ठिठुरता गणतंत्र, आहत महामहिम
एक तो दिल्ली की सर्दी, ऊपर से ठिठुरते हुए गणतंत्र की चिंता और इसमें सांसदों का ऐसा व्यवहार, महामहिम का आहत होना स्वाभाविक था

- सर्वमित्रा सुरजन
एक तो दिल्ली की सर्दी, ऊपर से ठिठुरते हुए गणतंत्र की चिंता और इसमें सांसदों का ऐसा व्यवहार, महामहिम का आहत होना स्वाभाविक था। उन्होंने भी टू मच डेमोक्रेसी की तरह कह दिया कुछ तो सीमा होती होगी। कुछ जगह तो बख्शो। सही बात है जो काम प्रधानमंत्री मोदी का है, अब उसे दूसरे सांसद करने लग जाएंगे, तो ये मोदीजी के अधिकार क्षेत्र का सरासर उल्लंघन है।
कड़ाके की सर्दी पड़नी शुरु हो गई है। गण कांप रहे हैं, तंत्र पर पाला पड़ गया है। परसाई जी आज होते तो शायद ठिठुरते गणतंत्र में आहत महामहिम की व्यथा-कथा पर भी लिखते कि कैसे ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोगों के हक मारे जा रहे हैं। अब समझ आ रहा है कि माननीय मोदीजी क्यों देश में भव्य राम मंदिर बनवा रहे हैं। बेचारे राम कब से अपने घर के बाहर हैं। सोचने वाली बात है कोई घर से बाहर रहेगा तो कैसे राज कायम करेगा। इसलिए मंदिर में श्री राम का विराजना और संसद में प्रधानमंत्री की आसंदी पर नरेन्द्र मोदी का विराजना जरूरी है। जब ऐसा होगा, तभी राम राज कायम होगा। अभी तो घोर कलजुग चल रहा है। सनातन धर्म को चुनौती दी जा रही है।
क्या पिघले हुए सीसे अधर्मियों के कान में डालने की जगह नालियों में बहा दिए गए हैं। इसलिए इन्हीं नालियों से गैस बनाने का गुर मोदीजी सिखा रहे थे। कितने ज्ञानी और दूरदर्शी हैं वे, हर बात वक्त से पहले समझ जाते हैं। उन्होंने 2001 में ही देख लिया था कि आने वाले सालों में देश का क्या हाल होने वाला है। चाय बेचते-बेचते संन्यास लेने और गुफा में चश्मा लगाकर तपस्या करने का यही तो लाभ है कि आप इहलोक-परलोक सबके संकेत समझ जाते हैं। उन्हें अहसास था कि सदियों से चले आ रहे लोकतंत्र को आजादी के बाद मिले लोकतंत्र से चुनौती मिल सकती है। नेहरू एंड कंपनी ने आजादी और अधिकारों के नाम पर निचले तबके के लोगों को भी सिर चढ़ा लिया था। तभी तो एक बूढ़ी महिला ने नेहरू के गिरेबान को पकड़ कर सवाल कर लिया था कि आजादी मिली, तुम प्रधानमंत्री बन गए तो हमें क्या मिला। बदले में नेहरू ने जवाब दिया था कि आपको ये मिला है कि आप देश के प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं।
बताइए भला, ये भी कोई बात हुई कि प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ लिया जाए और वो बुरा भी न माने। बुलबुलसवार वीरों ने ऐसी आजादी की कल्पना कतई नहीं की थी। इसलिए आजादी की लड़ाई की जगह माफी मांगने पर जोर दिया गया। लेकिन इन कांग्रेसियों को कौन समझाए। आजादी के लिए लड़ते रहे, मरते रहे और जब आजादी मिली तो ऐसा लोकतंत्र और संविधान ले आए कि नीच-ऊंच सब सपाट करने की बात होने लगी। इसलिए अभी सरकार जितने तरह से हो सके, देश को ये समझा रही है कि असली आजादी 15 अगस्त के बाद मिली है, उसके पहले तो देश नेहरू का गुलाम रहा।
मोदीजी जो बात-बात में नेहरू की गलतियां निकालते रहते हैं, उसमें कुछ गलत नहीं है। अगर वो भी नेहरू के नक्शेकदमों पर चल रहे होते तो फिर अखंड भारत और हिंदू राष्ट्र की बात कैसे होती। बिचारे ठिठुरते गणों ने कितने सपनों से मोदीजी को एक नहीं दो-दो बार सत्ता पर बिठाया है, ताकि देश में हिंदुओं का शासन कायम हो सके।
मोदीजी को जुमलेबाज कहने वाले देशद्रोही ही नहीं गणद्रोही भी हैं। उन्हें मोदीजी को जुमलेबाज कहने की जगह देखना चाहिए कि हिंदुत्व के उत्थान के लिए कैसे वे दिन-रात एक करके काम कर रहे हैं। काम करने का मतलब, एक के बाद दूसरा मंदिर बनवाने से है। अयोध्या की जिम्मेदारी पूरी हो चुकी है। अब काशी, मथुरा कतार में लगा दिए गए हैं। इसके अलावा कभी महाकाल, कभी तिरूपति, कभी अक्षरधाम, कभी केदारनाथ, कहीं न कहीं मोदीजी पूजा-पाठ करते दिख ही जाएंगे। सनातन का महात्म्य इसी में है कि देश का प्रधानमंत्री दिन-रात भगवान की पूजा में लगा दे।
पहले के प्रधानमंत्रियों ने, यानी 1947 से लेकर 2014 तक के प्रधानमंत्रियों ने देश को गुमराह किया कि हम आजाद हैं। पुराने संसद भवन से सेंगोल गायब था, इसलिए सांसदों को इतनी छूट मिली हुई थी कि वे सवाल-जवाब कर सकें। सांसदों को सिर पर चढ़ने देने की गलती नेहरूजी ने खूब की, इसलिए उनके गंजे सिर तक पर संसद में तंज कसे गए। इससे जनता को और मुगालता हुआ कि हम आजाद हैं और देश में लोकतंत्र है। नेहरू की गलतियों को उनके आगे के प्रधानमंत्रियों ने भी जारी रखा।
इसलिए शून्यकाल, प्रश्नकाल, हर तरह के काल में सवाल पूछे गए और सरकार ने जवाब दिए। हद ही हो गई थी। इसलिए मोदीजी ने योजना आयोग की जगह नीति आयोग बनाकर बिल्कुल सही किया, तभी तो नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत देश को समझा पाए कि हमारे यहां टू मच डेमोके्रसी है। किसानों, मजदूरों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों सबको अधिकार का अ, बगावत का ब, सम्मान का स सीखा दिया गया था। जब हमारे पुराणों, मनु स्मृति में इन्हें दबाकर रखने कहा गया है तो फिर इस व्यवस्था को बदलने की क्या जरूरत है। इससे पहले कि पानी सिर के ऊपर से निकलता, टू मच डेमोक्रेसी को आखिरी विदा देने का फैसला ले लिया गया।
नए संसद भवन में सेंगोल को कितने श्रद्धाभाव से पुजारियों के दिशा-निर्देशों पर मोदीजी ने स्थापित किया था। उस सेंगोल को प्रयागराज के संग्रहालय की तरह सजावट की वस्तु बनाकर तो रखना नहीं था। इसलिए अब उसका इस्तेमाल शुरु हुआ है। जैसे नए चाकू की धार तेज होती है और बड़ी तेजी से सख्त दिखने वाले गाजर-मूली को काट देती है, कुछ इसी अंदाज में सेंगोल की छांव तले लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों से आवाज उठाने वाले सांसदों को बाहर किया गया। लेकिन सांसदों की धृष्टता इस पर भी खत्म नहीं हुई। संसद परिसर में बैठकर ही राज्यसभा सभापति की नकल उतारना और नकल उतारने वाले का वीडियो बनाना शुरु कर दिया।
एक तो दिल्ली की सर्दी, ऊपर से ठिठुरते हुए गणतंत्र की चिंता और इसमें सांसदों का ऐसा व्यवहार, महामहिम का आहत होना स्वाभाविक था। उन्होंने भी टू मच डेमोक्रेसी की तरह कह दिया कुछ तो सीमा होती होगी। कुछ जगह तो बख्शो। सही बात है जो काम प्रधानमंत्री मोदी का है, अब उसे दूसरे सांसद करने लग जाएंगे, तो ये मोदीजी के अधिकार क्षेत्र का सरासर उल्लंघन है। संसद भवन के भीतर आंख मिचमिचाने की मिमिक्री करनी हो या बाहर ताली बजा-बजाकर सवाल पूछना हो, ये सब मोदीजी ही कर सकते हैं। किसी और को ऐसा करने का कोई हक नहीं है। इसलिए इस घटना से राज्यसभा के सभापति यानी उपराष्ट्रपति के साथ-साथ प्रधानमंत्री और बीजेपी के कई नेता आहत हो गए। यहां तक कि देश की प्रथम नागरिक राष्ट्रपति श्रीमती मुर्मू ने भी इस पर अपनी निराशा प्रकट कर दी।
अब लग रहा है कि वाकई देश नए सिरे से आजाद हुआ है। क्योंकि अब लोगों को कपड़े देखकर मारने-पीटने, सिर पर पेशाब करने, नग्न करके घुमाने, गाड़ी से कुचलने, रस्सी बांधकर घसीटने, सरेआम अपशब्द कहने, भूखे, बिना इलाज के मरते देखने पर माननीयों की भावनाएं बिल्कुल आहत नहीं होती। लेकिन उन्हीं लोगों के चुने लोग संसद भवन में सवाल पूछें और जवाब की जगह निलंबन मिलने पर अपना रोष नकल उतार कर दिखाएं तो सारे माननीयों के मन में निराशा छा जाती है कि आखिर इस तरह देश में कैसे राम राज और मोदी राज आएगा।
निलंबन के बाद अब निलंबित सांसदों के संसद कक्ष, लॉबी और गैलरी में प्रवेश करने पर रोक लगा दी गई है, उन्हें संसदीय समितियों की बैठकों से सस्पेंड कर दिया गया है। इसके बाद दूसरी आजादी को बचाए रखने और लोकतंत्र की रक्षा के लिए क्या सख्ती बरती जाती है, क्या इन सांसदों के चुनाव लड़ने पर ही रोक लगती है या राज कायम रखने के लिए चुनाव ही रोक दिया जाता है, ये देखना होगा। तय है कि माननीयों के मन में छाई निराशा को दूर करने के लिए अभी कई बड़े कदम उठाए जाएंगे। देखना यह है कि ठिठुरते हुए गण अपने हाथ-पैर-बुद्धि सीधे कर गर्मी लाने का उपाय तलाशेंगे या फिर भजन करके ही मोक्ष प्राप्ति का रास्ता ढूंढेंगे।


