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अफगानिस्तान में अपने पांव पसार रहा है चीन

अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के अधिकारी दुनियाभर से अपने यहां आने और निवेश करने की अपील कर रहे हैं लेकिन ज्यादातर देश उनके साथ काम करने को तैयार नहीं हैं

अफगानिस्तान में अपने पांव पसार रहा है चीन
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अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के अधिकारी दुनियाभर से अपने यहां आने और निवेश करने की अपील कर रहे हैं लेकिन ज्यादातर देश उनके साथ काम करने को तैयार नहीं हैं. पर ऐसे हालात में भी चीन वहां धीरे-धीरे अपने पांव पसार रहा है.

चीनी अधिकारियों और तालिबान के बीच हाल के दिनों में कई बैठकें हुई हैं, जिनमें खनिज दोहन और सड़कें बनाने को लेकर समझौते हुए हैं. हालांकि चीन इन समझौतों को लेकर चुप्पी बनाए हुए है और ज्यादा अहमियत देने से बच रहा है लेकिन विश्लेषक और अधिकारी कहते हैं कि इन समझौतों से दोनों देशों को फायदा हो रहा है.

पेरिस स्थित फाउंडेशॉन फॉर स्ट्रैटिजिक रिसर्च में एनालिस्ट वैलरी निके कहती हैं, "अफगानिस्तान एक चुनौतीपूर्ण जगह है लेकिन चीनी लोग वहां पहुंचने के लिए जाने जाते हैं जहां कोई नहीं जाता. वे इस बात का फायदा उठाने की कोशिश में हैं. अफगानियों को हर संभव मदद की दरकार है और चीन उन्हें मदद का हाथ बढ़ा रहा है.”

सितंबर में चीन दुनिया का पहला देश बना था जिसने काबुल में अपना राजदूत तैनात किया था. मंगलवार को तालिबान ने बीजिंग में अपना राजदूत तैनात किया. साथ ही वहां एक दर्जन अधिकारियों को भी तैनात किया गया है. मंगलवार को तालिबानी राजदूत ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अपने दस्तावेज सौंपे.

चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने कहा, "मुझे लगता है कि जब सभी पक्षों की चिंताओं को दूर किया जाएगा तो अफगानिस्तान सरकार को मान्यता अपने आप मिल जाएगी.”

चीन का पूरा समर्थन

पिछले महीने यूएन सुरक्षा परिषद में अफगानिस्तान के लिए विशेष दूत नियुक्त करने पर बात हुई थी तब रूस और चीन ने प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया. अफगानिस्तान इस प्रस्ताव का विरोध कर रहा था और उसे चीन और रूस का साथ मिला.

अंतरराष्ट्रीय समुदाय तालिबान से कई मांगें कर रहा है. इनमें महिलाओं को शिक्षा, काम और सुरक्षा के अधिकारों के अलावा अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और सरकार में उनकी हिस्सेदारी शामिल है.

चीन का रवैया दूसरी तरह का है. उसने तालिबान को आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी है लेकिन दोनों ने एक-दूसरे के यहां दूतावास खोल दिए हैं. यानी चीन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के खिलाफ भी नहीं गया और उसने अफगानिस्तान के साथ रिश्ते भी बना लिए हैं.

निके कहती हैं, "मूलभूत रूप से चीन महिला अधिकारों की ज्यादा परवाह करता ही नहीं है. अगर तालिबान के साथ नजदीकी बढ़ाने से उसके हित सधते हैं तो वह किसी तरह की शर्त नहीं लगाएगा.”

चीन के समर्थन के बदले में तालिबान ने भी चीन में उईगुर मुसलमानों के शोषण के आरोप पर चुप्पी साध रखी है. चीन को इस समर्थन का फायदा अफगानिस्तान में मौजूद अथाह संसाधनों तक पहुंच के रूप मिलेगा. साथ ही चीनी उत्पादों के लिए बाजार भी मिलेगा.

चीन के आर्थिक हित

काबुल स्थित करदान यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले जलाल बाजवान कहते हैं, "अफगानिस्तान में तांबा, लीथियम और अन्य कई दुर्लभ खनिज उपलब्ध हैं जो चीन के लिए विशाल आर्थिक संभावनाएं रखते हैं.”

दिसंबर में जब बिलाल करीमी को बीजिंग में अफगानिस्तान का राजदूत तैनात किया गया था, तभी उन्होंने चीनी सरकारी कंपनी एमसीसी के साथ बातचीत शुरू कर दी थी. इस बातचीत में काबुल से करीब 40 किलोमीटर दूर मेस अयनाक स्थित दुनिया के दूसरे सबसे बड़े तांबा भंडार में दोहन शामिल था.

एमसीसी को 2008 में वहां खनिज दोहन के अधिकार मिले थे लेकिन 3.5 अरब डॉलर का यह प्रोजेक्ट युद्ध की वजह से सिरे नहीं चढ़ पाया. फिर वहां बौद्ध अवशेष मिलने के बाद मामला और जटिल हो गया.

अफगान खनिज मंत्रालय के प्रवक्ता हुमायूं अफगान कहते हैं, "ये ऐतिहासिक धरोहरें अफगानिस्तान का सांस्कृतिक धन हैं, उसकी पहचान का हिस्सा हैं.” वैसे 23 साल पहले इसी तालिबान ने बामयान में बौद्ध मूर्तियों को गैर-इस्लामिक बताकर तोड़ दिया था.

चीन को हाइड्रोकार्बन की भी भूख है और अफगानिस्तान में मौजूद तेल की संभावनाओं में भी उसकी दिलचस्पी है. जनवरी 2023 से उसने अमू बेसिन में तेल दोहन के लिए समझौते पर बातचीत फिर से शुरू की थी और अब 18 तेल कुओं में दोहन शुरू हो चुका है. इसके अलावा चीनी कंपनियों ने देश में सौर ऊर्जा में करीब आधा अरब डॉलर का निवेश भी किया है.


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