गाय के गोबर के जीवाणु से कम समय में बनेगी खाद
देसी गाय के गोबर से सूक्ष्म जीवाणु निकाल कर कचरे को परम्परागत विधि की तुलना में बहुत ही कम समय में खाद बनायी जा सकती है

नयी दिल्ली। देसी गाय के गोबर से सूक्ष्म जीवाणु निकाल कर कचरे को परम्परागत विधि की तुलना में बहुत ही कम समय में खाद बनायी जा सकती है और इसके लिये राष्ट्रीय जैविक केंद्र ने विशेष प्रकार का ‘ कचरा डीकंपोजर ’ द्रव तैयार किया है ।
कचरा डी कंपोजर द्रव से तैयार कंपोस्ट से मिट्टी में बहुत अधिक संख्या में केंचुए पैदा होते हैं जो पौधों को बिमारियों से रोकने में मदद करते हैं तथा मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं।
यह द्रव देसी गाय के गोबर से सूक्ष्म जीवाणुओं को निकाल कर बनाया गया है।
तरल वेस्ट डी कम्पोजर को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने सत्यापित किया है और अब यह मामूली कीमत में किसानों को उपलब्ध कराया जा रहा है ।
क्षेत्रीय जैविक खेती केन्द्रों के माध्यम से भी इसे उपलब्ध कराया जा रहा है।
इससे बड़ी मात्रा में कचरा डी कंपोजर तैयार किया जा सकता है।
इसके लिए दो किलो गुड़ को 200 लीटर पानी वाले प्लास्टिक ड्रम में मिलाया जाता है और फिर इसमें पहले से तैयार एक बोतल डी कंपोजर को मिला कर इसका मिश्रण तैयार किया जाता है ।
इस ड्रम के द्रव को पांच दिनों तक प्रत्येक दिन एक या दो बार कस कर हिलाया जाता है।
इसके बाद इसे पेपर या कार्ड बोर्ड से ढक दिया जाता है ।
पांच दिन के बाद इसका रंग क्रीमी हो जाता है ।
इस तरह एक बोतल से 200 लीटर बेस्ट डी कंपोजर घोल तैयार हो जाता है।
इसी तरह इस घोल बार बार घोल तैयार किया जा सकता है।
इस घोल के इस्तेमाल से कृषि कचरा, गोबर , रसोई तथा शहरों के कचरे को 40 दिनों के भीतर जैविक खाद बनायी जा सकती है।
इस घोल का जमीन पर छिड़काव भी किया जा सकता है जिससे मिट्टी काे उपजाऊ बनाने में मदद मिलती है।
वेस्ट डी कंपोजर का उपयोग 1000 लीटर प्रति एकड़ किया जाता है ।
इससे सभी प्रकार की मिट्टी (क्षारीय एवं अम्लीय) के रासायनिक एवं भौतिक गुणों में 21 दिनों के भीतर सुधार आने लगता है तथा इससे छह माह के भीतर एक एकड़ भूमि में चार लाख से अधिक केचुएं पैदा हो जाते हैं।
वेस्ट डी कंपोजर से बीजों का उपचार करने पर बीजों का 98 प्रतिशत मामलों में शीघ्र और एक सामान अंकुरण देखने में आया हैं तथा इससे अंकुरण से पहले बीजों को संरक्षण प्रदान होता है।
इस घोल का पौधों पर छिड़काव करने से विभिन्न प्रकार की बीमारियों पर रोक लगाने में भी मदद मिलती है।
इसका उपयोग कर किसान बिना रसायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक के फसल ले सकते हैं।
इसके इस्तेमाल से यूरिया, डीएपी या एमओपी की खपत पर अंकुश लग सकता है।


