Top
Begin typing your search above and press return to search.

गृहयुद्ध की शक्ल लेता सामाजिक टकराव

 प्रधानमंत्री ने कहा था- 'जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक या आर्थिक आधार पर लोगों में विभेद, यह सब ऐसे जहर हैं जो हमारे आगे बढऩे में बाधा डालते हैं

गृहयुद्ध की शक्ल लेता सामाजिक टकराव
X

प्रधानमंत्री ने कहा था- 'जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक या आर्थिक आधार पर लोगों में विभेद, यह सब ऐसे जहर हैं जो हमारे आगे बढऩे में बाधा डालते हैं। आइए, हम सब अपने मन में एक संकल्प लें कि दस साल तक हम इस तरह की किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे। हम आपस में लडऩे के बजाय गरीबी से, बेरोजगारी से, अशिक्षा से तथा तमाम सामाजिक बुराइयों से लडेंग़े और एक ऐसा समाज बनाएंगे जो हर तरह के तनाव से मुक्त होगा।

मैं अपील करता हूँ कि यह प्रयोग एक बार अवश्य किया जाए। इसे संयोग कहें या सुनियोजित साजिश कि प्रधानमंत्री के इसी भाषण के बाद देश में चारों तरफ से सांप्रदायिक और जातीय हिंसा की खबरें आने लगीं।

तीन साल पहले प्रधानमंत्री बनने के ढाई महीने बाद जब नरेंद्र मोदी ने स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से पहली बार देश को संबोधित किया था तो उनके भाषण को समूचे देश ने ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे देशों ने भी बड़े गौर से सुना था। विकास और हिंदुत्व की मिश्रित लहर पर सवार होकर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी ने अपने उस भाषण में देश की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर बदलने वाले कुछ कार्यक्रम पेश करते हुए देश से और खासकर अपनी पार्टी तथा उसके सहमना संगठनों के कार्यकर्ताओं से अपील की थी कि अगले दस साल तक देश में सांप्रदायिक या जातीय तनाव के हालात पैदा न होने दें।

मोदी का यह भाषण उनकी स्थापित और बहुप्रचारित छवि के बिल्कुल विपरीत, सकारात्मकता और सदिच्छा से भरपूर था। देश-दुनिया में इस भाषण को व्यापक सराहना मिली थी जो स्वाभाविक ही थी। दरअसल, मोदी जानते थे कि देश में जब तक सामाजिक-सांप्रदायिक तनाव या संघर्ष के हालात रहेंगे तब कोई भी विदेशी निवेशक भारत में पूंजी निवेश नहीं करेगा और विकास संबंधी दूसरी गतिविधियां भी सुचारू रूप से नहीं चल पाएंगी।

प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद उम्मीद लगाई जा रही थी कि उनकी पार्टी तथा उसके उग्रपंथी सहमना संगठनों के लोग अपने और देश के सर्वोच्च नेता की ओर हुए आह्वान का सम्मान करते हुए अपनी वाणी और व्यवहार में संयम बरतेंगे। लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

प्रधानमंत्री की नसीहत को उनकी पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ता तो दूर, केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्टी के जिम्मेदार पदाधिकारियों ने भी तवज्जो नहीं दी। इन सबके श्रीमुख से सामाजिक और सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाले बयानों के आने का सिलसिला जारी रहा।

इसे संयोग कहें या सुनियोजित साजिश कि प्रधानमंत्री के इसी भाषण के बाद देश में चारों तरफ से सांप्रदायिक और जातीय हिंसा की खबरें आने लगीं। कहीं गोरक्षा, तो कहीं धर्मांतरण के नाम पर, कहीं मंदिर-मस्जिद तो कहीं आरक्षण के नाम पर, कहीं गांव के कुएं से पानी भरने के सवाल पर तो कहीं दलित दूल्हे के घोड़ी पर बैठने को लेकर। ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाएं मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले नहीं होती थीं।

पहले भी ऐसी घटनाएं होती थीं, लेकिन कभी देश के इस कोने में तो कभी उस कोने में, लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तो ऐसी घटनाओं ने देशव्यापी रूप ले लिया। यहां तक कि 2002 की भीषण सांप्रदायिक हिंसा के बाद शांति और विकास के टापू के रूप में प्रचारित मोदी का गृह राज्य गुजरात भी जातीय हिंसा की आग में झुलस उठा।

गुजरात में पटेल बिरादरी ने आरक्षण की मांग को लेकर एक तरह से विद्रोह का झंडा उठा लिया। व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई। अरबों रुपए की सरकारी और निजी संपत्ति आगजनी और तोडफ़ोड़ का शिकार हो गई। एक 24 वर्षीय नौजवान अपनी बिरादरी के लिए हीरो और राज्य सरकार के लिए चुनौती बन गया। आंदोलन को काबू में करने के लिए राज्य सरकार को अपनी पूरी ताकत लगानी पडी।

इस हिंसक टकराव के कुछ ही दिनों बाद उसी सूबे में दलित समुदाय के लोगों पर गोरक्षा के नाम पर प्रधानमंत्री की पार्टी के सहयोगी संगठनों का कहर टूट पडा। दलितों ने यद्यपि जवाबी हिंसा नहीं की लेकिन उन्होंने अपने तरीके से अपने ऊपर हुए हमलों का प्रतिकार किया। हालात इतने बेकाबू हो गए कि सूबे की मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी छोडनी पडी। हालांकि सामाजिक तनाव वहां अभी भी बरकरार है।

दिल्ली से सटे हरियाणा में भी आरक्षण के नाम पर जातीय तनाव लंबे अरसे से बना हुआ है। लगभग एक साल पहले सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर जाट समुदाय के आंदोलन ने जिस तरह हिंसक रूप ले लिया था वह तो अभूतपूर्व था ही, राज्य सरकार का उस आंदोलन के प्रति मूकदर्शक बना रहना भी कम आश्चर्यजनक नहीं था। हरियाणा वह प्रदेश है जहां प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के सहारे भाजपा ने पहली बार अपनी सरकार बनाई है।

प्रधानमंत्री मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाले सूबे यानी उत्तर प्रदेश में तो हालात कुछ ज्यादा ही गंभीर हैं। वहां गोरक्षा के नाम पर भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने पहले से ही आतंक मचा रखा था, जिसका सिलसिला वहां भाजपा की सरकार बनने के बाद और तेज हो गया है। लंबे समय से सांप्रदायिक तनाव को झेल रहे इस सूबे को सत्ता परिवर्तन के साथ ही जातीय तनाव ने भी अपनी चपेट में ले लिया है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह जिले गोरखपुर से शुरू हुआ जातीय हिंसा का सिलसिला पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मेरठ और बुलंदशहर तक पहुंच चुका है।

मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ, पंजाब और झारखंड में भी पिछले तीन वर्षों के दौरान जातीय और सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं हुई हैं। कहीं दलित दूल्हे का घोड़ी पर बैठना गांव के सवणों को रास नहीं आया तो कहीं दलितों को सार्वजनिक कुएं से पानी भरने और मंदिर में प्रवेश करने की कीमत चुकानी पड़ी है। चूंकि ऐसी सभी घटनाओं पर इन सूबों की सरकारों के मुखिया ने कोई सख्त प्रतिक्रिया नहीं जताई, लिहाजा स्थानीय पुलिस-प्रशासन ने भी सत्ता में बैठे लोगों की भाव-भंगिमा के अनुरूप कदम उठाते हुए मामले पर लीपापोती ही की है।

चूंकि ये सारी घटनाएं प्रधानमंत्री की मंशा और विकास के उनके घोषित एजेंडा के अनुकूल नहीं रहीं, लिहाजा देश को अपेक्षा थी कि ऐसी घटनाओं पर प्रधानमंत्री राज्य सरकारों और अपने पार्टी कॉडर के प्रति सख्ती से पेश आएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। नतीजतन जातीय और सांप्रदायिक तनाव का समूचा परिदृश्य गृहयुद्ध जैसे हालात का आभास दे रहा है। इस परिदृश्य को और इस पर प्रधानमंत्री की चुप्पी को देश के भविष्य के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता।

-अनिल जैन


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it