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पुलिस बल को साफ-सुथरा करने से रुकेंगे एनकाउन्टर

उत्तर प्रदेश में 'एनकाउंटर किलिंग' के सामान्यीकरण पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है

पुलिस बल को साफ-सुथरा करने से रुकेंगे एनकाउन्टर
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- जगदीश रत्तनानी

'एनकाउंटर' का मसला एक ऐसे पुलिस बल के अभाव में पनपा है जो अपने औपनिवेशिक हैंगओवर को दूर करने में असमर्थ और अनिच्छुक है, जो भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है तथा पेशेवर काम के लिए अयोग्य है। यह पुलिस बल भीतर और बाहर से सत्ता संरचनाओं का हाथ बन गया है जो कुछ चुनिंदा लोगों के लिए काम करता है।

उत्तर प्रदेश में 'एनकाउंटर किलिंग' के सामान्यीकरण पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। वर्दी पहने हुए व्यक्तियों द्वारा न्यायेतर हत्याएं अब एक नया रंग ले रही हैं। हालांकि चिंता का तात्कालिक कारण 2017 के बाद से उत्तर प्रदेश में हुईं 183 'मुठभेड़' हत्याएं हैं लेकिन जो बड़ी समस्या सामने खड़ी है वह पूरे देश में इस पद्धति का व्यापक उपयोग और इस तरह के दृष्टिकोण का आनंद लेने वाले सार्वजनिक समर्थन की है। न्यायेतर हत्याएं न्याय प्रदान करने के लिए बनाई गई व्यवस्था को खत्म कर त्वरित न्याय देने का विचित्र दावा करती हैं। अधिकारियों द्वारा दिया जा रहा और लोगों द्वारा स्वीकार किया जा रहा तर्क उतना ही सरल और विलक्षण है- हमें कानून को बनाए रखने के लिए कानून तोड़ना होगा।

सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक मुद्दों के एक जटिल समूह ने हमें इन हालात तक पहुंचाया है। 'एनकाउंटर' का मसला एक ऐसे पुलिस बल के अभाव में पनपा है जो अपने औपनिवेशिक हैंगओवर को दूर करने में असमर्थ और अनिच्छुक है, जो भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है तथा पेशेवर काम के लिए अयोग्य है। यह पुलिस बल भीतर और बाहर से सत्ता संरचनाओं का हाथ बन गया है जो कुछ चुनिंदा लोगों के लिए काम करता है। न्यायेतर हत्याएं असाधारण ज्यादतियां हैं, चाहे वे राजनीतिक आकाओं के इशारे पर हों या किसी ऐसे बल द्वारा की जा रही हों जो आम तौर पर उचित प्रक्रिया से गुजर कर न्याय दिला सकती हो। न्यायेतर हत्याओं को समाप्त करने के लिए असाधारण उपायों की आवश्यकता है।

13 मई, 2011 को अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति मार्कन्डेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने फर्जी मुठभेड़ों को 'दुर्लभतम' अपराध करार दिया था। उनका कहना था कि ऐसे अपराध की सजा मृत्युदंड होना चाहिए। उनके शब्दों में- 'हमारा विचार है कि जिन मामलों के मुकदमों में पुलिसकर्मियों के खिलाफ फर्जी मुठभेड़ साबित होती है, उसे दुर्लभतम मामलों के रूप में माना जाना चाहिए और उन्हें मौत की सजा दी जानी चाहिए । फर्जी 'मुठभेड़' कुछ और नहीं बल्कि उन लोगों द्वारा ठंडे दिमाग से की गई निर्मम हत्याएं हैं जिनसे कानून का पालन करने की अपेक्षा की जाती है। हमारी राय में यदि अपराध आम लोगों द्वारा किए जाते हैं तो सामान्य सजा दी जानी चाहिए लेकिन यदि अपराध पुलिसकर्मियों द्वारा किया जाता है तो उन्हें बहुत कठोर सजा दी जानी चाहिए क्योंकि वे अपने कर्तव्यों के बिल्कुल विपरीत कार्य करते हैं।'

न्यायमूर्तियों ने पुलिस अधिकारियों को चेतावनी भी दी कि वे इस दलील पर बच नहीं पाएंगे कि वे ऊपर से मिले आदेश का पालन कर रहे हैं। पीठ ने अत्यंत कठोर भाषा में अपने विचार इस प्रकार प्रकट किए-

'न्यूरेमबर्ग (नूर्नबर्ग) सुनवाई में नाजी युद्ध अपराधियों ने यह दलील दी थी कि 'आदेश आदेश होते हैं।' फिर भी उन्हें फांसी दी गई। यदि किसी पुलिसकर्मी को किसी वरिष्ठ द्वारा फर्जी 'मुठभेड़' करने का अवैध आदेश दिया जाता है तो यह उसका कर्तव्य है कि वह इस तरह के अवैध आदेश को पूरा करने से इनकार करे अन्यथा उस पर हत्या का आरोप लगाया जाएगा और दोषी पाए जाने पर उसे मौत की सजा सुनाई जाएगी। 'एनकाउंटर' एक आपराधिक फिलॉसफी है और यह बात सभी पुलिसकर्मियों को पता होनी चाहिए। ट्रिगर दबाकर हत्या करके खुश होने वाले पुलिसकर्मी यदि यह सोचते हैं कि वे 'मुठभेड़' के नाम पर लोगों को मार सकते हैं और इससे बच सकते हैं तो उन्हें पता होना चाहिए कि फांसी का फंदा उनका इंतजार कर रहा है।'

ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें फ्रेम में मढ़ कर प्रत्येक पुलिस चौकी में हर किसी को याद दिलाने के लिए लगाया जाना चाहिए कि उन्हें उन आदेशों का पालन नहीं करना है जो प्रथम दृष्टया अवैध हैं और कानून का उल्लंघन करते हैं। वास्तव में यह पुलिस बल को साफ-सुथरा रखने का एक अच्छा मार्ग प्रदान करता है जो अपने कर्तव्य पालन में विफल हो रहा है और अपने साथ ही भारतीय शासन प्रणाली को नीचा दिखा रहा है।

यह स्वीकार करते हुए कि कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए फर्जी मुठभेड़ एक अच्छा तरीका है; और होगा, भारत ने सामूहिक रूप से स्वीकार किया है कि राष्ट्र अपने मूल कर्तव्यों में विफल रहा है तथा व्यवस्था को कायम रखने के लिए संविधानेतर तरीकों का सहारा लेना चाहिए। इसके निहितार्थ अत्यंत भयावह हैं। एक तरफ भारत खुद को उभरती हुई वैश्विक शक्ति के रूप में देख रहा है, वह आज जी-20 का प्रमुख है और एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो जीडीपी के मुताबिक दुनिया में पांचवीं सबसे बड़ी है। दूसरी ओर, भारत में फलते-फूलते गैंगस्टरों की कहानी है जो जब बहुत बड़े हो जाते हैं तो उन्हें एकांत स्थान पर ले जाया जाता है और गोली मार दी जाती है।

इस कॉलम के लेखक जैसे कई पत्रकारों को उन मामलों के बारे में पता है जहां अपराधियों का ठंडे दिमाग से एनकांउंटर किया गया। मुंबई में एक समय ये तथाकथित मुठभेड़ें चरम पर थीं। लेकिन मुंबई इस बात का भी उदाहरण है कि इस 'समाधान' का क्या गलत परिणाम हुआ। जिन गिरोहों को खत्म किया गया था वे वास्तव में पुलिस बल के भीतर फिर से बनाये और पुन: पेश किये गये थे। अपनी दोस्ती वाले पुलिसकर्मियों के एक यूनिट का उपयोग करके गैंग 'ए' ने गिरोह 'बी' के सदस्यों को मरवा डाला। गैंग 'बी' ने गैंग 'ए' के सदस्यों को खत्म करने के लिए एक अन्य पुलिस यूनिट की मदद से ऐसा ही किया।

एनकाउंटर के खेल में शामिल दोनों पुलिस यूनिटों ने पैसा कमाया, 'मुठभेड़ विशेषज्ञ' होने की प्रतिष्ठा अर्जित की और दावा भी किया कि जनता ने उनकी कार्रवाई का स्वागत किया था। पुलिस बल येन केन प्रकारेण अपना मकसद हासिल करने के लिए काम करने वाले 'डर्टी हैरी' टाईप पुलिसकर्मी बनाने का केन्द्र बन गया। ( हॉलीवुड में 1971 में 'डर्टी हैरी' नामक एक फिल्म बनी थी जिसमें नायक क्लिंट इस्टवुड एक पुलिस कर्मी है जो अपना मकसद हासिल करने के लिए कायदे-कानून तोड़ने से नहीं हिचकता)। हमने वर्दी में गिरोह तैयार किए जो एक-दूसरे को टक्कर देने की कोशिश कर रहे थे। चूंकि हत्याएं और खून-खराबा चरम पर थे, असुरक्षा बढ़ गई थी इसलिए प्रशासन को इन तरीकों को रोकना पड़ा और दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करनी पड़ी।

यह एक स्पष्ट तथ्य है कि हर उस मामले में जहां हकीकत में मुठभेड़ हुई ही नहीं, दूसरी तरफ से गोली चली ही नहीं या अपराधियों का पीछा करते समय पुलिस को हमले का सामना करना ही नहीं पड़ा, उन मामलों में सारे घटनाक्रम की कहानी बनाकर उस तरीके से सारे दस्तावेज बनाकर रिकार्ड पर लाना पड़ता है। यानी एक झूठ को सच बताने के लिए हजार झूठे दस्तावेज बनाए जाते हैं। इस प्रकार के प्रकरण को मुठभेड़ बतलाने के लिए झूठ पर झूठ बोलने पड़ते लेकिन जिनकी पोल आज नहीं तो कल खुल ही जाती है। यूपी में हाल के मामलों में भी पुलिसकर्मियों को छोड़ा नहीं जाएगा। इस मामले में पहले ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की जा चुकी है।

फिर भी, खतरा दूर होता दिखाई नहीं दे रहा है बल्कि और बदतर होता जा रहा है। सुशासन में इस खतरनाक गिरावट की अनुमति देने के लिए हम राजनीतिक नेताओं के वर्तमान समूह को दोषी ठहरा सकते हैं। लेकिन भारतीय संवैधानिक व्यवस्था को भी ऐसे समाधान निकालने चाहिए जो ऐसी घटनाओं को रोक सके। एनकाउंटर हत्याओं को रोकना इतना मुश्किल नहीं है। न्यायमूर्ति काटजू और न्यायमूर्ति मिश्रा द्वारा सुझाए गए उपायों पर आधारित एक या दो कठोर फैसले पुलिस और राज्य सरकारों को मजबूत संकेत देंगे कि उनकी मनमर्जी नहीं चलेगी। ये हत्याएं करने वाले कई पुलिसकर्मी वास्तव में साहसी नहीं है या उनका दामन पाक-साफ नहीं हैं। यही वजह है कि वे ऊपर से आए आदेशों और प्रलोभनों का विरोध नहीं कर सकते हैं। इसके अलावा, संवेदनशील ऑपरेशन के लिए बाहर जाने वाली किसी भी टीम के लिए बॉडीकैम का उपयोग अनिवार्य किया जा सकता है। एक अतिरिक्त टीम को साथ जाने के लिए कहा जा सकता है जो पूरे मामले की वीडियो टेपिंग करे। यह करना मुश्किल काम नहीं है।

'मुठभेड़' हत्याओं के लिए जानी जाने वाली पुलिस टीमों को 'साफ' करना वास्तव में प्रक्रियाओं को एक नए सिरे से आरंभ करने की शुरुआत हो सकती है। यह उन तरीकों से सुधारों का वादा करती है जिनके बारे में पहले सोचा नहीं गया था। सुधार न करने का मतलब यह स्वीकार करना है कि कानून का शासन ध्वस्त हो गया है। यही वह समय है जब हम सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में पूछ सकते हैं कि 'जंगल के कानून' को समाप्त कर 'कानून का राज' प्रस्थापित करने में कितना समय लगेगा। वर्तमान समय का सारा घटनाक्रम हमारी लोकतांत्रिक परंपराओं के नाम पर बनाई गई उन सभी चीजों में भारत को पीछे धकेल रहा है, डुबो रहा है और बर्बाद कर रहा है, जिन्हें हम प्रिय मानते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)


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