान भी उतना ही है, जितना जानबूझकर गलत सूचना फैलाने का है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में संक्रामक बीमारियों, आर्थिक गैरबराबरी, और अवैध व्यापार से भी ज्यादा खतरनाक झूठी खबरों का प्रसार है। इसमें 2019 के चुनावों का जिक्र करते हुए कहा गया है कि उस वक्त राजनैतिक दलों द्वारा झूठी खबरों का जमकर प्रसार किया गया, खासकर और फेसबुक और व्हाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स के जरिए। विश्व आर्थिक मंच की इस रिपोर्ट में भारत झूठी खबरों के खतरे से ग्रसित देशों में सबसे पहले स्थान पर है, तो वहीं एल सल्वाडोर, पाकिस्तान, रोमानिया, सिएरा लियोन, आयरलैंड, सऊदी अरब, फ्रांस, सं रा. अमेरिका और फिनलैंड जैसे देश चौथे से छठवें स्थान पर हैं।
अब भारतीय चाहे तो इस बात की खुशी मना सकते हैं कि अमेरिका हमसे कहीं तो पीछे हुआ, या फिर इस मौके पर गंभीर चिंतन कर सकते हैं कि यह कौन सा अमृतकाल है, जहां झूठ का जहर समाज में बहा दिया गया है। सूचना क्रांति हमारे लिए उस अणुबम के समान साबित हुई है जिसके विनाश की जद में एक नहीं कई पीढ़ियां आ जाती हैं। लेकिन क्या इसके लिए केवल आधुनिक संचार माध्यमों को दोष दिया जा सकता है, जो पल-पल की सूचना पहुंचाने में सक्षम हैं। तकनीकी तो अपना काम कर रही है, लेकिन क्या हम अपने विवेक से उसका इस्तेमाल कर रहे है, यह भी सोचना होगा। बीते कुछ बरसों में हिंदुस्तान के मीडिया के लिए एक शब्द प्रचलन में आ गया है गोदी मीडिया, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उपनाम से तुक बिठाता है। गोदी मीडिया का तात्पर्य है, सरकार की चाटुकारिता में लगे पत्रकार। अक्सर इसमें इलेक्ट्रानिक मीडिया का ही हवाला दिया जाता है, क्योंकि न्यूज चैनलों में ज्वलंत मुद्दों के नाम पर जो विमर्श कराए जाते हैं, वो अक्सर एकतरफा होते हैं। पहले इसमें थोड़ी बहुत पर्दादारी होती थी, शीर्षक वगैरह पर सोच-विचार किया जाता था। लेकिन जैसे-जैसे पूंजी और सत्ता का प्रभाव बढ़ने लगा, सोचने की परंपरा किनारे कर खुलकर नफरती और सांप्रदायिक विमर्शों को स्थान मिलने लगा। स्थिति इतनी खराब हो गई कि सर्वोच्च अदालत को भी इस रवैये पर टिप्पणियां करनी पड़ीं। लेकिन अखबारों की दशा भी कुछ अलग नहीं है।
22 जनवरी को राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद कुछ अग्रणी हिंदी अखबारों ने जिस तरह के शीर्षक लगाए, उससे उनकी सांप्रदायिक और विभाजनकारी विचारधारा का पता चलता है। ऐसा लगा मानो पत्रकारिता के नाम पर हिंदुत्व के एजेंडे को धार देने वाले ये अखबार उन चैनलों से होड़ कर रहे हैं, जो राम मंदिर उद्घाटन का अखंड कवरेज करने अपनी बसों में मंदिर वहीं बनाया है, लिख कर पहुंचे हुए थे। इनके कई पत्रकारों ने गले में भगवा गमछा डालकर रिपोर्टिंग की। ऐसे में शायद हिंदी अखबारों के पूंजीपति मालिकों के पास यही रास्ता बचा था कि वे शीर्षकों के जरिए हिंदुत्व के मुद्दे पर अपना समर्थन जाहिर करें। हमारे राम आ गए हैं, राष्ट्र की आस्था का नया सूर्योदय, रामचरित्र भास्कर ऐसी शीर्षकों को देखने के बाद एक तस्वीर याद आई, जिसमें दिखाया गया है कि मंदिर उद्घाटन वाले दिन अयोध्या में संविधान के पन्ने की पुड़िया में भेलपूरी बिक रही थी। अखबारों के पन्ने पर समोसे-भजिए तो कई जगह बिकते दिखे हैं, क्योंकि अखबार की जिंदगी सुबह 7 बजे तक की ही मानी जाती है।
लेकिन अब क्या संविधान का जीवन भी समाप्ति की ओर है। क्या संविधान की बातें अब रद्दी की टोकरियों में दिखेंगी और राम राज्य के नाम पर नये विधान लागू हो जाएंगे। सोशल मीडिया पर एक कार्टून भी नजर आया, जिसमें पत्रकारिता की अर्थी निकल रही है और लिखा है- राम नाम सत्य है। तो क्या वाकई अमृतकाल मनाते देश में पत्रकारिता का शोकगान करने का वक्त आ गया है। अपने पेशे की अर्थी निकलते देख कर पत्रकार विलाप करेंगे या रुदालियों के भरोसे रहेंगे, यह भी सोचने की बात है।
अखबारों से जरूरी खबरों की गुमशुदगी का सिलसिला तो एक अरसे से चल रहा है। खबरों से अधिक विज्ञापनों को तरजीह देना भी व्यावसायिक मजबूरी में स्वीकार कर लिया गया। फिर वह दौर भी आया जब कार्पोरेट हितों की खातिर विज्ञापनों के मुताबिक खबरें लगने लगीं। कुछ दिनों पहले एक अखबार ने अपने पहले पन्ने की सारी तस्वीरों को ही विज्ञापन के फेर में उल्टा प्रकाशित किया था। इस खिलवाड़ के बावजूद यह उम्मीद कहीं न कहीं थी कि अखबारों में पत्रकारिता के लिए न्यूज चैनलों से ज्यादा प्रतिबद्धता नजर आएगी। पिछले दो-तीन दिनों के अखबारों ने इस खुशफहमी को ध्वस्त कर दिया। खबर थी कि अमिताभ बच्चन ने करोड़ों की जमीन अयोध्या में खरीदी है, फिर मंदिर उद्घाटन के अगले ही दिन पूरे पन्ने के विज्ञापन में महानायक प्लॉट बेचते नजर आए। धर्म और कारोबार की जुगलबंदी पहले पन्ने पर दिखला दी गई। अखबारों के बारे में आमतौर पर यह धारणा बनी हुई थी कि वे निष्पक्ष खबरें और विचार प्रकाशित करेंगे। जनहित और देशहित में पत्रकारिता की राह बनाएंगे। ये धारणा भी गलत ही साबित हुई।
नेहरूजी हर पंद्रह दिन में राज्यों के मुख्यमंत्रियों को खत लिखकर अपनी चिंताओं और विचारों के बारे में बताते थे। 31 दिसंबर 1949 को लिखे ऐसे ही एक पत्र में उन्होंने लिखा था, संकीर्ण, सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से ग्रसित लोग अक्सर राष्ट्रवाद और देशभक्ति की उच्च ध्वनि वाले वाक्यांशों के तहत खुद को छिपाते हैं। और यह कुछ लोगों को आकर्षित करता है। नेहरूजी की यह बात आज के स्वनामधन्य पत्रकारों और पूंजीपति अखबार मालिकों पर भी लागू होती है। उनकी देशभक्ति और राष्ट्रवाद का मुखौटा उतर गया है।
पाकिस्तान की शायरा फहमीदा रियाज़ ने लिखा है-
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छुपे थे भाई
वो मूरखता वो घामड़-पन
जिसमें हम ने सदी गंवाई
आख़िर पहुंची द्वार तुहारे
अरे बधाई बहुत बधाई।
2024 का भारत 1947 के पाकिस्तान के रास्ते पर ही चलता हुआ दिखाई दे रहा है। फर्क यही है कि बीते 77 सालों में पाकिस्तान के कई पत्रकार लोकतंत्र के लिए आवाज उठाते रहे। हमारे देश में 77 साल बाद पत्रकार लोकतंत्र की आवाज को दबाने में लगे हैं। मूर्खता और घामड़पन की नयी सदी में देश को लाने के लिए, अपना घर जलाने के लिए बधाई, अरे बधाई।


