चुनाव में जलवायु परिवर्तन
संयुक्त राष्ट्र संघ' की 'विश्व मौसम विज्ञान संस्था' ने एशिया में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें यह बात सामने आई है कि वैश्विक तापमान वृद्धि का प्रभाव एशिया में विश्व औसत से ज्यादा पड़ रहा है

- कुलभूषण उपमन्यु
इतनी चिंताजनक स्थिति के बाबजूद वर्तमान चुनावों में यह मुद्दा जनता के बीच महत्वपूर्ण नहीं बन सका है। पर्यावरण से जुड़े दिवसों पर चेतना रैली निकालने, कुछ अच्छे-अच्छे नारे लगाने, भाषण प्रतियोगिता आयोजित करने या ज्यादा-से-ज्यादा चुनावी घोषणा-पत्रों में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े वादे उछालने तक हम सीमित होते जा रहे हैं। राजनैतिक दल भी जन चेतना जगाने के इस मौके का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ' की 'विश्व मौसम विज्ञान संस्था' ने एशिया में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें यह बात सामने आई है कि वैश्विक तापमान वृद्धि का प्रभाव एशिया में विश्व औसत से ज्यादा पड़ रहा है। इस क्षेत्र के कई देशों में आज तक का अधिकतम तापमान दर्ज किया गया है, जिसके कारण इस महाद्वीप में 2023 में 90 लाख लोग बाढ़ों और तूफानों से प्रभावित हुए हैं, दो हजार लोग काल का ग्रास बने हैं। जलवायु परिवर्तन ने बाढ़, सूखे और तूफानों की घटनाओं को न केवल बढ़ाया है, बल्कि उनकी भयावहता को भी बढ़ाया है जिसका दुष्प्रभाव वहां के समाजों, अर्थ-व्यवस्थाओं, और मानव जीवन पर पड़ा है। जलवायु परिवर्तन के मुख्य सूचकों, जैसे - जमीनी तापमान में वृद्धि, ग्लेशियरों का पिघलना और समुद्र के जलस्तर के बढ़ने से बिगड़ती हुई स्थिति का पता चल रहा है। 1960-1990 के दौर के मुकाबले तापमान वृद्धि की दर लगभग दुगनी हो गई है। 2023 में जहां एक ओर सूखा पड़ा वहीं दूसरी ओर भयानक बाढ़ें आईं। लू के कारण 100 लोगों की मौत हो गई और सिक्किम का तीस्ता-3 बांध बाढ़ की चपेट में आकर ध्वस्त हो गया। इस दुर्घटना में 100 लोग अपनी जान गंवा बैठे।
बढ़ते तापमान के कारण इस तरह की घटनाओं के बढ़ने की संभावना है। भारत और बांग्लादेश में लू की संभावनाओं में 30 गुणा वृद्धि की आशंका पैदा हो गई है। एशिया के तेज़ गति से बढ़ते तापमान के चलते इसके ग्लेशियर भी खतरे में पड़ गए हैं। मुख्य 22 ग्लेशियरों में से 20 में भारी नकारात्मक बदलाव हुए हैं, यानि ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज़ हुई है। तापमान वृद्धि से समुद्र का जल भी ज्यादा गर्म हो रहा है जिसके कारण भारी बारिश और समुद्री तूफानों का खतरा बढ़ा है। पिछले चार दशकों में अरब सागर में समुद्री तूफानों की संख्या में डेढ़ गुना वृद्धि हुई है और तूफानों की घातकता भी बढ़ी है।
जुलाई और अगस्त 2023 में हिमाचल और उत्तराखंड में भारी बारिश के कारण भूस्खलन से हुई तबाही का भी रिपोर्ट में जिक्र किया गया है जिसको भारत सरकार ने आपात स्थिति घोषित किया था। इन स्थितियों से निपटने के लिए आपदा प्रबन्धन के विषय में भी काफी कुछ करने की जरूरत पर रिपोर्ट में प्रकाश डाला गया है। हालांकि भारत ने इस विषय में कुछ मानकों पर अच्छी प्रगति की है, फिर भी काफी कुछ किये जाने की जरूरत है। पूर्व-चेतावनी व्यवस्था में सुधार करके आपदाओं से होने वाली हानि को 30 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
रिपोर्ट में आर्थिक असमानता के चलते जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के और ज्यादा चिंताजनक होने की बात कही गई है। जाहिर है, बढ़ते तापमान का प्रत्यक्ष डंक उन गरीब लोगों को भुगतना पड़ता है जिनके पास आवास की व्यवस्था नहीं है या जिन्हें दैनिक मजदूरी पर निर्भर रहना पड़ता है या किसान, जिनकी फसल खुले में ईश्वर भरोसे रहती है। उनके लिए जलवायु-अनुकूलन व्यवस्था खड़ी करना भी संभव नहीं होता। बढ़ते तापमान से फसलों की उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ने के कारण खाद्य सुरक्षा पर भी खतरा पैदा होने की संभावना बढ़ सकती है।
इस दिशा में जलवायु की विपरीत स्थितियों को झेलने में सक्षम फसलों की किस्मों पर ज्यादा शोध और प्रचार-प्रसार की जरूरत है। इस दिशा में पुराने समय में प्रचलित फसलों कोदों, रामदाना, स्वांक, बाजरा आदि का प्रचार-प्रसार करके अच्छी पहल की जा रही है, किन्तु कार्बन उत्सर्जन करने वाली उर्जा उत्पादन तकनीकों और बड़े प्रोजेक्टों, खनन परियोजनाओं के कारण वनों के विनाश से कार्बन प्रदूषण की चुनौतियां यथावत बनी हैं और बढ़ भी रही हैं। पिछले 15 वर्षों में भारतवर्ष में 3 लाख हेक्टेयर वनभूमि का उपयोग इस तरह की बृहदाकार योजनाओं के लिए बदला जा चुका है और यह क्रम सतत जारी है।
इतनी चिंताजनक स्थिति के बाबजूद वर्तमान चुनावों में यह मुद्दा जनता के बीच महत्वपूर्ण नहीं बन सका है। पर्यावरण से जुड़े दिवसों पर चेतना रैली निकालने, कुछ अच्छे-अच्छे नारे लगाने, भाषण प्रतियोगिता आयोजित करने या ज्यादा-से-ज्यादा चुनावी घोषणा-पत्रों में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े वादे उछालने तक हम सीमित होते जा रहे हैं। राजनैतिक दल भी जन चेतना जगाने के इस मौके का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। आम मतदाता निजी आर्थिक लाभ से ज्यादा सोचने को तैयार नहीं है इसलिए राजनैतिक दल भी इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेते हैं।
हिमालय के नाजुक पारिस्थितिकी संतुलन की दृष्टि से यह मामला और भी ज्यादा संगीन हो जाता है, किन्तु हम प्राकृतिक आपदा का बहाना गढ़कर आत्म-संतुष्टि कर लेते हैं या खुद को धोखा देते रहते हैं, जबकि हम सब समझते हैं कि जलवायु परिवर्तन मानव निर्मित गलतियों का नतीजा है। फिर भी हम न तो आत्मसंयम से अनावश्यक वस्तुओं, पदार्थों के उपयोग से बचना चाहते हैं न ही सरकारों के सामने अपनी पर्यावरण विषयक चिंताओं को रखकर दबाव बनाकर नीतिगत बदलाव की मांग रखना चाहते हैं। सरकारें विकास को 'सकल घरेलू उत्पाद' से नापकर आगे बढ़ती हैं, उन्हें पर्यावरण जैसे मुद्दे लुभावने नहीं लगते।
दुनिया भर की सरकारें जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर टालमटोल करते हुए, शर्माते हुए थोड़ा-बहुत कार्य करती रहती हैं। जब आपदाएं आती हैं तब कुछ गंभीरता दिखाई देती है, लेकिन धीरे-धीरे प्रकृति के ऊपर दोषारोपण करके उसे भी भूल जाती है। इस बार कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ने ही इस मुद्दे पर कुछ लक्ष्य अपने-अपने चुनावी घोषणा-पत्रों में रखे हैं, किन्तु पिछले अनुभव के आधार पर ज्यादा आशा नहीं जगती है।
शिमला में 2009 में 'जलवायु सम्मेलन' हुआ था जिसमें हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए कुछ लक्ष्य तय किये गए थे, किन्तु दोनों प्रमुख दलों को पर्याप्त समय मिलने के बाबजूद इस दिशा में विशेष प्रगति नहीं हो सकी। वैश्विक स्तर और हिमालय के स्तर पर जलवायु परिवर्तन की चुनौती के कारण बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के चलते अब समय आ गया है जबकि इस मुद्दे पर आम जनता और राजनैतिक दलों को चुनावी राजनीति के केंद्र में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे को लिया जाना चाहिए, ताकि सरकार गठन के बाद इस मुद्दे पर समुचित कार्य किया जा सके और सरकारों की जवाबदेही भी तय हो।
(लेखक हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं।)


